माँ तो हूँ ही अब से पिता भी हूँ – डॉ उर्मिला शर्मा

सविता ने गैस पर एक तरफ कड़ाही चढ़ाकर भटूरे तलना शुरू किया तथा दूसरे बर्नर पर कुकर में छोले बन रहे थे। ये आखिरी सिटी बजी और वह गैस ऑफ ही करने वाली थी कि गुड्डू के कमरे से उसके और पीहू के झगड़ने की आवाज़ आयी। अक्सर ये दोनों भाई- बहन ऐसे ही जब – तब लड़ते रहे थे। तो यह सामान्य बात थी। किन्तु आपस में प्यार भी बहुत करते थे। तभी गुड्डू तमतमाये हुए किचेन में आया और बोला- ” ” मम्मी ये पीहू को बोल दो , अगर चौबीस घण्टे के अंडरमेरे रूम को जैसा था वैसा न कर दिया तो उसे पीट दूंगा…सिर्फ चौबीस घंटे के अंदर। बोल देता हूँ।”

“अच्छा! अच्छा बोल दूंगी, तुम इतना गुस्सा क्यो हो रहे। इतना गुस्सा सेहत के लिये ठीक नहीं। जरा सी तो बात है।”

 “नहीं मम्मी मैं उसे तीन दिन से कह रहा हूं। सुनती ही नहीं। मुझे जंगलियों की तरह रहना पसंद नहीं।” कहकर चला गया।

गुड्डू जितना ही सलीका पसन्द उससे दो साल छोटी पीहू उतनी ही अल्हड़ और मनमौजी स्वभाव की थी। इस छुट्टियों में गुड्डू होस्टल से घर आया था। पीहू उसकी गैर हाज़िरी में  उसके कमरे का पूरा हुलिया ही बदल दी थी। सविता के लाख कहने पर भी की भी के आने से पहले उसका कमर ठीक कर ले, वो रोज यही कहती रही कि कल पक्का कर लेगी। आज गुड्डू जिस तरह से बिगड़ गया था पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। खासकर जिस अंदाज में उसने ‘चौबीस घंटे’ का अल्टीमेटम पीहू को दिया। उसकी आवाज़ और अंदाज़ बिल्कुल उसके पिता की तरह था जिसने उसे पन्द्रह वर्ष पूर्व अतीत में धकेल दिया। 

               जब गुड्डू पाँच वर्ष का था और पीहू तीन वर्ष की तब सविता उनदोनों के साथ मायका आयी थी। कभी न वापस जाने का फैसला कर। इसके पूर्व भी तो वह दो बार इसी तरह का निर्णय करके आयी थी किन्तु मां- बाबूजी के समझाने पर वह वापस पति आनंद के साथ चली जाती थी। आनंद एक बेहद संवेदनविहीन, शक्की, व ‘सायको’ किस्म का व्यक्ति था। पत्नी को पैरों की जूती समझना उसके संस्कार में शामिल थे। उसकी मर्जी के बिना घर मे कुछ नहीं होना चाहिये। दूसरे की इच्छा उसके लिए कोई अर्थ नही रखता था। उसके हिसाब से तो सविता को गूंगी और बहरी होना चाहिये था। जरा सी बात पर वह आग- बबूला हो जाता। सविता समझ नहीं पाती की वह कैसा व्यवहार करें। गाली- गलौज मारपीट से भी वह परहेज नही करता। सविता हमेशा डर और आतंक के माहौल में जी रही थी। उसे अपने पेरेंट्स से फ़ोन करने की भी आज़ादी नही थी। मानसिक और शारीरिक रूप से वह अस्वस्थ होते जा रही थी। बच्चे भी सहमे- सहमे से रहते थे। बच्चों का सहमा चेहरा देख सकता कलेजा कचोट जाता था। आनंद को उससे और बच्चों से कोई सम्वेदना नहीं प्रतीत होता। बस उसका’ईगो’ सन्तुष्ट होता रहे, यही वह चाहता था। बच्चे भी उसके समीप जाने से डरते थे। केवल सविता के इर्द- गिर्द ही घूमते रहते। न बच्चों की पढ़ाई न स्कूल लाने ले जाने की कोई फिक्र उसे थी।घर से बाहर सारा काम सविता के जिम्मे था। जरा भी कहीं चूक हुई तो सविता की शामत आ जाती। एक- चीज के लिये उसे आनंद से पैसे मांगने पड़ते थे। उसकी स्थिति एक पत्नी की न होकर घर और बच्चों की देखभाल करने वाली एक ‘केअरटेकर’ की तरह थी। सविता अत्यंत संवेदनशील और चेतनशील स्त्री थी। ऐसी स्थिति उसके लिए असहनीय हो रही थी। अपने भविष्य को सोचकर वह बेहद भयभीत हो उठती। इतना तो उसने सोच ही लिया था कि इस आदमी के साथ उसका आजीवन निर्वाह असम्भव है। और यही सोच वह मायके आ गयी थी। लगभग छह महीने बाद एक रोज आनंद उसके मायके पहुँच उसके पिता को धमकी देने लगा। और सविता को उसके साथ भेजने को कहा। उसने सविता को बुलाकर कहा- “सुनो महारानी ! तुम्हे चौबीस घंटे का समय दे रहा। चुपचाप मेरे साथ चलो। देखो अभी बारह बज रहे, कल बारह बजे से पहले यहाँ से निकल लो। वरना आजीवन यहीं बाप के घर रहना। मुझे न तुझसे और न ही तेरे बच्चों से कोई मतलब है। ” कल ग्यारह बजे आने की बात कहकर वह होटल चला गया जहाँ वह ठहरा था। 


सविता से उसके बाबूजी ने कहा-” बेटा तुम जो भी फैसला लोगी, हम उसे स्वीकार करेंगे। अच्छी तरह सोच लो।” 

उस रात सविता की पलक भी न झपकी। अपनी आगामी जिन्दगी, बच्चों का भविष्य, दुनिया, समाज सारे सकारात्मक-नकारात्मक परिणाम उसने सोच डाले। उस चौबीस घण्टे में उतना सोच लिया जितना कोई चौबीस महिनों में भी न सोच पाए। वैसे भी इनमें से बहुत सी बातों पर वह पहले भी बहुत बार सोच चुकी थी। आज फैसले की घड़ी थी। अगली सुबह चौबीस घंटे का ‘डेडलाइन’ पर कर वह खुश थी अगले दिन ठीक ग्यारह बजे आनंद आग उगलते हुए आया। सविता ने मां- बाबूजी को अंदर ही रहने को कहा और स्वयं बाहर निकल स्पष्ट शब्दों में बोल दिया- ” सुनो ज्यादा तमाशा करने की जरूरत नहीं। मैं अपना और अपने बच्चों की देखभाल कर सकती हूं । बहुत हो गया , तुम्हारे साथ रहना अब असम्भव है। तुम जा सकते हो।” आनंद को ऐसे उत्तर की उम्मीद न थी। वह भौचक्का अपना विकृत सा चेहरा लिए उसे घूरता रहा और अचानक मुड़ कर चला गया।

              उसके बाद सविता ने बी. एड, एम. एड कर शिक्षिका के तौर पर नौकरी करने लगी। उसके मां- बाबूजी पूरे स्नेह के साथ उसके सम्बल बने रहे। बल्कि अपने वसीयत में अपनी प्रोपर्टी को दो बराबर हिस्सों, उसके और उसके छीटे भाई में बांट भी दिया। सविता ऐसे पेरेंट्स पाकर गौरवान्वित महसूस करती है। आज गुड्डू इंजीनियरिंग कर रहा है और पीहू ‘फैशन डिजाइनिंग’ कर रही है। 

        तभी गुड्डू की आवाज़ से सविता चौक पड़ी। वह कह रहा था-” मम्मी जल्दी नाश्ता दो ना, पीहू को भूख लगी है। मुझे भी… आज तो मेरा फैवरेट छोले- भटूरे जो बने हैं। और फिर नाश्ते के बाद मुझे पीहू के साथ मिलकर रूम भी अरेंज करना है। सविता के होठों पर एक प्यारी सी मुस्कान बिखर गई। और वह टेबल पर ब्रेकफास्ट लगाने लगी।

      –डॉ उर्मिला शर्मा, सहायक प्राध्यापक, अन्नदा महाविद्यालय, हजारीबाग, झारखंड-825301

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