सुनंदा जी घर के सारे काम निपटवाने के बाद सहायिका कमला से चाय बनाकर लाने को बोल कर बाहर बरामदे में आ रही हल्की धूप में जाकर बैठ गई तभी उनका मोबाइल बज उठा देखा तो ननद चेतना का कॉल है… चेहरे पर हल्की मुस्कान के साथ फ़ोन पर बातें करने लगी।
हाल समाचार के बाद मुख्य मुद्दे की बात जब चेतना ने कही तो सुनंदा जी का चेहरा उतर गया और वो बोली,” चेतना आप लोग सब चली जाइए मैं फिर कभी चल चलूँगी… अच्छा लगा आप लोगों ने मुझे याद कर के पूछा तो सही।”
“ भाभी आप भी चलती तो अच्छा लगता अब हम तीर्थ ना करेंगे तो कब करेंगे… छोटी भाभी और रत्ना दी भी साथ जा रही है…. आज ही सब से बात करने के बाद टिकट करवाने वाले हैं शाम तक अगर मन बदल जाए तो बता दीजिएगा आपके ननदोई ही बोले जाओ तुम लोग तीर्थ कर आओ वो आज ऑफिस से आने के बाद टिकट और रहने इन सब की व्यवस्था करवा देंगे .उनके एक दोस्त ट्रेवल एजेंसी चलाते हैं तो थोड़े कम खर्च में सब व्यवस्था कर देंगे ।”चेतना ने कहा और थोड़ी बातें करने के बाद फ़ोन रख दी
कमला तब तक चाय रख कर चली गई थी ।
सुनंदा जी के भीतर एक तूफ़ान सा उमड़ पड़ा ये अनकहा दर्द कहे भी तो किससे….जब सबकुछ वो अच्छी तरह जानती समझती है….घर की परिस्थितियों में ढल कर जीने की सालों से कोशिश करती ही तो आ रही है …. कितना मन था जब बच्चों को सेटल कर देंगी तो पति पत्नी तीर्थ कर आएँगें…
अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो कर बस पति पत्नी एक दूसरे के लिए समय निकालेंगे जो कहीं पीछे छूट गया था और अब ऐसा हो भी पायेगा ये उम्मीद भी नहीं करना चाहती थी… जो मिलेगा स्वीकार करना है ये ही तो सोचकर जी रही थी…..वो अतीत के भंवर में डूबती चली गई….
पति रामकिशन जी सरकारी मुलाजिम थे वो उनके साथ रह रही थी ।
बेटा बहू अपने साल भर के बच्चे के साथ दिल्ली में राज़ी ख़ुशी रह रहे थे…. एक बेटी जिसका ब्याह कर दिए थे वो अपने पति बच्चों संग चेन्नई रह रही थी ।
अचानक एक दिन रामकिशन जी के हाथ पैर ने काम करना बंद कर दिया और वो बिस्तर पर आ गए… बहुत इलाज हुआ और पैसे पानी की तरह बहाया गया…अस्पताल जाने के बाद और बिस्तर पकड़ लेने के बाद… पैसे हाथ में रूकते ही नहीं…. बेटे बहू दोनों नौकरी वाले उनके पैसे भी सब रामकिशन जी पर लगने लगे…
कभी ये कभी वो दस एक तरह के रोग शरीर को फिर जकड़ने लगे… महँगे इलाज ने सारी जमा पूँजी ख़त्म करवा दिया… बच्चों ने उफ़ तक नहीं किया बल्कि सब रामकिशन जी के जल्दी ठीक होने की उम्मीद लगाए रहे पर रामकिशन जी इस तकलीफ़ से मुक्ति चाहते थे अंततः वो उस यात्रा पर निकल गए जहाँ से लौटना नामुमकिन था।
सुनंदा जी रोती बिलखती रह गई …पति के बिस्तर पर आ जाने से उनकी सेवा सुश्रुषा करते करते वो भी आधी हो चुकी थी ।
रामकिशन जी के जाने के बाद सुनंदा जी बिलकुल अकेली हो गई थी हाँ सारा परिवार उसी शहर में रहता था तो लोगों का आना जाना लगा रहता था पर बेटे विभोर ने काम क्रिया ख़त्म होने के बाद माँ को भी साथ चलने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया ये कहते हुए कि अपना घर है बेटा कैसे छोड़ कर जाएँगे फिर यहाँ सारे रिश्तेदार रहते हैं वहाँ तेरे पास ना कोई जान पहचान का ना कोई संगी साथी।”
“ माँ मैं नौकरी छोड़कर तो तेरे पास यहाँ नहीं रह सकता हूँ … परिवार चलाने के लिए हाथ तो चलाने पड़ेंगे…. और तुम्हें यहाँ अकेला छोड़ कर कैसे जा सकता हूँ… तुम ही बताओ?” विभोर ने कहा
बहू मानसी ने भी सास को चलने के लिए कहा तो वो मना नहीं कर पाई ।
सुनंदा जी वहाँ गई तो पोते के साथ लगी रहती थी काम करने के लिए कमला पहले से ही मौजूद थी जो बहू के गाँव से ही उसके साथ मदद करने के लिए आई थी…. सब सुख सुविधाओं के बाद भी पर सुनंदा जी का दिल जरा भी नहीं लगता था वो बच्चों के सामने ज़रूर सामान्य रहने की कोशिश करती पर अंदर ही अंदर वो अपने घर रिश्तेदारों की कमी महसूस कर रही थी और सबसे ज़्यादा पति की कमी को ….अब बहू मानसी ने भी काम करना शुरू कर दिया था तो किशु की ज़िम्मेदारी कमला और सुनंदा जी पर आ गई थी….. बेटा बहू दोनों कोशिश करते माँ यहाँ आराम करे सारा काम कमला करती तो है पर सुनंदा जी को तो काम करना पसंद था वो बोरियत महसूस करने लगी थी पर कहती कुछ नहीं थी।
एक दिन विभोर ऑफिस से उतरा चेहरा लेकर घर आया पता चला बहुत लोगों को जॉब से तीन महीने की सेलरी देकर निकाल दिया गया है उनमें से एक विभोर भी है… कुछ दिनों तक विभोर नए जॉब की तलाश में लगा रहा पर हाथ कुछ नहीं आया ….अब सारी ज़िम्मेदारी मानसी पर आ गई थी…घर का किराया, राशन , सुनंदा जी की बीपी शुगर की दवाई… गाड़ी की किस्त ….पेंशन के पैसे भी ज़्यादा नहीं होते की घर की गाड़ी सुगमता से चल सके।
ये सब देखते हुए सुनंदा जी ने कहा,” बेटा क्यों ना हम अपने शहर ही रहने चल चले… कम से कम अपना घर तो है … तुम दोनों उधर ही कोई काम खोज लेना ।”
विभोर को भी ये सही लग रहा था अभी तक सब ठीक ही था तो घर पर ताला लगा हुआ था…. दो मंज़िला मकान है चाहे तो एक मंज़िल को किराए पर भी दे सकते हैं फिर यहाँ जो किराया दे रहे हैं वो तो कम से कम बच जाएगा।
उसने मानसी से कहा तो वो कुछ देर सोचने के बाद बोली,” विभोर हमें जल्दबाज़ी में कोई फ़ैसला नहीं करना चाहिए…. हाँ ये सही है वहाँ रहने से हमारे खर्च कम हो जाएँगे पर अगर मैं भी नौकरी छोड़कर साथ चलूँगी तो हम अपनी ज़रूरतें कैसे पूरी करेंगे… अब तो किशु को भी स्कूल में डालने का समय आ गया है…. ऐसा करते हैं जब तक तुम्हें जॉब नहीं मिल जाती और सब सही नहीं हो जाता मैं यहाँ रहकर जॉब करती रहूँगी और घर खाली करके पीजी में शिफ़्ट हो जाऊँगी तुम लोग वहाँ चले जाओ।”
“ और किशु…?” विभोर ने पूछा
“ किशु तो दादी और कमला के साथ घुलमिल गया है वो तुम लोगों के साथ रह लेगा मैं बीच बीच में आती रहूँगी… हमारे पास और कोई चारा नहीं है ।”मानसी ने अपनी समझ से बात कही
और फिर सबकी रज़ामंदी के बाद ये सब लोग अपने शहर आ गए…. विभोर नौकरी की तलाश करने लगा बहुत तलाश करने पर एक नौकरी उसे मिली जिसे उसने स्वीकार तो कर लिया पर और बेहतर की तलाश में लगा हुआ था…. सुनंदा जी उसको हिम्मत देती रहती… बेटे को देख कर चिंतित भी रहती ….जीविका चलाने के लिए कितना कुछ करना पड़ता है ताकि परिवार चलाया जा सके ….बहू दूसरी जगह… पोता यहाँ ये सब देख देख कर वो बहुत दुखी होती पर नाते रिश्तेदार घर आते रहते तो उनका मन थोड़ा बहल भी जाता था ये देख विभोर को लगता यहाँ आकर उसने शायद सही किया…
यहाँ आए सात महीने हो चुके थे सुनंदा जी पोते की वजह से कहीं आ जा नहीं पाती थी उनकी दिनचर्या उसके इर्द-गिर्द ही घुमती रहती थी….विभोर और मानसी भी ये महसूस कर रहे थे कि सुनंदा जी अब पहले की तरह ना तो ज़्यादा बात करती है ना कुछ कहती है … बेटी से बात होती तो कहती रहती सब ठीक है अच्छी हूँ…. बस किशु के साथ दिन गुजर रहा है।
सुनंदा जी ना जाने कब तक यही सोचती रहती कि कमला ने आकर कहा,”चाची किशु बाबा के स्कूल से आने का वक़्त हो रहा है उसको लेकर आ रही हूँ ।”
“ हू “ कहकर सुनंदा जी ने पूछा,” किशु का खाना तैयार कर दिया है ना ?”
कमला के हाँ कहते उसे जाने को कह कर वो हॉल में आ गई
जानती थी पोता आते ही स्कूल के कपड़े बदलते बदलते अपनी मीठी बोली में स्कूल की सब बातें दादी से बताता है।
किशु के घर आ जाने के बाद सुनंदा जी चंचल की बात भूल गई थी… उन्हें समय ही कहाँ था जो तीर्थ करने जाती अभी वो ज़िम्मेदारी से मुक्त ही नहीं हो पाई थी जो अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकें…. बच्चों को जब भी ज़रूरत हो माता-पिता को उनका साथ देना चाहिए ये ही तो आजतक सब करते आए हैं…..फिर आज जब मेरे बच्चों को मेरी ज़रूरत है मैं ऐसे में किशु को छोड़कर दस दिन के तीर्थ पर जाकर क्या करूँगी…. जब लिखा होगा चली जाऊँगी… गलती से भी बच्चों को ये बात पता नहीं चलने देना है नहीं तो वो मुझे भेज तो देंगे पर उनकी परेशानी!!
विभोर आठ बजे तक घर आ गया था…. सुनंदा जी किशु को खाना खिला रही थी तभी उनका फ़ोन बजा फ़ोन विभोर के पास ही सोफे पर रखा था उसने नाम देख कर जोर से बोला ,” चंचल बुआ का फ़ोन है ।”
“ कह दे बाद में बात करूँगी ।”सुनंदा जी के चेहरे के भाव बदल गए कहीं विभोर को पता ना चल जाए
“ कैसी हो बुआ कभी भतीजे से भी बात कर लिया करो।” विभोर ने फोन रिसीव करते हुए कहा
दोनों बुआ भतीजे बातें कर रहे थे तभी सुनंदा जी आ कर फ़ोन ले ली
“ कैसे फ़ोन किया? “ अनजान बनते हुए सुनंदा जी ने कहा
“ अरे भाभी सुबह कहा तो था तीर्थ जाने का क्या सोचा आपने?” चंचल ने कहा
“ चंचल तुम लोग चली जाओ मैं फिर कभी चली जाऊँगी … पहले अपनी ज़िम्मेदारियों को तो ख़त्म कर लूँ ।”ज़्यादा बात ना करते हुए सुनंदा जी ने फ़ोन काट दिया
वो लोग तो चले गए पर सुनंदा जी इस दर्द को किसी से बांट नहीं सकी कि अब ये मौक़ा पता नहीं फिर मिलेगा और नहीं… हम ग़लत सोचते हैं बच्चों के साथ ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाती है बहुत बार परिस्थितियों के आगे हम और ज़िम्मेदार बन जाते है ऐसे में अपने मन को समझाना पड़ता है और परिस्थितियों के अनुसार चलना पड़ता है…एक माँ होने के नाते कई बार कुछ दर्द बच्चों को ना बता कर चेहरे पर उनके लिए मुस्कुराहट रखना पड़ता है।
दोस्तों पता नहीं आप मेरी सोच से कहाँ तक सहमत होंगे पर ये आज भी कई घरों की कहानी है…. माता-पिता ताउम्र बच्चों के लिए बहुत कुछ बरदाश्त करते रहते हैं…सोचते हैं जब वो अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाएँगे तो अपने मन का करेंगे जो कहीं पीछे छूट गया होता है पर कई बार परिस्थितियाँ उनके प्रतिकूल होती और वो अपने मन की बात अनकहा दर्द सीने में दफन कर बच्चों की ख़ातिर उनके हिसाब से चलने लगते हैं ताकि उनके बच्चों को तकलीफ़ ना हो…कई बार बच्चे भी माता-पिता के लिए बहुत कुछ करना चाहते है पर शायद उनकी भी कुछ मजबूरियाँ उन्हें रोक लेती हैं और सब वक़्त पर छोड़ कर ज़िंदगी जीने की कोशिश करते रहते हैं ।
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रचना पढ़ने के लिए धन्यवाद ।
रश्मि प्रकाश
# अनकहा दर्द