नियति की मोहर – रुचि पंत

अपने ग्राहक के दुपट्टे पर उन रंगबिरंगे फूलों के गुच्छों बीच पीले पराग की कढ़ाई करती चित्रा के घर के समीप से गुज़रती गाड़ी की तेज हॉर्न एकदम से सुन वो काँप उठी और अनायास नुकीली सुई उसके कोमल हाथों में चुभ गई।

“ये रवि के आने का समय नहीं है।” अपने आपको संभालती वो खुद से कह अपने टपटप बहते खून की धार को पानी से धो पास पड़ी सिलाई-कटाई की बची कतरन से अपनी उंगली पर बांध लेती हैं।

शादी के चार महीनों उपरांत चित्रा को अब अपने नाजुक शरीर में इन रोज लगने वाली चोटों के दर्द महज दाग से ज्यादा कुछ नहीं प्रतीत होते, उसकी आँखें भी अपनी व्यथा पर रो रो कर पत्थर बन चुकी थी क्युकी उसने इतने कम समय में इतनी यातना झेल ली कि अब ये आंखे रोती तो है मगर इनसे आंसू नहीं छलकते।

“अब देखते हैं इस चुभन का दाग कब जाएगा? क्यु

क्या कहते हो बाकियों?” सामने रखी ड्रेसिंग टेबल के आईने में देखकर वो खुद से पूछती हैं। अपनी आँखों के नीचे, माथे, गर्दन,जली हुई कलाई ना जाने कितने ही घाव एक-एक कर प्यार से सहलाते उनमें छिपी यातनाएं उसकी स्मृति में एक-एक कर हारी होने लगी।

उन घावों को देखते उसे माँ की दी हुई नसीहत याद आने लगी जब रवि के पहली बार पीटने पर उनसे चित्रा ने दुखड़ा सुनाया था।

“मर्द को अपने काम का गुस्सा, हताशा उतारने कोई तो चाहिए। दामाद जी इंसान बुरे नहीं है, देखना घर में जब नया मेहमान आ जाएगा तो धीरे-धीरे ठीक हो जायेंगे, सब औरतों को कुछ ना कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है, शायद ये सब सहन करना तेरी नियति में लिखा है।”  

” या माँ समय के साथ मुझे इन सबकी आदत पड़ जायेगी?” चित्रा के इतने कहने पर उसकी माँ ने चुप्पी साध ली,वैसे ही जैसे उनकी माँ उनके वर्षो पहले इसी सवाल के पूछे जाने पर मौन हो गई थी।

सुरसुराते कुकर की सीटी कानों में पड़ते वो अपने ख़यालों से झटपट बाहर आ गैस को मध्यम कर रवि से छुपाकर अपने आलटर से कमाए दो सौ रुपये चावल के डिब्बे में दबी एक पैसों की झिल्ली निकालकर उसमें हिफाजत से रख देती हैं।




“उनके आने का समय होने वाला है, देखना आज उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी।” वो घर के हर कोने को तेह कर,अपने कमरे से सिलाई-कटाई का नामों निशान मिटाने जुट गई।

टिंग टोंग!!

रवि के घंटी बजाने पर चित्रा तुरंत दरवाजा खोलने नहीं पहुँच सकी, इतनी सी बात आज उसके शरीर पर घावों की गिनती बढ़ाने काफी थे।

टिंग टोंग!!

“माफ़ कीजिएगा मैं हाथ धो रही थी”

“तू अंदर चल!! मुझे इन्तेज़ार करा कर नीचा दिखाना चाहती हैं?” आगबबूला रवि चित्रा के कंपकंपाते पैरों से चलते उसके उल्टे कदमों को अपने मर्द होने के रौब, औरत को वश में करने की अपने पिता से सीखी रणनीति, कमाई करने के अहंकार को दर्शाते उसे भीतर अपना बेल्ट उतारते धकेलने लगा।

जहातहा उसे अनवरत सजा दी गई, “आपको मुझपर हाथ उठाने का कोई अधिकार नहीं है!” उसने रवि को रोज की तरह आगे कुछ भी ना कहना मुनासिब समझा। जब वो मारते थक गया तो सोफ़े में पैर पसरा कर कहता है।

“खाना जल्दी लगा नहीं तो फिर मरूंगा। “

“जी अभी लगाती हूं ।” फर्श पर बदहवास पड़ी चित्रा खुद को सहारा देती लड़खड़ाते रसोई पहुंची ।

“हे भगवान! मैंने गैस सीम की थी मगर मेरा ध्यान कहा रह गया जो इसे बंद करना भूल गई। अब क्या करूँ? ” चित्रा ने ऊपर ऊपर का खाना निकाल कर परोस दिया।

” ये क्या बनाकर पटक दिया? क्या तेरे घरवालों ने खाना पकाना भी नहीं सिखाया? “

“माफ़ कीजिएगा आज खाना थोड़ा जल गया, कलसे ऐसा नहीं,,,,। ” तभी वो थाली उसके चेहरे पर फेंक दी गई और रवि उसके साथ आगे जो करने वाला था चित्रा उसके लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार थी।

मार खाते अपनी उन चीखो बीच उसे कुछ दिनों की तरह आज भी दूर कहीं से रेडियो फोन पर बात करने की अवाज सुनाई दे रही थी।




“आज भी बहाने मारकर पड़ी है। तुझे कल इतना भी नहीं मारा! चल उठ और काम पर लग,अपने घर में तुझे मुफ्त की रोटी नहीं तोड़ने नहीं दूँगा।”

अगली सुबह रवि बड़बड़ाता हुआ ऑफिस चला गया जो शुरुआती दिनों में उसके हुनर से आती अच्छी कमाई और उसे आत्मनिर्भर बनते देखने की जलन उसे ये कहलवाने नहीं थमी कि,” तु कितना भी करले मगर मुझ ज्यादा नहीं कमा सकती? तेरे दो पैसों से लोग मुझे ताना मारेंगे कि ये आदमी अपनी पत्नी की कमाई खाता है। कोई जरूरत नहीं मशीन छूने की,आज से बस घर का काम कर।” उसे इतना तो यकीन था कि थोड़े से रवि के सहयोग से वो अपनी स्वावलंबी होने का सपना पूरा कर सकती थी।

चित्रा रवि के जाने बाद उठ खड़ी हुई और उस आईने के पास पहुंच अपने शरीर पर उभर आए पुरानों घावों के साथ उन नए घावों को देखती अपने निराशजनक जीवन को अपनी नियति समझ यही सोच रही थी।

” जिंदगी में कुछ मिले ना मिले मगर मुझे यकीन है ये घाव मिलना कभी बंद नहीं होंगे। “

इतने में घर की घंटी बजती है।




“जी आप लोग कौन है? यहां क्यु आए हैं? ” दो मजबूत महिलाएं एक कांस्टेबल के साथ खड़ी थी।

“हमें पता है आप घरेलु हिंसा की शिकार हैं हम आपकी मदद करने आए हैं। “

“मगर मैंने तो कोई रिपोर्ट नहीं लिखाई ना मुझे कोई केस करना है। “

” देखिए, हमारी हेल्प लाइन पर आपके लिए किसी ने मदद मांगी थी। जिनकी दी जानकारी अनुसार हमारे स्वयंसेवक आपके घर की कुछ दिनों से पेट्रोलिंग कर रहे थे।”

“मैंने शिकायत कर दी तो समाज के बीच मेरे पति की क्या इज्जत रह जाएगी? नहीं मैं ऐसा कभी नहीं करूंगी!

आपलोग जा सकते है धन्यवाद।”

 ये कहते चित्रा उस देवीय मदद को दरवाजे से ही वापिस भेज अपने नारकीय जीवन को अपनी माँ की तरह नियति की मोहर लगाकर अंत तक ऐसे ही जीने मजबूर हो जाती हैं।

आप को क्या लगता है? क्या इंसान अपनी नियति बदल नहीं सकता? वो चाहती तो उसकी चौखट पर आई मदद के बिना भी अपने अपमान का बदला ले अपनी नियति बदल सकती थी। मगर उसने ऐसा कोई कदम नही उठाया क्योंकि उसने उसके साथ होती घरेलु हिंसा को अपनी नियति मान लिया था। 

पाठकों,




कोई भी परिस्थिति सही है या गलत पूर्णतः उस इंसान की सोच पर निर्भर करती है जो उसे रोज जी रहा हो। वो उसके लिए तबतक सही है जबतक वो सब सहन करने के बाबजूद उनसे निकलने का मन नहीं बनता और तबतक गलत जब रोज उन परिस्थितियों को जीते उनसे मुक्त होने की राह तलाशता रहता है और एक दिन उनसे निजात पाने सफल भी होता है।

रास्ता कौनसा तय करना है ये इंसान की अंतरात्मा शुरू से जानती हैं। बस देर कहीं लगती है तो अपने मन-मस्तिष्क को उस रास्ते चलने तैयार करने में।

आपकी

रुचि पंत

#नियति

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