हर उम्र की जिम्मेदारी – पूनम अरोड़ा

 वैसे तो बचपन से पढ़ने में होनहार थी कावेरी किन्तु जब एक्जाम होते तो बहुत ज्यादा तनाव में  रहती ।पहले से तैय्यारी होने के बावजूद बार बार रिवाइज़ करती रहती । उसे पास होने का भय नहीं बल्कि   अपनी  प्रथम श्रेणी बचाने और क्लास में  सबसे आगे रहने का एक उन्माद सा रहता। जिसे वह अपनी संरक्षित पूंजी समझती थी और उसके प्राप्य के लिए ही तनावग्रस्त रहती।

तब वह मम्मी  को देखती  और सोचती कितना तनाव मुक्त है ना इनका जीवन । न ही दिन रात पढ़ना, न एक्जाम की टेंशन ।
बस सुबह घर का काम और दिन में  आराम और शाम को काम और रात में फिर आराम और उसमें  भी उनको मेड का सहयोग  मिल जाता है यहाँ  तो सुबह से  रात  तक बस पढ़ने  की ,एक्जाम अच्छा  होने की  टेंशन, परिणाम बेहतर  लाने की  जिम्मेदारी । कितनी मजे की जिंदगी है मम्मी की।
कुछ साल बाद शादी हो गई  कावेरी की । सास ससुर और तीन देवरों समेत  अच्छा  बड़ा परिवार था।
यहाँ  सबसे बड़ी  बहू थीं वे । शुरू शुरू में तो  चलो कोई  जिम्मेदारी  न थी लेकिन फिर धीरे धीरे सास ने अपनी जिम्मेदारियों  की चाबी उन्हें  पकडा दी और स्वयं निवृत हो गई  जिम्मेदारियों  से ,तबियत भी ढीली रहती थी उनकी अब।
अब सभी का नाश्ता  बनाना ,लंच पैक करना ,कपड़े  धोना ,सुखाना इस्त्री करना ,डस्टिंग करना , और भी न जाने कितने काम। हालाँकि बरतन -सफाई के लिए तो मेड यहाँ  भी थी तो भी इतनी जिम्मेदारियां ।
उसे लग रहा था कि इतनी ज़िम्मेदारियों  के बीच उसके उसका अस्तित्व  खो रहा है
बढते कदमों  के पीछे के निशान
जिम्मेदारियों  में  दबते अरमान
छूट गई वो हँसी  मुस्कान
खुले आसमान  की वो उड़ान




जब  ये सब उसकी क्षमता से बहर हो गया तो अमन पर  अलग रहने  का दबाव डालने लगी। अब वैसे भी देवर की शादी होने वाली थी तो वो सम्हाले जिम्मेदारी ।
आखिर में  उसकी जिद के आगे आत्मसमर्पण  कर दिया अमन ने और वे अलग  घर में  शिफ्ट हो गए।
पहले पहले तो उसे वहाँ  स्वेच्छा  से जीते हुए ,अपने घर को सजाते सँवारते हुए अपनी पसंद का स्नैक्स, खाना बनाते हुए बहुत  अच्छा  लगा । हालाँकि  खालीपन ,अकेलापन महसूस  जरूर होता था  लेकिन फिर इस खालीपन को भरने का भी स्वतः ही समाधान हो गया । उसकी कोख में  बीज का प्रत्यारोपण हो गया था । अमन और वह दोनों ही बहुत  खुश थे उनका परिवार पुष्पित फलित होने वाला था । वह मातृत्व  की परिपूर्णता  से तो अभिभूत थी लेकिन अब वह घर की जिम्मेदारी  सँभालने में  खुद को अक्षम पाती ।अमन भी उसके साथ काम में
सहयोग देता और मेड भी थी तथापि उसकी तबियत खराब होने की वजह से वह कभी-कभी  वह सारा दिन ही न उठती । माँ  को अपने घर की जिम्मेदारियां थी और सास भी नई बहू को छोडकर ज्यादा दिन न रह सकती थी ।जैसे तैसे वो नौ महीने काटे।
शुभम के होने के बाद तो उसकी जिम्मेदारियां  कम होने की बजाए और बढ़ गई ।सारा दिन तो घर के और  उसके छोटे छोटे  काम और फिर  रात में  भी वह सोने नहीं  देता । हालाँकि  उसकी एक मुस्कान  उसके मन को तिरोहित  सुरभित कर देती लेकिन उसका तन थका और बोझिल  रहता । वो सोचती चलो कुछ समय की बात है फिर तो  बड़ा हो  जाएगा और मुझे कुछ राहत होगी।
वक्त के साथ स्कूल भी जाने लगा शुभम । जब तक वो स्कूल रहता वो घर का काम फटाफट निपटा लेती फिर उसे स्कूल से लाना, उसे मान मनुहार से खाना खिलाना ,उसका होमवर्क  कराना ,उसको दिए प्रोजेक्ट  बनाने में  उसकी मदद करना । उफ्फ!! कितना थक जाती थी वो ।अपने ऊपर तरस भी आता कितना अच्छा  था वो  बचपन का जीवन बस एक पढ़ाई बाकी कोई  चिंता फिक्र नहीं ।


वह अपनी जिम्मेदारियों  को निभाती रही लेकिन  खुशी से नहीं  बस एक फर्ज़ समझकर और साथ ही घुलती भी रही कि मैनें  जिम्मेदारियों  के बीच खुद का व्यक्तित्व  मिटा दिया नहीं  तो कितनी प्रतिभावान  थी मैं ।कहीं  जाॅब करके  बेहतर विलासिता पूर्ण जीवन जी सकती थी।
वक्त के साथ शुभम  भी शादी के लायक हो गया और उसने अपने लिए  अपने ही ऑफिस की लडकी  भी ढूँढ  ली । अब तो  कावेरी कुछ राहत महसूस  करने लगी कि बहू आने के बाद मैं  भी अपनी सास की तरह बहू को जिम्मेदारियां सौंप कर निश्चिन्त  हो जाऊँगी और फिर मैं  भी औरों  की तरह भ्रमण पर निकल जाऊँगी ।
मगर उसके ख्वाब  तो धरे रह गए  बहू तो नौकरीपेशा थी बल्कि अब तो शुभम के साथ साथ उसका नाश्ता भी बनाती, टिफिन पैक करती, शाम को आने पर चाय नाश्ता देती। जिम्मेदारी दुगुनी से चौगुनी  हो गई थीं।
भगवान की कृपा से समयानुसार  उसके घर पोती ने जन्म लिया । बहू अपनी प्रसव की छुट्टियों  के बाद ऑफिस जाने लगी तो घर की पूर्ववत सभी जिम्मेदारियों  के साथ साथ हर समय नन्ही रिया को देखने संभालने की जिम्मेदारी  भी उस पर आ गई  । कुछ उम्र की थकान और जिम्मेदारियों  की बोझिलता से क्षीण- विदीर्ण हो गई  वो ।
और किसी पर बस नहीं  चलता तो अमन पर अपनी झल्लाहट निकालतीं । दिन पे दिन चिड़चिड़ी होती जा रही थीं । घर का माहौल भी उतना खुशनुमा नहीं  रहा अब ।घर की मुख्य धुरी जब अपनी पकड़ छोड़ देती है तो कलपुर्जे तो ढीले हो ही जाते हैं ।
तब एक दिन टी वी में चल रहे सत्संग में  उन्होंने  सुना कि “
कोई भी काम ,कोई  भी जिम्मेदारी  के  निर्वहन के समय  तुम उसे तीन तरह से निभा  सकते हो –एक तो मजबूरी वश बोझ समझ कर–
एक फर्ज समझकर —
और तीसरे उन्ही जिम्मेदारियों  में  अपनी खुशी तलाशते हुए उनका आस्वादन करते हुए —
जिम्मेदारी  तो जीवन भर ही निभानी होती है बस भूमिकाएं  बदल जाती हैं। वो तुम्हारे  ऊपर है कि अपना रोल कैसे अभिनीत करते हो ।
उन्होंने  उदाहरण भी दिया कि मान लो आप रोटी बना रहे हो तो इसको आप तीन तरह से देख सकते हो




पहला कि मुझे इतनी गर्मी  और परेशानी में सबके लिए खटना पड़ता है,  खाना बनाना पड़ता है —
दूसरे  कि सबको खाना खिलाना मेरा फर्ज है —
और तीसरे कि मेरे द्वारा  बनाए खाने से सबको जितना परितोष मिलता है उनकी  परितृप्ति से मुझे उतना  सुकून ।
तो जिम्मेदारियों  से भागना नहीं !! उन्हे  जबरदस्ती  निभाना भी नहीं !! बल्कि उनका खुशी से  निर्वहन करते हुए अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध करनी है।”
कावेरी को तो जैसे जीवन का सूत्र मिल गया ।
“हर उम्र  की अपनी एक जिम्मेदारी  होती है ।”
वो हर उम्र  की जिम्मेदारी  से भाग रही थी लेकिन अब समझ गई थी कि यह ही जीवन है । बिना कुछ किए ,बिना जिम्मेदारी  का जीवन निरर्थक है तो  जब जिम्मेदारियां  निभानी ही हैं  तो तीसरे ऑप्शन के साथ क्यों  नही ?

#जिम्मेदारी 

पूनम अरोड़ा—

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