Moral stories in hindi : खबर आग की तरह पूरे मुहल्ले में फैल गई। जिसने भी सुना सभी बेतहाशा ताऊजी के घर की ओर दौड़ पड़े। ताऊजी का मरा हुआ बेटा जिंदा वापस लौट कर घर आया था। वही बेटा जिसके श्राद्ध में चार गाँव के लोग भोज खाकर गये थे।
पहले तो बेटे को देख ताऊजी डर से सिहर गये। उन्हें लगा कि कोई भूत उनके बेटे का भेष धरकर आया है। लेकिन उसके साथ सेना के दो जवानों को देख अपने आप को काबु किया। जहां खड़े थे वहीं से चिल्लाए-” सूरज की माँ… ओ सूरज की माँ…देख बाहर आकर कौन आया है?
माँ आंचल संभालती बाहर आयी। जैसे ही उनका नजर बेटे पर गया वह वहीं गश् खाकर गिर पड़ी। सब लोगों के साथ मिलकर सूरज ने माँ को उठाकर चौकी पर सुलाया। पानी के छींटे मारे थोड़ी देर के बाद माँ ने आंखें खोली जब सूरज को देखा तो लगा जैसे मुर्दे में प्राण लौट आया हो। उनके मूंह से कोई भी शब्द नहीं निकल रहा था। एकटक से बेटे को देखे जा रहीं थीं।
कैसे- कैसे इन तीन सालों में अपने दिल को उन्होंने अपना बेटा खोने का ढाढस बंधाया था। उनका दिल इसीलिए नहीं मानने को तैयार था। कैसे मानता बेटे को काल ने जिन्दगी जो बख्श दी थी।
लोगों का तांता बढ़ता जा रहा था। सब सूरज को एक नजर देख लेना चाहते थे। सबकी आँखों में वह मंजर घूम रहा था जब तिरंगे में लिपट कर उसका निर्जीव शरीर घर आया था। उस दृश्य को देख कौन सी आँखें थीं जो रोई नहीं थी। सूरज केवल देश का ही नहीं अपने गांव का भी अभिमान था।
समूचे गांव की निगाहें सूरज को देखने के लिए व्याकुल थीं और सूरज का निगाह घर के अंदर वाले दरवाजे पर था। उसे इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि सारा गांव उसके जिंदा बच कर आने की खबर सुन इकठ्ठा हो गया था। पर उसकी जान से प्यारी सलोनी अभी तक कमरे से बाहर क्यूँ नहीं निकली। क्या उसे अब तक मेरे लौट आने का शोर सुनाई नहीं दिया ! वह सोचने लगा कि कहीं कोई और बात….
नहीं -नहीं मेरी पत्नी ऐसी नहीं हो सकती जो तीन साल में ही मुझे भूल जाए और दूसरी दुनियां बसा ले। सूरज ने अपने माथे को झटक दिया।
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उसकी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। आखिर वह पूछे भी तो किससे। लोक लाज ने उसे बेबस कर दिया था। माँ बेसुध है। पिता लोग बाग को उसके बच के आने की कहानी सुनाने में लगे हैं।
तभी सूरज को कानों में कुछ सुनाई दिया ।दो महिलाएं जिसमें एक उसकी चाची थी बात कर रहीं थीं।- “ओह… कितना बुरा हुआ बेचारी बहू के साथ…. उस बेचारी का क्या दोष था। पति के रहते ही साल भर में विधवा बनकर यहां से चली गई । सुहागन के जोड़े में आई थी और सफेद रंग ओढ़कर गई। विधाता भी कैसे -कैसे खेल खेलता है। दो- दो जिंदगियां बर्बाद कर दी।
सूरज को समझते देर नहीं लगी। वह दौड़ कर घर के अंदर गया। सलोनी- सलोनी चिल्लाने लगा। कुछ महिलाएं उसके पीछे- पीछे भाग कर अंदर गईं। वहां देखा तो सूरज उसकी तस्वीर को सीने से लिपटाये रो रहा था। महिलाओं ने सूरज को समझाया-” बेटा अभी देर नहीं हुई है। सलोनी अपने मायके में है। तुम जाकर अभी लेकर आ सकते हो बशर्ते कि वो चली आये।
“क्यों चाची बशर्ते क्यों-” सूरज ने अपना आंसू पोछते हुए कहा।
चाची ने धीरे से सूरज के पास जाकर कहा ‘” बेटा औरत सबकुछ बर्दाश्त कर सकती है पर दाग नहीं। “
“कैसा दाग चाची!”
कहना तो नहीं चाहती पर यह सुनने के बाद की तुम शहीद हो गए हो तुम्हारी माँ ने बेचारी बहू को क्या- क्या नहीं कहा। चुड़ैल, डायन यहां तक कि उसे अपने पति को यानि तुम्हें मारने का इल्जाम लगाया। बहुत प्रताड़ित किया। प्रताड़ना से तंग आकर वह कुंए में कूद पड़ी। वह तो भला हो गांव वालों का जिन्होंने बचा लिया। गांव वालों ने ही बहू के पिता को खबर दी। और कुछ दिन बाद वो आकर उसे ले भी गये। सूरज अपनी मुट्ठी भींच अपनी जिंदगी की बर्बादी का कहानी सुन रहा था।
किसी के कमरे में आने की आहट सुनी तो चाची चुप हो गईं। आहट पाते ही सूरज ने मुड़ कर देखा पिता हाथ जोर कर खड़े थे। भर्राय आवाज में बोले-” बेटा हमें माफ कर दो। हम तुम्हारी धरोहर सम्भाल नहीं पाये। लेकिन दोष तुम्हारी माँ की भी नहीं है वह तुम्हें खोकर पागलों सी हो गयी थी। और जब भी बहू को देखती अनाप- शनाप बोलने लगती थी।
बेटा एक तरफ माँ थी जिसका कोख उजड़ गया था और दूसरी तरफ अर्धांगिनी थी जिसके सुहाग में आग लगा था। मुझे नहीं पता कौन अपने जगह सही थी ।मैंने बहुत कोशिश की थी कि बहू को रोक लूँ लेकिन तुम्हारी माँ ने उस बेचारी पर कुलनाशनी का दाग लगा दिया जिसे वह सहन नहीं कर पायी। और अपने आप खत्म करने का फैसला कर लिया था। मैं क्या करता …. ।
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अध्यापक- -देवेंद्र कुमार
तुम्हारे ससुर जी उसे लेने आ पहुंचे ।किस हक से उसे रोक लेता। लेकिन तुम चिंता मत करो मैं लेकर आऊंगा बहू को उसके घर से।
सुबह -सुबह दोनों बाप -बेटे बहू के दरवाजे पर पहुंचे। वहां के लोगों ने भी सूरज को जीता जागता देखा तो अचंभित रह गये। बहू के पिता ने दामाद को देखा तो खुशी से रो पड़े। भगवान ने बेटी की उजड़ी दुनियां बसाने की जिम्मेदारी ली थी। वह दौड़ कर बेटी के पास गये और बोले-” बेटा चल तेरे ससुर जी तुझे लेने आये हैं। “
सलोनी कोई किताब पढ़ रही थी।पढ़ते हुए ही बोली-” पिताजी मैं बोझिल होने लगी हूं न आपके लिए। “
“नहीं बेटा ऐसी बात नहीं है। तू चल तो सही बाहर देख कौन आया है!”
“नहीं- पिताजी नहीं मैं कहीं नहीं जाऊँगी और वहां तो बिल्कुल भी नहीं जहां मुझे अपने ही सुहाग को जलाने का दाग लगाया गया हो ।”
“बिटिया जिद नहीं करते। तू तो बहादुर बेटी है न मेरी चल तो सही!”
“देख बड़ी आस लगा कर समधी साहेब आए हैं तुझे लेने। तू हाँ कर दे।”
मैंने तो इनके वंश का नाश किया है न ,फिर क्यूँ आए हैं हमें ले जाने के लिए। उनलोगों के द्वारा दिया गया मेरे रूह पर ज़ख्मों के दाग कभी नहीं मीट पायेगा।
“कौन कहता है कि तुमने मेरे कुल का नाश किया है बल्कि तुम्हारे सुहाग की ताकत ने मुझे मौत के मूंह से बाहर निकाला है पगली।”
सलोनी के हाथ से किताब छुटकर नीचे गिर गया और वह घायल चकोर की तरह एकटक सूरज को देखती रही। अनायास ही उसके मूंह से निकल गया आप…..!
हाँ मैं….. सलोनी आगे बढ़ कर सूरज के गले से लिपट गई। उसकी आंखों से गंगा जमुना की धारा बह चली थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसके दिल पर लगे सारे दाग धुल रहे हैं।
#दाग
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार