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ज़िंदगी के रंग – ऋतु अग्रवाल

 ” माँ! इधर आओ ना।” मंजरी ने पूरे घर में शोर मचा रखा था।

      “क्या बात है? पूरा घर सिर पर उठा रखा है।” आशा साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती हुई बाहर आई तो मंजरी ने उसे पकड़कर गोल गोल घुमा दिया।

        “अरे! रुक तो! मुझे गिराएगी क्या? पगली!”आशा ने मंजरी को डपटा तो मंजरी ने आशा की आँखों पर हाथ रख दिया और बाहर की ओर ले जाने लगी।

      “पता नहीं, यह लड़की कब बड़ी होगी?” आशा बड़बड़ाई।

      “माँ! देखो, हमारी पहली कार!”आशा की आँखों पर से हाथ हटाकर मंजरी खुशी से ताली बजाने लगी।

       “मंजरी! बेटा, यह गाड़ी खरीदने के पैसे कहाँ से आए। यह गाड़ी तो बहुत महंगी होगी।” आशा विस्फारित नेत्रों से कभी कार तो कभी मंजरी को देखती।

       “माँ! यह आपकी ही मेहनत का नतीजा है। मुझे आज भी याद है कि कैसे पापा की मौत के बाद ताऊजी और ताई जी ने हमें घर से बाहर निकाल दिया था और पापा का हिस्सा भी हड़प लिया था। वह तो मामा और मामी ने हमें आसरा दिया वरना हम सड़कों पर ठोकरें खाते। दो परिवारों को पालने का भार निर्वहन करने में जब मामा असमर्थ होने लगे तो कैसे रात-रात भर जागकर आप और मामी साड़ियों पर फॉल टाँककर पैसे इकट्ठा किया करते थे ताकि हम सब बच्चों की पढ़ाई का खर्चा निकल सके। तभी मैंने ठान लिया था कि मैं वकालत की पढ़ाई करूँगी और ताऊ जी से अपना हिस्सा लेकर रहूँगी पर समय के साथ-साथ बदला लेने की मेरी वह कुंठा, समाज के लिए कुछ करने में बदल गई। बस अपनी पढ़ाई और समाज सेवा, यही मेरे दो उद्देश्य रह गए थे। आपकी और मामी की कर्मठता देखकर हम सभी भाई बहन भी लगन से अपने उद्देश्य को पाने के लिए संघर्षरत रहे और आज यह सब हम सब के प्रयत्नों का ही फल है कि हमारे दरवाजे पर हमारी खुद की कार खड़ी है।” मंजरी ने माँ का हाथ थाम लिया।”चलो मां कार में बैठो।मुझे आपको कहीं लेकर जाना है। मामी आप भी चलो।” मंजरी ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए बोली।

      “पर, कहाँ?”आशा ने पूछा तो मंजरी ने उसे कार में बैठने का इशारा किया।

       थोड़ी ही देर में कार एक वृद्धाश्रम के बाहर रुकी। आशा जानती थी कि मंजरी समाज सेवा करती है तो ऐसी जगह पर वह जाती रहती थी। नई कार की खुशी में मंजरी वृद्धाश्रम में बाँटने के लिए मिठाई लाई थी। मिठाई बाँटते समय अचानक ही दो  हाथों ने आशा के हाथ पकड़कर उन्हें चूमना शुरू कर दिया तो आशा चौंक पड़ी। वह वृद्ध महिला उसे कुछ जानी पहचानी सी लगी।




उसके पीछे खड़ा एक वृद्ध पुरुष भी उसे परिचित सा लगा।

     उन्हें पहचानते ही आशा को जोर का झटका लगा। ये उसके जेठ-जेठानी थे।

       “दीदी! आप यहाँ?”आशा ने उन्हें गले से लगा लिया।

       “आशा! मुझे माफ कर दे। हम अपने ही करम भुगत रहे हैं। देवर जी की मौत के बाद लोभ ने हमारी आँखें चौंधिया दी थीं। हमने ना केवल अपनी जिम्मेदारियों से ही मुँह मोड़ा बल्कि तुम्हारा और बच्चों का हिस्सा भी हड़प लिया। कुछ समय तो हम बड़े खुश रहे पर धीरे-धीरे हमारे बेटों ने सारे कारोबार पर अपना कब्जा कर लिया और हम दोनों को घर से निकाल दिया कुछ महीनों तक हम दोनों सड़क पर भटकते रहे फिर मंजरी बिटिया अपनी टीम के साथ हमें यहाँ ले आई। पहले तो हमने एक दूसरे को नहीं पहचाना पर जब बातचीत हुई तो हमें अपने रिश्तों के बारे में पता चला। तब से मंजरी बिटिया हमारी देखभाल कर रही है।”महिला ने माफी माँगते हुए अपने दोनों हाथ जोड़ दिए।

     “तूने कभी बताया नहीं कि तू अपने ताऊजी और ताईजी से मिल चुकी है और दोनों वृद्धाश्रम में हैं?” आशा ने मंजरी से सवाल किया।

       “हाँ,माँ! ताऊजी और ताईजी मुझे सड़क पर मिले थे तब मैं इनको नहीं पहचान पाई पर आपसी बातचीत के दौरान हमने एक दूसरे को पहचान लिया। मैं इन्हें घर भी ले जाना चाहती थी पर ये इतने शर्मिंदा थे कि इन्होंने आपसे मिलने से मना कर दिया और तब से मैं नियमित तौर से इन से मिलने आती हूँ। माँ!आपको याद है न कि मैं इन से बदला लेने के लिए कहा करती थी पर इनकी हालत देखकर मुझे ईश्वर की न्याय पर भरोसा हो गया और धीरे-धीरे मेरा मन शांत होता गया। अगर ताऊजी और ताईजी हमारे साथ घर चलना चाहे तो मैं सारी व्यवस्था कर लूँगी।” मंजरी ने आशा को भरोसा दिलाया।

     “नहीं, बिटिया! हम अपनी करनी भुगत रहे हैं। यही तो जिंदगी के रंग हैं। जैसे रंग हम चुनेंगे, तस्वीर उसके अनुरूप ही बनेगी। तस्वीर बन चुकी है जो कि अब बदली नहीं जा सकती। हमें अपनी गलती को स्वीकार करना ही होगा। टपकते आँसूओं को लेकर मंजरी के ताऊजी और ताईजी अपने कमरे में चले गए। 

मौलिक सृजन 

ऋतु अग्रवाल 

मेरठ

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