ज़िम्मेदारी – मधु झा

“तुमसे कुछ नहीं हो सकता। तुम इतना भी नहीं कर सकती।” कहते हुए सचिन सारे पेपर्स और बैग लेकर जोर से दरवाज़ा बंद करते हुए आफ़िस के लिए निकल गया।

वो तो चला गया मगर ये शब्द जयश्री के कानों में अब भी गूँज रहे थे।

वो घर के मंदिर के सामने आँखें मूँदे चुपचाप बैठी थी,, ख़ामोश निस्तेज सी , ढीली सी,,

उसके शरीर में कोई हरक़त नहीं थी,,

सिर्फ़ आँखें अश्क़ों का समंदर बहा रही थी और मन-मस्तिष्क में समंदर के लहरों की तरह शोर था। लहरों की तरह विचार उठते और शाँत हो जा रहे थे,,। वो अक्सर जब भी परेशान होती तो यहीं ईश्वर के सामने आकर बैठ जाती और जीभर उनसे मन की बातें कर मन को हल्का कर लिया करती थी। 

आज इतने सालों बाद भी जीवन के इस पड़ाव पर आकर ये सुनना कुछ चुभ सा गया था उसे,,।

कौन सी कमी रह गयी मेरे द्वारा जीवन में विभिन्न किरदारों को निभाने में,,  कौन सी ज़िम्मेदारी व कर्त्तव्य नहीं निभाये मैने। शादी से पहले मायके में एक अच्छी बेटी , एक बहन के रूप में किसी को शिकायत का कोई मौका न दिया। शादी से पहले मैं पढ़कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी मगर पापा ने अच्छा लड़का मिल जाने का कारण देते हुए और ये कहते हुए कि पढ़ाई का क्या है,,शादी के बाद भी कर लेना, शादी कर दी मगर शादी हो जाने के बाद कर्त्तव्य और जिम्मेदारियाँ ही सबसे महत्वपूर्ण बतायी जाती है और उसपर बच्चा आ जाने पर तो किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकते। दिन भर यही सब उधेड़-बुन चलता रहा उसके मन में।




शाम को सचिन के आफ़िस से लौटने तक उसने ख़ुद को बिल्कुल शाँत और नार्मल कर लिया था,,वैसे भी ये कोई नयी बात तो थी नहीं,, मगर फिर भी जाने क्यों इस बार वो कुछ ज़्यादा ही आहत और विकल थी। खैर,,डिनर के बाद सचिन टी वी देखने बैठ गया और जयश्री किचेन का काम समेट कर सीधे अपने बेड पर जाकर लेट गयी और सोने की कोशिश करने लगी मगर आँखों में नींद कहाँ थी,, आँखों के सामने तो जीवन रुपी रंगमंच पर निभाये गये विभिन्न किरदार नाच रहे थे। मन जाने कहाँ भटक रहा था ,,अतीत के समंदर में गोते लगाने लगा था और वो सोचने लगी थी –“सभी की ज़रूरतों को ख़ुद से ज़्यादा महत्व देते हुए अपनी ज़रूरतों को दरकिनार कर दिया , बल्कि अपना तो अस्तित्व ही मिटा दिया,, कभी ध्यान भी नहीं गया कि मुझे भी कुछ चाहिए,, मेरी भी चाहतें हैं ,अरमान हैं या जीवन से कुछ उम्मीदें हैं,, बल्कि सबकी पसंद और ज़रूरतों को ही अपना लिया, सबकी ख़ुशी में ही अपनी भी ख़ुशी मान लिया। यहाँ तक कि इन सबमें ही खुद को भुला दिया।”

कौन हूँ,,??मेरी पहचान क्या है,,?? 

क्या मैं सिर्फ़ किसी की बेटी, किसी की बहन, किसी की बहु, किसी की पत्नी और किसी की माँ,,,,ये सब तो ठीक है,,मुझे सहर्ष स्वीकार भी है,,। मगर,,मगर,, इन सबमें जयश्री कहाँ है,,? वो जयश्री जिसे कुछ करने की चाहत थी,,वो जयश्री जो अपनी ख़ुद की एक पहचान बनाना चाहती थी ,,??

ईश्वर ने उसे भी एक इंसान के रूप में ही जन्म दिया है और अपनी पसंद से जीवन जीने का हक भी दिया है। ज़िन्दगी में विभिन्न किरदारों को निभाने की ज़िम्मेदारी देकर उसे धन्य अवश्य किया है और उसने इसे बख़ूबी निभाया भी है। उसने तो अपनी पहचान और वज़ूद को बनाने में, ज़िन्दगी संवारने में सबकी मदद की है,। मगर इन सबमें जयश्री न जाने कहाँ खो गयी।

अब जयश्री की पहचान और वज़ूद बनाने का काम करूँगी,,। अब ज़िन्दगी में जयश्री का यानि अपना किरदार भी निभाऊँगी।

जिस तरह जीवन में विभिन्न प्रकार की पारिवारिक व सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाना ज़रूरी है उसी प्रकार ईश्वर प्रदत्त जीवन में ख़ुद को खुश रखने की भी ज़िम्मेदारी निभाना ज़रूरी है,,खुद को संतुष्ट करना भी मेरी ही ज़िम्मेदारी है,,।

आधी रात के बाद तक सोचते-सोचते जाने कब नींद आ गयी ,,। सुबह जब आँख खुली तो बहुत हल्का महसूस कर रही थी,,। उसने मन ही मन सोचा– नहीं,,अब और नही,,ख़ुद की पहचान बनाना भी मेरी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा है और आज से ये ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभाऊँगी भी।

और उसके सामने थी एक नयी शुरुआत, नयी सुबह, नयी ज़िन्दगी, और ख़ुद को संवारने की नयी ज़िम्मेदारी। 

मधु झा,,

स्वरचित,,

22-4-2023

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