“दिखावा ” – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

एक जरूरी मीटिंग के सिलसिले में सुधा लखनऊ आयी थी। लखनऊ आने से पहले वह सोच कर ही आयी थी कि मीटिंग खत्म होने के बाद वह अपनी  छोटी सी दस साल की भतीजी पीहू से मिलकर जायेगी।

मीटिंग खत्म होते ही सुधा भाभी की बहन के घर की ओर चल पड़ी। जैसे ही बरामदे में पहुंची पीहू दौड़ कर उसके पास आई और अपने दोनों हाथ फैलाकर उससे लिपट गई।

“पीहू बेटा कैसी है तू?”

“मस्त है सुधा दीदी आपकी लाडली !”

पीहू के कुछ बोलने से पहले ही उसकी मौसी बोल पड़ी  “मन पसंद खाना और खेलना यही रूटीन है इसका ।”

सुधा हँसकर बोली-“हाँ तो सच है ना बच्चे मामा ,मौसी के पास मस्ती ही तो करते हैं। 

सुधा  ढेर सारा खाने का सामान पीहू और उसकी मौसी के बच्चों के लिए लेकर गई थी। उसमें मिठाई, चॉकलेट फ्रूट्स और भी जाने क्या -क्या थे। सुधा ने सोचा पीहू दौड़ कर उसके हाथों से सामान का पैकेट लेने आयेगी। लेकिन  वह चुपचाप सोफ़े के किनारे खड़ी थी। तभी और बच्चे आए और थैला लेकर बाहर भागने लगे।

मौसी ने पीहू को टोका-” तुम  भी जाओ पीहू ! वर्ना बाद में कहोगी कि किसी ने तुम्हें दिया ही नहीं। “

सुधा को मौसी की बातें थोड़ी अटपटी लगी लेकिन उसने अनसुना कर दिया।

इतने में मौसी ने सुधा की लाई हुई मिठाइयों में से कुछ नाश्ते के साथ रख कर ले लाई ।

एक अलग प्लेट में गरम- गरम कचौरिया और जलेबी पीहू को देते हुए बोलीं-” पीहू  तू भी खा !”

सुधा बोली-” अलग क्यूँ यह मेरे साथ ही खा लेगी ।आओ बेटा!

पीहू कभी बुआ को देख रही थी और कभी मौसी को!

नहीं – नहीं सुधा दीदी इसके लिए अलग लाई हूं न! आप खाइये ।

सुधा ने कहा-“बेटा खा लो न ठंढ़ा हो जाएगा !”

“पीहु…बेटा क्या सोच रही हो?”

शायद अकेले नहीं खाना चाहती है। आप दोनों बच्चों को भी बुला लीजिये।

“अरे नहीं सुधा दीदी! मैं सबसे पहले इसे खिलाती हूँ फिर किसी और का नंबर आता है।

मौसी की बातें सुनकर सुधा मुग्ध हो गई।

“पीहु, खा ले बेटा मैं अभी नहीं जा रही हूँ। कल सुबह जाऊँगी। ठीक न  …आ मेरे पास बैठ!

“देख तो मासी कितने प्यार से खाने के लिए कह रही हैं!”

रहने दीजिये सुधा दीदी, इसे अभी मन नहीं है खाने का। यह ऐसे ही करती है। बड़े नखरे हैं इसके। मैं तो परेशान हो जाती हूँ। पिछे लगना पड़ता है। तब जाकर कुछ खाती है। छोटी(पीहू की माँ) ने इसे बिगाड़ दिया है। मेरी तो बात भी नहीं सुनती है।

सुधा ने माथे पर हाथ रखते हुए कहा-”  बिन माँ की बच्ची है और फिर माँ और मासी में कोई अन्तर थोड़े होता है। बड़ी भाग्यशाली है यह जो आप जैसी मासी मिली है और मौसी का प्यार मिल रहा है।”

भाभी के असमय काल कवलित होने से भैया का पूरा परिवार बिखर गया था। भैया पूरी तरह से टूट चुके थे। उन्हें एक बेटा और दो बेटियाँ थीं। भैया ने सुधा को कहा था कि एक को अपने साथ रख ले जा ।दो छोटे बच्चों को वह अपनी मां के साथ मिलकर सम्भाल लेंगे। माँ भी तो बुजुर्ग हो चली हैं। कैसे संभालेंगी।

   सुधा का रो रहा था पर वह अपनी नौकरी से परेशान थी। नौकरी भी ऐसी की मीटिंग के लिए दस-दस दिन उसे घर से बाहर  रहना पड़ता था। उसके बच्चों को तो पति की देख रेख में आया संभालती थी । फिर वह कैसे बिन माँ की बच्ची की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेती। भैया को मना करने के बाद उसका कलेजा कचोट गया था। आँखों में आंसू लिए वह भारी मन से मैके से वापस चली आई थी।वह जितने दिन  मायके में रही तीनों बच्चों को कलेजे से लगा कर रखा। बुआ के प्यार ने बच्चों को माँ की बिछोह को कुछ कम कर दिया था। चौबीसों घंटे सब बुआ- बुआ करते नहीं थकते थे।




समय की गति न कभी रूकती है और न कभी रूकी। तेरहवीं बीत गई। भैया के आग्रह पर सुधा एक सप्ताह तक रूकी रही। भैया बिल्कुल ही शांत हो गये थे। उनका मन था कि वह कुछ दिन और रूकती। पर सुधा की सारी छुट्टियां खत्म हो गईं थीं। मजबूरन उसे वापस जाने के लिए तैयार होना पड़ा। तीनों बच्चे सुधा का आंचल पकड़े साथ चलेंगे का जिद करने लगे। सुधा अपने दिल पर पत्थर रख कर बच्चों से हाथ छुड़ा स्टेशन की ओर लौट आई थी। रास्ते भर बच्चों  और उनकी मासूमियत को याद कर उसकी आँखें भींग रहीं थीं।

कुछ दिन बाद पता चला कि भाभी की बड़ी बहन भतीजी को अपने साथ पढ़ाने के लिये लखनऊ ले गईं हैं । सुनकर दिल को बहुत सुकून मिला। बच्चों को तो माँ से ज्यादा मौसी प्यारी होती है। कहा ही गया है कि मौसी,माँ सी ही होती है। “

“खाओ ना पीहू !बुआ को देखकर नखरे कर रही है!”

मौसी की आवाज सुन सुधा ख्यालों से बाहर आई । तभी मौसी के दोनों बच्चे दौड़ कर कमरे में आये।

आते ही बोल पड़े-” अरे! मम्मी तुमने आज पीहू को हम से पहले क्यूँ दिया खाने के लिए ! रोज तो तुम हमें पहले देती हो न! वह तो सबसे अंत में खाती है न!”

सुधा के कान में किसी ने शीशा डाल दिया हो  जो  पिघलता हुआ  उसकी आँखों में भर आया। तो क्या यह सब झूठे प्यार का दिखावा था !

मौसी बच्चों को चुप रहने के इशारे करने लगी। बच्चे तो बच्चे ही थे फिर बोले-” अच्छा! पीहू की बुआ जी आईं हैं इसीलिए उसे पहले दिया खाने के लिए!

सुधा की भरी आँखें  खुद को रोक नहीं पाई । जैसे -तैसे सुधा ने खुद को संयत किया और पीहू से बोली-” बेटा जा अपने कपड़े का बैग लेकर आ तुझे मेरे साथ चलना है।”

सुनते ही पीहू सुधा से लिपट गई। सुधा ने भी उसे कलेजे से लगा लिया। सुधा की आँखों में वात्सल्य उमड़ पड़ा ।और सुधा को लगा जैसे भाभी नम आँखों से उन दोनों को निहार रही हैं। 

स्वरचित एंव मौलिक

डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर,बिहार

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