पगड़ी – डॉ. पारुल अग्रवाल : Short Stories in Hindi

तीन भाई-बहन का हंसता-खेलता परिवार जिसमें नीलू सबसे बड़ी थी। पापा बैंक में क्लर्क की नौकरी में थे और मां पूरा घर संभालती थी।पापा की नौकरी से पैसा तो नहीं बचता था पर इतना था कि प्रतिदिन के खाने पीने की कोई समस्या नहीं थी।वैसे भी क्लर्क की नौकरी अगर वो भी ईमानदारी से करने वाला हो तो अपने परिवार को वर्तमान की दो रोटी ही दे सकता है पर भविष्य के लिए अपार संपदा एकत्रित नहीं कर सकता है। 

यही सब करके ज़िंदगी चल रही थी पर कल का किसी को भी नहीं पता होता। नीलू के पिताजी घर आते हुए पता नहीं कैसे चक्कर खाकर बेहोश होकर गिर गए। किसी जानने वाले ने उनको हॉस्पिटल तक पहुंचाकर उनके घर पर खबर की।

नीलू और उसकी मां जल्दी ही हॉस्पिटल पहुंच गए। नीलू के पिताजी रमाकांत जी को पक्षाघात हुआ था। उनका बाई तरफ की हिस्सा पूरी तरह अक्षम हो गया था पर नीलू और उसकी माताजी ने आस नहीं छोड़ी थी।

जितनी भी जमा पूंजी और गहने थे सब उनके ठीक होने की आस में उनके इलाज़ में लग गए थे पर दाद देनी होगी नीलू की हिम्मत की जो अपनी पढ़ाई भी करती, शाम को एक घंटा किसी फर्म में जाकर हिसाब का काम भी देखती और साथ-साथ मां और दोनों छोटे भाई-बहन को हिम्मत भी बांधती। दोनों छोटे भाई-बहन अभी वैसे भी बहुत छोटे थे जहां बहन दसवीं में थी,भाई आठवीं में था। 

हॉस्पिटल में भी रमाकांत जी की हालत में कोई सुधार ना देखते हुए उन्हें घर ले आया गया था। घर पर आते ही उनको देखने आने वालो का तांता सा लगा रहता। जितने लोग उतनी ही बातें, वैसे भी नसीहत देना बहुत आसान होता है। कोई कहता जैसे-तैसे लड़का देखकर नीलू के हाथ पीले कर दो, अठारह की तो हो ही गई है।

कल का क्या भरोसा? अभी तो बाप का साया सर पर है। कोई कोई तो रिश्ते भी बताने की कोशिश करता यहां तक कि ऐसा लड़का बताने की भी गुरेज़ नहीं करते जो तलाकशुदा या एक बच्चे का पिता हो। नीलू की मां ने तो चुप्पी ही साध ली थी।

रमाकांत जी भी अपने परिवार का दुख देखकर बस चुपचाप अपनी दुर्दशा पर आसूं बहाते वैसे भी बोलने में तो असमर्थ थे ही। 

एक दिन रमाकांत जी थोड़े ठीक थे शायद ये दिए के बूझने से पहले जैसे उसकी चमक बढ़ती है शायद वैसा ही था।उन्होंने नीलू और उसकी मां को इशारे से अपने पास बुलाया। अपने कांपते हुए हाथों में किसी तरह एक कागज़ पर कुछ लिखा और नीलू को थमाया।

उस कागज़ पर लिखा था कि अब नीलू को ही ये घर-परिवार देखना है।उसे अपने साथ-साथ अपने भाई बहन को भी उनकी मंजिल तक पहुंचाना है। ये पढ़ने के बाद जैसे ही नीलू ने रमाकांत जी के सामने हाथ जोड़ते हुए सहमति से सिर हिलाया तभी रमाकांत जी ने सुकून की सांस चेहरे पर लाते हुए परलोक को गमन कर दिया।

नीलू को समझ नहीं आया कि पिता ले जाने का गम मनाए या अपनी मां और छोटे भाई-बहन को संभाले। खैर रमाकांत जी की मृत्यु की खबर सुनकर सारे रिश्तेदार यहां तक की सगे संबंधी भी खानापूर्ति के लिए जमा हो गए।

अब जब अंतिम संस्कार की सब तैयारी हो गई तो नीलू ने कहा कि पिताजी को अग्नि में ही दूंगी भाई अभी छोटा है वैसे भी अब इस परिवार का सबसे बड़ा बेटा मैं ही हूं। इस बात पर कई लोगों ने बातें भी बनाई पर मां की मूक सहमति और पंडित जी भी सनातन धर्म में स्त्री और पुरुष के समान अधिकारों की बात करके सारी चर्चा पर विराम दे दिया। 

अंतिम संस्कार के बाद अब रस्म पगड़ी का दिन आया तब तक मां भी कुछ हद तक संभल गई थी। जिस दिन रस्म पगड़ी का दिन था उस दिन रमाकांत जी के बड़े भाई पहले से ही अपने सिर पगड़ी बंधवाने को तैयार बैठे थे

क्योंकि इसके पीछे उनकी मंशा समाज के सामने अपनी वाहवाही करवाना और गांव में जो पुरखों की ज़मीन जिसमें रमाकांत जी का भी हिस्सा था उस पर अपना कब्ज़ा करना था। उनकी इस मंशा को नीलू और उसकी मां भलीभांति जानते थे। वैसे भी नीलू की मां किसी दवाब में ना आकर अपने पति की आखिरी इच्छा का पूरा सम्मान देना चाहती थी।

उनके पति रमाकांत जी बहुत प्रगतिशील विचारों के थे,उनके लिए बेटे और बेटी में कोई फ़र्क नहीं था। जब पगड़ी बंधने का समय आया तब नीलू की मां ने सभी नाते-रिश्तेदारों के सामने कहा कि पगड़ी मेरी बेटी नीलू के बंधेगी क्योंकि मेरे पति के बाद अब वो ही इस घर का पुरुष है जो हम सबका सहारा बनेगी।

ताऊजी और कई रिश्तेदारों ने इस बात का पुरजोर विरोध किया। तब नीलू ने कहा कि पिताजी के जाने के बाद मेरी मां और भाई-बहन मेरी ज़िम्मेदारी हैं और पगड़ी कभी स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करती,ये तो हम लोगों का समाज पुरुष सत्तात्मक है इसलिए हमने अपने अनुसार सब कुछ बदल दिया।

वैसे तो पिताजी के जाने के बाद मां इस घर की मुखिया हैं पर चूंकि भरण पोषण की ज़िम्मेदारी मैं वहन करूंगी इसलिए पगड़ी केवल एक प्रतिनिधित्व के रूप में मेरे सर बंधेगी। 

अब वहां बैठे सारे लोग निरुत्तर हो गए और पगड़ी नीलू के ही बांधी गई। नीलू ने भी मां से आर्शीवाद लेते हुए कहा कि मैं पिताजी के सारे सपनों को पूरा करूंगी और इस पगड़ी का मान रखते हुए अपने बेटी होने के साथ-साथ घर के सबसे बड़े पुरुष रूपी दायित्व भी बखूबी निभाऊंगी।

ये तो खैर अभी संघर्ष की शुरुआत थी। पिताजी की मृत्यु के समय नीलू कॉलेज के दूसरे साल में थी। अनुकंपा के आधार पर उसको पिताजी की नौकरी मिल सकती थी पर पहले उसको अपना कॉलेज पूरा करना था जो कि उसका सपना तो नहीं था पर उसके परिवार और भाई बहन के सपनों को पूरा करने में बहुत बड़ा सहारा साबित हो सकता था।

कॉलेज में ही नीलू का शुरू से एक बहुत अच्छा दोस्त विशाल भी था। जो नीलू की हर तरह से मदद के लिए तैयार रहता था और पगड़ी वाले दिन से तो उसकी नजरों में नीलू के लिए सम्मान और भी बढ़ गया था।

उसके पिताजी की लॉ फर्म थी उसने उनसे बात करके नीलू की पार्ट टाइम नौकरी वहां लगवा दी। इस तरह किसी तरह कॉलेज का एक साल निकल गया और घर का खर्चा भी जैसे-तैसे निकला। कॉलेज पूरा होने के बाद नीलू को अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल गई।

बैंक में क्लर्क की नौकरी के साथ-साथ उसने अपनी पढ़ाई भी ज़ारी रखी। उसने विशाल के साथ साथ एलएलबी में प्रवेश ले लिया था। इधर बहन भी बारहवीं आ गई थी,वो भी पढ़ाई में अच्छी थी और इंजीनियरिंग की भी तैयारी कर रही थी।

उसकी कोचिंग के लिए भी पैसा चाहिए था। इसका भी हल नीलू ने निकाल लिया। अब वो बैंक की नौकरी के साथ-साथ विशाल के पापा की लॉ फर्म में पार्ट टाइम काम कर रही थी।उसने दिन के  चौबीस घंटों को जैसे तीस घंटो में बदल रखा था। 

नीलू की मेहनत देखकर विशाल ने उसकी मदद की भी पेशकश की पर उसने मना कर दिया। देखते-देखते वो दिन भी आ गया जब बहन का आईआईटी में चयन हो गया और नीलू की परिवार के प्रति पहली ज़िम्मेदारी ने सही राह पकड़ ली।

अब भाई की बारी थी उसका डॉक्टर बनने का सपना था, उसके लिए भी नीलू ने खूब मेहनत करी थी।भगवान की कृपा से दोनों भाई-बहन भी पढ़ाई में अच्छे थे। भाई की पढ़ाई और आगे मेडिकल की फीस के लिए नीलू ने मां से बात करके गांव में जो उसके पिताजी के नाम ज़मीन थी वो बेचने की सोची।

यहां ताऊजी ने बहुत अड़ंगे लगाए पर कुछ नीलू के लॉ फर्म में काम करने की वजह से और कुछ विशाल के पिताजी के वकील होने की वजह से वो कुछ नहीं बिगाड़ पाए। इस तरह दो साल बाद भाई का भी नीट परीक्षा पास करके मेडिकल में चयन हो गया।

अब कई पड़ोसी और रिश्तेदार पीठ पीछे नीलू की शादी को लेकर और विशाल से उसके संबंध को लेकर तरह तरह की बात करते थे। एक दिन जब नीलू थोड़ा फुरसत में थी तो उसकी मां ने उससे शादी के लिए कहा पर नीलू ने अपनी शादी की बात को एकदम से नकार दिया।

तब मां ने उसे समझाकर कहा कि अभी तो उसकी उम्र है और भाई-बहन की भी मंजिल तो तय ही चुकी है। मां का ये भी कहना था कि मैं भी हमेशा नहीं रहूंगी,कहीं ऐसा ना हो कि कल दोनों भाई-बहन अपनी दुनिया में मगन हो जाएं और वो अकेली रह जाए।

तब नीलू ने कहा अभी तो उसका सिविल जज परीक्षा निकालनी है,अभी कैसे वो शादी कर सकती है?असल में ये तो मां को टालने का उसका तरीका था क्योंकि उसको कहीं ना कहीं लगता था कि शादी के बाद लड़के अपने पुरुष अंहकार के कारण लड़की के परिवार को अपना नहीं समझते। वो अपने आस-पास ऐसे बहुत से घर देख चुकी थी उधर विशाल भी दिल के किसी कोने में नीलू के साथ ज़िंदगी बिताने के सपने संजोने लगा था। 

उसने नीलू से कुछ ना कहकर अपने माता-पिता के साथ नीलू की मां से बात करना उचित समझा। शाम को विशाल को अपने माता-पिता के साथ अचानक से घर आया देख नीलू चौंक गई। धीरे धीरे सारी बात नीलू को समझ गई।

नीलू ने अपनी सोच बिना किसी संकोच के विशाल और उसके माता पिता के सामने रख दी। उसने कहा कि वो शादी के बाद  ससुराल की सारे कर्तव्य खुशी-खुशी निभायेगी पर ये कभी नहीं चाहेगी कि उसको ससुराल की तरफ से अपने मायके की ज़िम्मेदारी उठाने से रोका जाए। यही सब सोचकर वो शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहती।

उसकी बातें सुनकर विशाल की माताजी बोली कि बेटा मैं सब समझती हूं और साथ-साथ तुम्हारी मनोदशा भी समझ रही हूं। तुम्हारे को बचपन से मैं देख रही हूं और इतना तो समझ ही सकती हूं कि जो लड़की अपने पिताजी को दिए वचन को इतने अच्छे से निभा सकती है,वो ससुराल को भी अच्छे से संभाल सकती है।

माहौल को थोड़ा गंभीर होता देख विशाल ने भी हंसते हुए कहा कि चिंता मत करो तुम आज भी अपने घर की पुरुष हो और कल भी रहोगी। मैं तो स्वयं भगवान के अर्धनारीश्वर रूप का बड़ा भक्त हूं। विशाल के ऐसा कहने के अंदाज़ पर सबको हंसी आ गई। 

हंसी-मज़ाक के बीच नीलू के सिविल जज परीक्षा के परिणाम के बाद शादी की बात तय हुई। साथ-साथ विशाल ने ये भी निश्चित किया कि वो दोनों अपने परिवार पर क्या खर्च कर रहे है,क्या दे रहे हैं?इस तरह की बात पर रोक-टोक नहीं करेंगे बल्कि अब समान भाव से दोनों परिवार का ध्यान रखेंगे।

कहना होगा जहां नीलू ने अपने सिर पर रखी पगड़ी का पूरा मान रखते हुए बेटी के साथ-साथ घर के पुरुष की भी ज़िम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभाई वहां किस्मत ने भी उसका पूरा साथ दिया। 

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। मेरा इस कहानी को लिखने के पीछे सिर्फ ये उद्देश्य है कि आवश्यकता पड़ने पर एक स्त्री,पुरुष की भूमिका और पुरुष स्त्री की भूमिका भी निभा सकते हैं।

समय बदल रहा है अब हमें भी एक स्त्री पुरुष की बंधी बंधाई छवि से बाहर आना चाहिए। हमारे तो भगवान तक ने अर्धनारीश्वर रूप में आकर स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का पूरक बताया है।

#पुरुष 

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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