सुहानी शाम की बयार बह रही थी और माँ का रक्तचाप और मधुमेह नियन्त्रित रहे, इसलिए सुहानी पिता को घर पर चाय बना कर देकर माँ के साथ घर के बगल वाले पार्क में टहलने जाती थी। टहलने के बाद माँ के साथ वही बेंच पर बैठ गई और पड़ोस की एक बुजुर्ग महिला के साथ माँ को बातें करते देख अतीत में खो गई थी।
सुहानी, सलोनी, शाम्भवी एक के बाद एक लड़कियाँ लड़के की चाह में आ गई थी। सुहानी के माता पिता बेटियों की परवरिश और पढ़ाई लिखाई तो करवा रहे थे। लेकिन बेटे की चाह छूटी नहीं थी। माता पिता पड़ोसी के बेटे अमन से लाड़ जता बेटे की चाह पूरी करने की कोशिश कर रहे थे। उसे देखते ही दोनों के चेहरे पर खुशी आ जाती थी। ये वो भी भली भाँति समझता था और दोनों के भावनाओं का पूरा उपयोग करता था। तीनों बहनें कुढ़ कर रह जाती थी। कुछ कहने पर माँ का एक बेटा होता तो अच्छा था का प्रलाप प्रारम्भ हो जाता था। इस चक्कर में बेटियों के साथ दोनों सिर्फ जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे थे।
क्या है माँ.. नहीं बाँधनी हमें उसे राखी.. सुहानी माँ के द्वारा हर साल अमन को राखी बाँधने के दवाब पर ऊब कर कहती है।
क्यूँ बचपन से बाँध तो रही है.. माँ ने गुस्से में कहा।
आपके डर से.. देखती नहीं हो कैसे गार्जियन बना रहता है हमारा.. जैसे हमारी कोई जिन्दगी ही नहीं.. हम से ये धौंस बर्दाश्त नहीं होती है… सलोनी ने कहा।
भाई होने का फर्ज निभाता है.. मिठाई के डब्बे रखते हुए सुहानी के पापा रघुनाथ सिंह ने कहा।
नहीं पापा.. कोई भाई होने का फर्ज नहीं निभाता है। आप दोनों का फायदा उठाता है। जो उसके मम्मी पापा उसे नहीं देते। आप दोनों से लेकर चला जाता है.. सुहानी कहती है।
अरे इतना ही है तो तुम तीनों में कोई एक बेटा बनकर ही आ जाती.. सुहानी की माँ कहती है।
माँ की ऐसी बात पर सुहानी हतबुद्धि सी माँ को देखती रह जाती है..
क्यूँ आपलोग मृगतृष्णा में भटक रहे हैं.. क्यूँ दूसरे के बच्चे के लिए अपने बच्चों को हीन महसूस करवाते हैं..सुहानी बिफरती हुई बोली।
बस बहुत हो गया.. थोड़ी देर में अमन आता ही होगा। उसके सामने कोई तमाशा नहीं होना चाहिए.. रघुनाथ सिंह कहते हैं।
अमन अकड़ता हुआ आया और राखी बँधवा कर सुहानी की माँ के पैसों से ही तीनों बहनों को नेग देकर और ढ़ेर सारे उपहार लेकर सुहानी की ओर देखता अपने घर की प्रस्थान कर गया।
समय अपनी गति से चलता रहा.. तीनों बहनों की शादी हो गई। माता पिता भी अशक्त होते जा रहे थे। लेकिन अमन का मोह खत्म नहीं हो रहा था। अचानक एक दिन सुहानी की माँ की तबियत खराब हो गई। रघुनाथ सिंह अमन को उसके मोबाइल पर खबर कर पत्नी को लेकर हॉस्पिटल दौड़े और अमन आने का वचन देकर भी नहीं आया। सामने पड़ने पर बहाना बना कर चलता बना।
धीरे-धीरे दोनों पति पत्नी बुढ़ापे के कारण अशक्त होते जा रहे थे। तीनों बहनें हर जतन करती थी कि माता पिता उनके साथ रहे और प्रसन्न रहे लेकिन उसके माता पिता को अमन का मोह खींच लाता था। लेकिन अमन अपने काम तक ही उन्हें पूछता था और उनके काम के समय कोई ना कोई बहाना बना लेता था। इस बार गर्मी छुट्टी में माता पिता के पास आई सुहानी दोनों की तबियत को देखते हुए साथ चलने की जिद्द कर बैठी।
किस मुँह से, किस अधिकार से चले बेटा.. तुम तीनों ने हमेशा हमें सम्मान दिया और जिस प्यार पर तुम तीनों का अधिकार था.. वो हम किसी और को देते रहे। ठीक कहती थी बेटा तुम कस्तूरी हमारे सामने थी और हम दोनों मृगतृष्णा में भटकते हुए उसे नजरअंदाज कर रहे थे..ये कहते हुए रघुनाथ सिंह की आँखें डबडबा आई थी और भीगे स्वर में पछतावा भरा हुआ था।
हाॅ बेटा… तुम तीनों के होते हमने किसी और पर प्यार लुटाते रहे… वो दिन तो वापस नहीं ला सकते अब बेटा…बस अब पछताते रहते हैं बेटा…सुहानी की माॅ अपने आँचल से नैनों के नीर भरी बदरी को पोछती हुई कहती है।
कोई बात नहीं पापा.. तब भी आप दोनों हमारे ही मम्मी पापा था.. आज भी हमारे ही मम्मी पापा हैं.. कहते हुए सुहानी एक साथ दोनों के गले लग गई।
क्या सोचने लगी सुहानी.. कब से आवाज दे रही हूँ.. घर नहीं चलना क्या.. सुहानी की माँ पड़ोसन से बात खत्म कर सुहानी को झिंझोड़ते हुए कहती है।
कुछ नहीं माँ.. चलो चलते हैं.. मुस्कुराती हुई सुहानी माँ का हाथ पकड़े पार्क से बाहर आकर घर की तरफ पैर बढ़ा देती है।
#पछतावा
आरती झा”आद्या”
दिल्ली
मृगतृष्णा????
बहुत ही उचित शब्द को शब्द कोष से निकाल
बेटी-बेटा मे भेद भाव बिलकुल गलत है।