“ज़िंदगी से समझौता करते कथिर से कुंदन बन गई” – भावना ठाकर ‘भावु’

वंदना आज कलेक्टर की कुर्सी संभालने जा रही थी, उस सम्मान में एक समारोह रखा गया। पूरा हाॅल बड़े-बड़े  अधिकारियों और कुछ रिश्तेदारों से खिचोखिच भरा हुआ था। वंदना खोई-खोई दोहरे भाव से जूझ रही थी गरीबी, ससुराल वालों की प्रताड़ना घर-घर जाकर खाना बनाकर पाई-पाई जोड़कर पढ़ना एक-एक घटना किसी फ़िल्म की तरह दिमाग में चल रही थी, की वंदना के नाम की एनाउंसमेंट हुई। मैडम प्लीज़ स्टेज पर आईये। कुर्सी से स्टेज तक पहुँचते कुंतल मानों एक सफ़र से गुज़र गई। गरीब माँ-बाप की बेटी को अक्सर बोझ समझा जाता है, इसलिए बेटियों की पढ़ाई पर ज़्यादा खर्च नहीं करते, जितना जल्दी हो ब्याह दी जाती है। कुंतल दिखने में बहुत सुंदर थी, पढ़ने में होनहार थी पर सरकारी स्कूल में बारहवी कक्षा में पास होते ही एक संपन्न परिवार में कुंतल की शादी करवा दी गई। कुंतल की सुंदरता को देख ससुराल वालों ने घर में सजाने के लिए बहू बना ली, पर पहली ही रात को वंदना समझ गई उसका पति विकास नामर्द है। पर गरीब माँ-बाप की बेटी को इतने धनवान ससुराल वालों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने का हक कहाँ था। परिस्थिति को तकदीर समझकर अपनाकर ज़िंदगी के साथ समझौता करके जीने लगी। 

शादी के एक साल बाद रिश्तेदार पूछने लगे कोई खुश खबर? वंदना क्या जवाब देती। पर परिवार वालों को अपना वंश आगे बढ़ाना था तो वंदना के सामने ऐसी बात रख दी कि आज वंदना के सब्र ने जवाब दे दिया, आक्रोश ने सीमा लाँघ दी। पूरे परिवार के सामने चिल्लाते हुए बोली, “बस बहुत हो चुका एक औरत का इतना भी इम्तहान मत लो की आपा खोते पूरी दुनिया को आग ही लगा दें” मैं इस परिवार की इज्जत हूँ, कोई वेश्या नहीं। माना की गरीब घर की लड़की हूँ, इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं की आप लोगों का हर हुक्म मानते मैं इतना गिरा हुआ काम करने के लिए तैयार हो जाऊँ। विकास आप तो कुछ बोलिए, यूँ चुप रहकर मेरे आत्मसम्मान पर वार मत कीजिए आपकी पत्नी हूँ कोई गुलाम नहीं। पर विकास एक ऐसे दोराहे पर खड़े था कि किसीको कुछ भी कहने या समझाने की स्थिति में नहीं था। विकास की चुप्पी पर झल्लाते हुए वंदना गुस्से से काँप उठी  आपकी कमज़ोरी को मैंने अपनी तकदीर समझकर अपना लिया फिर भी इसकी सज़ा मैं मुझे क्यूँ दे रहे हो? आनंद मेरा देवर है और मैं उसकी भाभी। देवर-भाभी का रिश्ता माँ-बेटे के बराबर होता है। आप लोगों की इस नाजायज़ मांग मैं कभी स्वीकार नहीं कर सकती, शर्म आनी चाहिए आप लोगों को परिवार में व्यभिचार फैलाने में। समाज के सामने  इज्जतदार घराने के ढ़ोल पिटने वालों की गिरी हुई मानसिकता देखकर घिन्न आती है मुझे।

वंदना के ससुर जी उस पर आगबबूला होते बोले; “सुनों बहू इस मामले में मैं कोई समझौता नहीं चाहता” ये मेरे खानदान की इज्जत का सवाल है। समाज में हमारा नाम है, रुतबा है, इज़्जत है।  तुम्हारी बेवकूफ़ी से मैं अपने परिवार को दुनिया के सामने रुसवा नहीं कर सकता।  



माना मेरा बेटा, तुम्हारा पति नामर्द है, तुम्हें बच्चे का सुख और हमें खानदान का वारिस देने में सक्षम नहीं। पर आनंद भी तो इसी परिवार का बेटा है, आनंद के साथ रिश्ता बना लो तुम्हारी गोद भर जाएगी और हमें वारसदार मिल जाएगा। इसमें क्या बुराई है? बच्चा कहलाएगा तो इसी खानदान क। घर की बात घर में रह जाएगी और तुम्हारी सूनी गोद भर जाएगी। सोच लो आख़री बार बोल रहा हूँ। अगर मेरी बात का स्वीकार करोगी तो पूरी ज़िंदगी राजरानी की तरह बंसल खानदान की बहू बनकर राज करोगी। वरना तुम्हारे गरीब बाप की झोंपड़ी में रहकर घर-घर जाकर झाडू-पौंछा और बर्तन करोगी। हम तुम्हें तुम्हारे तेवर और तुम्हारे आत्मसम्मान की पूजा करने के लिए इस खानदान की बहू बनाकर नहीं लाए समझी। तुम्हारी सुंदरता को इस घर की शोभा बनाने और हमारे बेटे की कमज़ोरी छुपाने के लिए लाए है। वरना तुम्हारी हैसीयत ही क्या है। 

मेरे विकास को अपनी बेटी देने के लिए बड़े-बड़े बिज़नेस मैन तैयार थे” पर हमने तुझे अपना बेटा दान में दिया और तुम्हारा जीवन सँवारा, वरना पड़ी होती किसी शराबी, कबाबी शौहर के तलवे चाटती। आज रात को तैयार रहना आनंद के कमरे में सोने के लिए। 

वंदना ने परिवार के सारे सदस्यों के सामने एक नफ़रत भरी नज़रों से देखा और विकास के मुँह पर थूँकते हुए बोली। नपुंसक इंसान भी अपनी पत्नी की रक्षा करना जानता है, पर तुम तो पति कहलाने के लायक ही नहीं। आज, अभी इसी वक्त तुम्हारी खोखली और पाखंडी दुनिया छोड़ रही हूँ इतना बड़ा समझौता करते अपनी इज्जत का सौदा हरगिज़ नहीं कर सकती। आनंद मेरा बेटा है उसके साथ गलत रिश्ता बनाने से पहले मौत को गले लगाना पसंद करूँगी। और मिस्टर सदाशिव बंसल कान खोलकर सुन लीजिए आपको आपकी झूठी शानों शौकत मुबारक। न तो मेरे गरीब बाप की झोंपड़ी में रहकर घर-घर जाकर झाडू पौंछा और बर्तन करूँगी, न आपकी मोहताज रहूँगी। अपना हौसला खुद बनकर एक दिन कुछ बनकर दिखाऊँगी, पर आपकी बेतुकी मांग से समझौता करते अपनी ही नजरों में हरगिज़ नहीं गिरूँगी। वंदना खोखली और दिखावे की नींव पर खड़े महल की दहलीज़ लाँघकर निकल गई। विकास नतमस्तक अपनी बेबसी पर शर्मिंदा होते बैठा रहा। न वंदना का पक्ष ले सकता था, न परिवार के ख़िलाफ़ जा सकता था। घर छोड़कर जा रही वंदना की पीठ को तकते रो दिया। पर वंदना बिना पीछे देखें अपनी ज़िंदगी को तकदीर के भरोसे छोड़कर एक नई राह पर निकल गई। 

वंदना ने महिला सुरक्षा संस्था की मदद ली फिर एक गर्ल्स हाॅस्टल में आसरा लिया। घर-घर जाकर खाना पकाने का काम किया और आहिस्ता-आहिस्ता तनतोड़ मेहनत और लगन से कुछ कमाई जमा करके आगे की पढ़ाई के लिए काॅलेज में दाखिला लिया। दिन रात मेहनत करके पढ़-लिखकर खुद को प्रस्थापित किया। आज वंदना कलेक्टर की कुर्सी संभालने जा रही थी, जानती थी कोई नहीं आएगा, पर बेशक ससुराल वालों को निमंत्रण पत्रिका भेजने से नहीं चुकी। एक खोखली और निम्न स्तरीय विचारधारा वाले परिवार को दिखाना चाहती थी कि एक औरत ज़िंदगी की हर चुनौतियों से लड़ सकती है, पर अपनी इज्जत के साथ समझौता हरगिज़ नहीं करती। स्टेज पर चढ़ते हुए एक कोने में हल्की सी नज़र ठहरी तो पति विकास खड़ा था जिसे नफ़रत भरी नज़रों से देखकर भी अनदेखा करते वंदना आगे बढ़ गई। ज़िंदगी से चोट खाकर ऐसी उभरी की कथिर से कुंदन बन गई।

#समझौता

भावना ठाकर ‘भावु’ बेंगलोर 

स्वरचित, मौलिक

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