बहू के द्वारा श्वसुर का दाह संस्कार – सुषमा यादव

मेरा रीति रिवाजों को तोड़ने का कोई इरादा नहीं है,पर किस्मत कभी कभी ऐसा दिन दिखाती है कि मनुष्य की सोचने, समझने की शक्ति ज़बाब दे जाती है, और जब कोई उपाय नहीं सूझता तो जो सामने परिस्थितियां दिखाई देती है उसको क्रियान्वित करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता है,, फिर हम रीति रिवाज नहीं क्या आवश्यक है उस पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं,,

दुर्भाग्यवश मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ घटित हुआ,

मेरे श्वसुर और मेरे पिता जी मेरे साथ ही मेरे कार्य स्थल में रहते थे, एक दिन अचानक ही खाना खाने के बाद मेरे श्वसुर सोते हुए ही जैसे कोमा में चले गए थे, हमने तुरंत उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया, बहुत इलाज हुआ पर वो होश में नहीं आये,, बेटियां बाहर, मेरी नौकरी, घर में बूढ़े पिता जी, अस्पताल में श्वसुर जी, दिन भर मानसिक तनाव में रहती, चारों तरफ भाग दौड़ करती,

मेरे मामा श्वसुर के पोते रमेश को बताया तो रमेश जिस दिन आया,उसी दिन शाम को श्वसुर जी ने आखिरी सांस ली,, ठीक होली दहन की शाम, मैं, रमेश और इनके आफिस के तीन चार लोग मिलकर एम्बुलेंस करके इलाहाबाद गंगा जी के किनारे दाह संस्कार वाले स्थान पर पहुंचे , सुबह के चार बज रहे थे, हम सब तैयारी करके आये थे, क्यों कि दूसरे दिन रंगों की होली होने के कारण दुकानें बंद रहती,

अब सब लोग चिता सजा कर प्रतीक्षा कर रहे थे, अपने गांव वालों का,, हमने उन्हें रात में ही फोन कर दिया था, कि सुबह घाट पर आ जाना,,आठ बज गए मैंने फिर फोन किया, तो ज़बाब मिला,आप गांव लेकर आ जाईए, यहां से फिर वापस ले कर आयेंगे,

मैंने कहा ऐसा कैसे हो सकता है,,जिसको आना हो जल्दी आओ, चूंकि मेरे पति तो सालों पहले जा चुके थे,,सास भी खतम हो गई थी,, ये इकलौते बेटे थे, बड़े ससुर के भी केवल पोते ही थे, चचेरे जेठ,देवर सब एक एक करके चले गए थे,हम सबने रमेश को बहुत कहा, अग्नि संस्कार करने के लिए,पर रमेश उछल कर दूर खड़ा हो गया,, नहीं, बड़ी मां, मैंने चाचा जी का इंदौर में दाह संस्कार किया था, मुझे लोटा लेकर तेरह दिन तक एक कोने में बाहर बैठा दिया गया था, दोपहर एक टाइम खाना खुद बनाना पड़ता,शाम को बस फल खाकर रहो,, मैं नहीं दूंगा, मैंने उसे बहुत समझाया,कि तुम यहां सब निपटा कर अपने गांव चले जाओ, बाकी का मैं सब देख लूंगी,,कई बार समझाने पर भी नहीं माना और कुछ दूरी पर जाकर खड़ा हो गया, मेरी आंखों से लगातार अपनी बेबसी पर आंसू बह रहे थे,,इन सबके रहते हुए इन लोगों ने कितना कुछ मदद लिया था, आज़ लावारिस हालत में इस तरह पड़े हैं, चारों तरफ चिंताएं जल रही थी, लोगों की भीड़ लगी थी,, उनकी निगाहें हमारी तरफ उठ रहीं थीं,,



अचानक मैं गंगा जल में घुस गई,गीले कपड़े में आकर मैंने अपने साथ में आये हुए लोगों से कहा, बताओ, कैसे करते हैं, मैं करतीं हूं अपने ससुर का दाह संस्कार,, मुझे विधि बताओ, हमारे यहां महिलाएं कभी श्मशान घाट नहीं जाती हैं इसलिए मुझे कुछ मालूम नहीं था,,

, मैंने इन्हें अपने पिता के जैसा माना है और सालों इनकी सेवा की है, शाय़द ये मेरे ही हाथों से सब करवाना चाहते हैं,, और जैसे ही मैंने मुखाग्नि दी ,वैसे ही चार पांच लोग गांव से आ गये,,, वो चाची, होली की वजह से बस नहीं मिल रही थी , मैंने कहा कि यहां से प्रतापगढ़ कितनी दूर है , मोटरसाइकिल से भी आ सकते थे, , खैर,,हम सब आगे का पंडा से पूजा वगैरह करवा कर

वापस लौट आए और वो सब अपने गांव चले गए,

मैं अकेली, तेरहवीं की सब व्यवस्था करवाना था, मैंने सब परम्पराओं को तोड़ते हुए केवल दीपक जलाए रखा और प्रतिदिन जलांजलि अर्पित किया, गायत्री मंदिर से पंडित जी को बुला कर विधिवत पूजा,हवन यज्ञ हुआ और बहुत अच्छे से तेरहवीं कार्यक्रम संपन्न हुआ,, गांव से कुछ लोग आये थे,, दूसरे दिन वापस चले गए,,पर रमेश नहीं आया,,

अब आप ही बताइए कि मैं इस हालत में क्या करती,,, मैं ही तो उनकी बेटी,बहू,बेटा सब कुछ थी,

मुझे खुशी है कि शायद वो बहुत तृप्त हो कर गये हैं ,इतने सालों बाद भी सपने में एक भी झलक आज तक नहीं दिखाई दी,,

,, जिंदगी तुमने क्या, क्या दिन दिखाये,,

नहीं पता था ईश्वर इतनी परीक्षाएं लेंगे,,

पर हर इम्तिहान में वो मुझे पास

करने की शक्ति भी देते हैं,,

सुषमा यादव प्रतापगढ़ उ प्र

स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

 

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