ये क्या मां – संस्कृति सिंह

मां की रट लगा रखी है , मत भूलो कि अब तुम शादीशुदा हो और इस घर की बहू हो अब तुम्हें यहां के नियम और कायदे का ही पालन करना होगा। मायका से अपना मोह दूर करो – कड़कती आवाज में सास लता जी ने कहा तो दिव्या का मन दुखी हो गया पति के सामने अपने मन की बात रखी तो लता जी के सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। दिव्या मन मसोस कर रह गई।

दरअसल दिव्या की माता जी कुछ दिनों से बीमार चल रही थीं चूंकि दिव्या अपने परिवार की इकलौती संतान थी तो ने अपनी मां की देखभाल के लिए जाना चाहती थी।

माता -पिता दिव्या से बहुत लाड़ लड़ाते और खूब मज़े करते। समय के साथ दिव्या बड़ी होती गई। दिव्या अपनी प्रतिभा से सबको प्रभावित करती आई थी अब तक। उसने दसवीं की परीक्षा में पूरे शहर में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। दिव्या की इस उपलब्धि से उसके माता -पिता ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। दिव्या पढ़ लिखकर डाक्टर बनना चाहती थी और पिता के समाजसेवा में अपना योगदान देना चाहती थी। दिव्या के पिता  गरीब, लाचार और बिमारियों से ग्रस्त लोगों की संस्था से जुड़े थे। उसके पिता अक्सर कहा करते थे बेटा पढ़ाई तो हम सब करते हैं लेकिन हमारा पढ़ना तभी सफल होता है जब हम पढ़ी हुई चीजों को अपने आचरण और व्यवहार में सम्मिलित करें। जब कोई व्यक्ति हमारे साथ असहज महसूस ना करें बल्कि प्यार और सम्मान से परिपूर्ण समझे। ऐसा करने से हमें उनसे जो इज्जत प्राप्त होता है ना वो हमारी सबसे बड़ी पूंजी होती है। डाक्टर बनकर आप अपने जीवन स्तर को तो सुधार सकते हैं पर जब अपने साथ -साथ हम कमजोर और असहाय लोगों के जीवन स्तर को उठाने में अपना योगदान देते हैं तो उनसे प्राप्त इज्जत जीवनपर्यंत हमारे साथ खड़ा रहता है। यह हमें कभी गिरने नहीं देता।




पर शायद कुदरत को कुछ और ही मंजूर था अचानक आए हृदयाघात से दिव्या के पिता जी चल बसे। मां की जिम्मेदारी अब दिव्या के कंधे पर थी। दिव्या छोटे बच्चों को पढ़ाकर अपनी पढ़ाई पूरी करने लगी और दिव्या की माता जी का वर्षों पहले सीखे सिलाई कढ़ाई का अब उनके परिवार के चलने का एकमात्र साधन था दिव्या ने बारहवीं भी प्रथम स्थान से उत्तीर्ण किया। पड़ोस में रहने वाली सुनीता बुआ ने एक दिन दिव्या के लिए अच्छा सा रिश्ता सुझाया। दिव्या की माता जी को यह रिश्ता बहुत पसंद आया और जल्द ही दिव्या के हाथ पीले कर दिया गया। दिव्या के डाक्टर बनने का सपना अधूरा ही रह गया।

इधर कुछ दिनों पहले दिव्या के ससुराल वाले कुछ खुसर फुसर कर रहे थे पास आकर सुना तो कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।वे दिव्या की माता जी की पुश्तैनी जमीन और मकान अपने नाम करवाने की बात कर रहे थे। दिव्या एक पढ़ी लिखी और स्वाभिमानी लड़की थी। उसने ऐसा करने से साफ मना कर दिया।

ससुराल में दिनों दिन उसकी मुश्किले बढ़ती चली गई। ससुराल वाले उसे अपमानित करने का एक भी मौका ना गंवाते और आज अपनी मां के पास नहीं जा पाने को बेबस थी। समय के साथ उसकी मां ठीक हो गई।

कुछ दिनों बाद दिव्या की माता जी के घर कुछ लोगों का आना हुआ।एक ही शहर होने के कारण यह बात उसके ससुराल में भी फैल गई। सबने दिव्या को खूब खरी खोटी सुनाया। ये सब बातें सुनकर दिव्या उदास बैठी थी तभी फोन की घंटी बजी दिव्या की माता जी का बुलावा आया था। किसी जरूरी काम से कहीं जाने को कह रहीं थीं। सभी समय से पहुंच गए। वहां जाकर उन्हें पता चला कि दिव्या के पिता जी ने संस्था में बीमार लोगों के लिए अस्पताल बनवाने की सोच रहे थे और समय समय पर अपना योगदान भी देते रहे थे।आज उनका सपना पूरा हो चुका था और दिव्या की माता जी को दिव्या और उसके पति के साथ आमंत्रित किया था। मुख्य अतिथि के रूप में आज जो इज्जत और सम्मान दिव्या के ससुराल वालों को प्राप्त हो रहा था उसे देख उन्हें काफी  पछतावा हुआ और अब वे यह समझ चुके थे कि इज्जत देने से ही इज्जत प्राप्त होती है, अहंकार से सिवाय दुःख, अकेलापन और शर्मिंदगी के कुछ नहीं मिलता।

धन्यवाद।

संस्कृति सिंह

मुंगेर

बिहार

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