बंटवारा – डॉ उर्मिला सिन्हा  : Moral Story in Hindi

      मीतू बोझिल कदमों से सीढ़ियां चढ़ती गई । एक के बाद एक चौबीस सीढ़ियां। मीतू के बायें हाथ में तकिया ,चादर दाहिने हाथ में पानी का गिलास।छत पर पहुंच कर उसने चारों ओर देखा कल तक यह छत नाते-रिश्तेदारों से भरा हुआ था । इस भीषण गर्मी में सभी छत पर ही सोना चाहते थे।

“मुई गर्मी तो जान लेकर छोड़ेगी “पंखा झलती मोटी ताई गर्मी को कोसती।

  “इस साल का तापमान पिछले सारे रिकॉर्ड तोड दिया…!”कोई बोल उठता।

घर का पूरा काम समेटकर ही मीतू छत पर आ पाती थी। यहां भी पैर सीधा करने भर स्थान मुश्किल से मिल पाता। कहने को तो सभी उसके सगे-संबंधी थे किन्तु मीतू की चिंता किसी को नहीं थी। वह घर की अघोषित मालकिन बना दी गई थी। मां के पश्चात उनकी सम्पूर्ण जिम्मेदारी को अपने आप में समेटे हुए उन्नीस वर्षीय किशोरी ।

    सभी रिश्तेदार चले गए ।रह गए मीतू के तीनों बड़े भाई , भाभियां, दोनों बड़ी बहनें ‌अपने पति और बच्चों के साथ।

अब प्रारंभ हुआ घर में नंगा नाच बंटवारे और स्वार्थ का।

मीतू का मन गहरे विषाद से भर गया , मुंह का स्वाद कसैला हो गया। वह तकिये पर सिर रख एक टक आसमान में कुछ ढूंढने लगी।

   मां कहती थी,”मृत्यु के बाद व्यक्ति तारा बन जाता है ।”

“लोग मरते ही क्यों हैं “भोली मीतू पूछ बैठती।

मां उसे बहलाने के लिए कोई न‌ई बात छेड़ देती।तो क्या उसकी प्यारी मां तारा बन गई ; कौन-सा तारा बनी होगी मां । वह खूब चमकने वाली तारा या आजीवन तमाम कष्टों को झेलने वाली मेरी मां टिमटिमाती तारा बन कर रह गई होगी। कमजोर, बीमार अपनों द्वारा दिये गये अनगिनत जख्मों को झेलती हुई मां आखिर कौन सी तारा बनी होगी।

मीतू का भावुक मन तर्क-वितर्क करने लगा अपने आप से “वो तारा होगी मां “!

  तभी दूसरे तारे पर नजर पड़ते मीतू का चंचल भावविह्वल हृदय उधर ही झुक जाता।

“नहीं नहीं वह चमकीला तारा है मेरी मां , मां के सदृश ही ज्योतिर्मय, प्रकाशमान।”

मीतू अपनी मां की स्नेहिल प्यार की पवित्र यादों में खो गई।भूल ग‌ई अपनी सारी दुःख व्यथा”मां मेरी प्यारी मां देख रही न आज तुम्हारी दुलारी बेटी तुम्हें ढूंढ रही है!”

  ठीक उसी समय नीचे से जोर जोर से बोलने की आवाजें आने लगी।

“क्या करें इन झगड़ों का , अभी तो मां की तेरहवीं बीते तीन दिन भी नहीं बीते…..!”

किंतु उसी बीच उनके तीनों बेटे और दोनों बेटियां घर का तीन-तेरह करने में लग गए। स्वार्थी तो सारा संसार है मगर अपने ही कोख से जन्मे बच्चे जिन्हें मां-बाप अपने हाड़-मांस से सृजित करते हैं अपने रक्त को दूध में परिवर्तित कर स्तनपान कराती है उसका ऐसा अपमान।

मीतू छटपटा गई ।आंगन में झांक कर देखा, अम्मा का कमरा साफ़ दिखाई दे रहा था। अम्मा की बड़ी पेटी खुली पड़ी थी । तख्त पर अम्मा के विवाह का लाल जोड़ा पड़ा हुआ था उस जोड़े की हिफाजत मां अपने जान से ज्यादा करतीं थीं।जब भी मां बड़ी पेटी की सफाई करतीं। जीर्ण-शीर्ण पड़े हुए अपने लाल जोड़े को बड़े जतन से सम्भाल कर रख देती। पुरानी यादों से उनकी आंखें चमक उठती और वे दुल्हन की तरह शरमा जाती। मीतू को मां का यह रूप बहुत भाता था।

 वह शादी का जोड़ा जो जगह जगह से गल गया था ,गोटे काले पड़ गये थे ; अम्मा के लिए सबसे कीमती थे।जिसे धारण कर उन्होंने अपनी गृहस्थी की बुनियाद रखी थी , गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया था उसी जोड़े को बड़ी भाभी ने हिकारत से एक ओर पठक दिया।

 मीतू के कलेजे को ठेस पहुंची जैसे दुल्हन बनी अम्मा को ही भाभी ने पटकनी दे दी हो।

इन्सान प्रत्येक क्षेत्र में विजय भले ही प्राप्त कर लें उसे शिकस्त अपनी संतान से ही मिलती है।

  अब निकला जेवरों का डिब्बा__तीनों भाभियां और दोनों बहनें एक साथ झपट पड़ी। मां ने अनेक कष्ट सहे थे , आर्थिक अभाव का सामना भी किया था। बाबू जी के निधन के बाद इन बचे-खुचे जेवरों की कीमत अम्मा की नजरों में बहुत बढ़ गई थी। बाबू जी के साथ आय का स्रोत भी समाप्त हो गया था।

पेंशन के थोड़े पैसे और मकान के किराए से जिंदगी की गाड़ी खींची जा रही थी। मां ने अपने गले से सोने की पतली सी चेन भी उतार कर उसी डिब्बे में बंद कर दिया था।

मीतू पूछ बैठती,”उन गहनों को पहनती क्यों नहीं अम्मा…?”

“तेरी शादी पर काम आयेंगे , तेरे हाथ पीले कर दूं तो चैन की सांस लूं….;”वे लंबी सांसें लेती।

मीतू एक दिन अपने दोनों हथेलियों में हल्दी लेपकर मां के सामने जा खड़ी हुई “देखो अम्मा हो गये‌ न मेरे हाथ पीले…अब तुम चिन्ता नहीं करोगी!”मीतू के इस मासूमियत पर मां हंसती हंसती दोहरी हो गई।

मीतू ने अम्मा को ऐसे खिल-खिलाते बाबू जी के मौत के बाद पहली बार देखा था । अतः वह भी हंस पड़ी।

   उसी जेवरों का ऐसा बंदरबांट मीतू को खल गया।

छोटी भाभी ने झपटकर सोने के झुमके उठा लिए।”अम्मा ने मुझे देने का वादा किया था बेचारी अम्मा मुझे देने के पहले ही संसार छोड़ ग‌ई “और अभिनय में प्रवीण छोटी भाभी ने रोने का बड़ा सही नाटक किया । मीतू को हंसी आ गई। इस झुमके को तो मां ने पाई पाई जोड़कर मेरे वास्ते पिछले साल ही बनवाया था । छोटी भाभी ने तो इसे देखा भी नहीं था।

अम्मा के सोने का कंगन उठा मंझली भाभी ने नहले पर दहला मारा”और इस कंगन को तो अम्मा ने मुझे दे ही दिया था वह तो मैं ही मूर्ख थी जो कह दिया कि ऐसी जल्दी क्या है ।बाद में ले लूंगी। अब किसने सपना देखा था अम्मा ऐसे धोखा दे जायेंगी।”वे नाक सुड़कने लगी।

 इसी प्रकार पानजर्दे से काले पड़े दांतो को निपोड़ते हुए अम्मा के गले का हार बड़ी भाभी ने अपने हिस्से में तथा अंगुठियां,टाप्स दोनों बहनों को मिला। चांदी के जेवरों को भी पांचों ने बड़ी इत्मीनान से आपस में बांट लिया।

अब बारी आई कपड़ों की । अम्मा की चटक रेशमी साड़ियां जिसे अम्मा ने एक‌ एक कर सयानी होती मीतू के लिए ही जुटाया था । पांचों बहू बेटियों में बंट गया।

आपस में चाहे पांचों में कितना भी मतभेद हो इस मुद्दे पर वे एक मत हो गई। वाह रे ‌स्वार्थ !बरतन भांडों का बंटवारा अगले दिन पर टाल वे सोने चलीं।दूर गिरजे के घण्टे ने एक बजने की सूचना दी। मीतू भी धीरे से बिस्तर पर आंखें मूंद सोने का निष्फल प्रयास करने लगी।

  सीढ़ियों पर कदमों की आहट हुई। दोनों बहनें धमधमाते छत पर आ गई। बिना किसी हीलहुज्जत के जेवर प्राप्ति पर दोनों हर्षातिरेक की सागर में डुबकी लगाने लगी।

बड़ी दीदी ने ऐंठकर कहा,”चलो अच्छा हुआ , मुझे तो डर था–पता नहीं भाभियां हमें कुछ देंगी या नहीं।”

 “अरे देंती कैसे नहीं –मुझे तुमने कमजोर समझ रखा है अपने बाप का माल है हमें भी तो कुछ निशानी चाहिए , ससुराल में रौब पड़ेगा ,रौब…!”मंझली फुसफुसाई।

“मीतू शायद सो ग‌ई । देखें तीनों में से कौन-सा भाई इसे अपने पास रखता है।हम तो व्याही बेटियां हैं हमारा वश ही क्या है?”मंझली दीदी ने फिर एक तुक्का छोड़ा।

  “हां, यह हमारा दायित्व नहीं है ,बेकार ससुराल में हंसी होगी।यह भाईयों का मामला है मीतू का क्या करें।”

“हां सो तो है।”

फिर दोनों बहनें सो गई। एक दूसरे की ओर पीठ करके। मीतू का हृदय चित्कार उठा”जिसका कोई नहीं उसका भगवान होता है!’

  अतीत की यादों में खो गई मीतू –मीतू का जब जन्म हुआ था तीनों भाइयों और दोनों बहनों का विवाह हो चुका था। प्रौढ़ावस्था में मां बनना , अम्मा शर्म से गड़ गई थी।

विधाता ने उनके आंचल में अति रूपवती मासूम बिटिया डाल दी थी। सम्भवतः यही कारण था कि दोनों बड़ी बहनें और तीनों भाइयों को मीतू से वह अपनापन कायम नहीं हो सका जो हम‌उम्र भाई-बहन में रहता है।मीतू की उम्र की तो उनकी संतानें थीं।

मीतू के पांचवें सालगिरह के कुछ दिनों बाद ही पिता जी चल बसे। मां अपना वैधव्य भूल मीतू में लटपटाई रहती।

बेटी दामाद, बेटे बहू बच्चों के साथ छुट्टियां मनाने आते भी तो भावनात्मक रूप से जितना छोटी बहन से जुड़ना चाहिए था जुड़ नहीं पाते थे। मीतू भी कुछ सहमी सहमी रहती। बुढ़ापे की औलाद मीतू अपनी मां की सहेली बन गई थी।

आय के नाम पर अम्मा के पेंशन के थोड़े पैसे और दो कमरों का किराया था।मगर उसी में मां बेटी अत्यंत प्रसन्न रहती।अभाव में भी संतुष्ट मीतू एक प्रतिभाशाली स्नातक  की छात्रा थी।

एक दिन मां बाथरूम में गिर पड़ी। पक्षाघात का जबरदस्त दौरा पड़ा था।

  मीतू ने बड़े भाई बहनों को सूचित किया। मीतू अपनी समझ भर दवा-दारू, सेवा करती रही। सभी आये किंतु मां के मरने के बाद।

पड़ोसियों ने अंतिम संस्कार कर दिया। रोते रोते मीतू की आंसू सुख चले थे।जब किसी का हाथ सिर पर हो , कोई चुप कराने वाला हो तो आंसू भी निकलते हैं । मां को मुखाग्नि देने का कार्य जो उनके बेटों का था उसे मीतू ने किया। उसने कांपते हाथों से मां को मुखाग्नि दी।

“शायद अपनी मां को मुखाग्नि देने के लिए मीतू का जन्म हुआ था”किसी पड़ोसी ने लंबी सांस ली।

“वृद्धावस्था की औलाद…”

इन बातों से बेखबर मीतू ,”ईश्वर मेरी मां की आत्मा को शांति प्रदान करना और मुझे इस संकट की घड़ी को बर्दाश्त करने की शक्ति देना प्रभु!”

  मीतू विक्षिप्त सी घर लौटी ।सूना घर भांय भांय कर रहा था। मीतू को कंपकंपी छूट गई। बिना मां के वह कैसे रहेगी अकेली। ठीक उसी समय पड़ोस की मुंहबोली बुआ आ पहुंचीं। बाल विधवा , निसंतान,”मैं रहूंगी तुम्हारे साथ।”

 मीतू को ढांढस बंधाया। तेरहवीं के ठीक तीन दिन पहले मीतू के बड़े भाई-बहन सपरिवार पधारे। कैसे क्या हुआ , मीतू पर क्या गुजरी उसनेे किस प्रकार इस स्थिति का सामना किया यह जानने की उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी।

मां की तेरहवीं निपटते ही वे असली मुद्दे पर आ गए । घर के चीजों की बंटवारे की। अभी तक अम्मा थी , उनकी छत्रछाया थी । एक अदृश्य डोर से सभी बंधे थे । उस डोर के टूटते ही सभी की असलियत सामने आ गयी।

     उनके वापसी का समय नजदीक आ रहा था मीतू का दिल धक-धक करने लगा।पता नहीं कौन उसे अपने साथ रखेगा। जिसके पास भी रहेगी उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं देगी बड़े प्यार से रहेगी। कोई ऐसा काम नहीं करेंगी जिससे उन्हें कष्ट पहुंचे।

मगर यह क्या…? पांचों भाई-बहन अपने परिवार और मां की संचित सम्पत्ति समेट चलने की तैयारी करने लगे।

“मीतू के लिए तुम लोगों ने क्या सोंचा …”बुआ पूछ बैठी।

  बड़े भैया ने सबकी ओर निगाहें दौडाई, प्रतिक्रिया जानने के लिए फिर ठहरे हुए शब्दों में बोल पड़े,”मीतू की यहां पढ़ाई चल रही है और तुम हो ही न बुआ__तुम्हारा भी कोई नहीं है ; मीतू के साथ ही रहना । बीच-बीच में हमलोग आते रहेंगे। मकान का किराया हम समझते हैं तुम दोनों के लिए पर्याप्त होगा !”

   “मैं क्या कर पाऊंगी ,जवान लड़की है , दुनिया क्या कहेगी?”

बुआ घबरा गई।

“तुमलोग मीतू को अपने साथ ले जाओ। पढ़ाई तो वह कहीं भी कर लेगी। इसका शादी विवाह , लड़की की तमाम जिम्मेदारी कौन लेगा भला…!”बुआ ने स्पष्ट किया।

  क्षणभर के लिए सबका चेहरा फक पड़ गया__बुआ ने सच्ची बात कही थी।

बड़े भैया ने गला साफ किया फिर अपनी सफाई में बोले,”हम शहर में कैसे रहते हैं हम ही जानते हैं । कहने को तो हम अफसर हैं लेकिन हमारी स्थिति एक अर्दली से भी बदतर है।। यहां मीतू आराम से रहेगी परिस्थिति अनुकूल होते ही हम लोग इसे अपने पास ले जाने की सोचेंगे।” 

सभी ने उनकी हां में हां मिलाई। इस विषम परिस्थिति में बड़े भैया अपने वाक्चातुर्य से सबको उबार लिया था। किसी ने भी मीतू के धड़कते हृदय में झांकने का प्रयास नहीं किया कि वह क्या चाहती है । वह अकेली कैसे रहेगी इस पर सोचने का सवाल ही नहीं था।

मीतू को चक्कर सा आ गया। वह भी बुआ की तरह अनाथ है। कहने को तीन _तीन  बड़े भाई है,उनका परिवार है ।धनी घर में व्याही दो -दो बड़ी बहनें हैं । परन्तु इनके घर में मेरे लिए जगह नहीं है या इनके दिल में। उसने अपने उमड़ते आंसुओं को जबरन रोक लिया।

जब सगे होकर युवा बहन की मान-मर्यादा का इन्हें परवाह नहीं , अपने परिवार के इज्जत का ख्याल नहीं । मां बाप की सम्पति चाहिए मगर उनकी छोड़ी हुई जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिए एक भी संतान तैयार नहीं है । फिर उनके लिए जज्बाती होने का क्या औचित्य है। वाह री कर्त्तव्य परायण औलाद ; वाह री दुनिया..!

  मीतू भरे हृदय ;सूनी आंखों से उन्हें जाते देखती रही।

कमरे में मां के फोटो के सामने इतने दिनों से संचित आंसू बह निकले। इस घोर नैराश्य की कालिमा को मां के आशीर्वाद रूपी रौशनी ने क्षणभर में धो डाला। मां का आशीर्वाद सदैव कवच रूप में उसके साथ है।

वह एक झटके से उठ खड़ी हुई।नल पर हाथ मुंह धोया। दो रोटी पेट में डालना ‌जरूरी है । पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना होगा ताकि अपने सगो से कह सकूं”,देखो मैं हूं अपनी अम्मा की बेटी…!”

“बुआ ,आओ पहले खा लें!”

वह दो थाल में भोजन लें आयी।

मीतू नये जीवन की संरचना में जुट गई जी-जान से।

अब वह छुई-मुई मीतू नहीं बल्कि परिस्थितियों का सामना करने वाली बहादुर बेटी बन चुकी थी । बुआ ने संतोष की सांस ली।रिश्ते के खोखलेपन  से वाकिफ मितू  भावुकता सौ निकल चुकी थी। 

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना  रचना-डॉ उर्मिला सिन्हा©®

#खोखले रिश्ते

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