ये रिश्ते दिलों के रिश्ते! – नीलम सौरभ

“ये देबाशीष दत्ता भी न…पता नहीं क्या चाहता है? न कुछ बोलता है न कुछ पूछता है…और तो और किसी बात का जवाब भी नहीं देता नालायक…मिट्टी के माधो की तरह बैठा बस घूरता रहता है नासपीटा।

उसकी क्लास को तो अब पढ़ाना भी मुश्किल होता जा रहा है…पिछले किसी जन्म की कोई दुश्मनी निकाल रहा लगता है ये बंगाली छोकरा!”
गुस्से से भरी बड़बड़ाती हुई आयी थी मैं रास्ते भर आज भी। कॉलेज से होस्टल के अपने कमरे में वापस आ जाने के बाद भी बहुत देर तक मेरा मूड उखड़ा हुआ ही रहा। कितने अच्छे से तैयारी कर के गयी थी मैं…कि पूरी तन्मयता से एक-एक टॉपिक विस्तार से पढ़ाऊंगी।

ख़ूब मेहनत से सटीक उदाहरणों और चित्रों सहित बढ़िया नोट्स भी बना रखे थे, अच्छे से सिलसिलेवार समझाने के लिए। आख़िर मेरा प्रिय विषय और रुचिकर टॉपिक जो है, ‘वेजीटेटिव रिप्रोडक्शन एण्ड हाइब्रिडाइज़ेशन’ अर्थात् पेड़-पौधों में कायिक प्रजनन और संकरण, जिसमें प्रायोगिक परीक्षण कर-करके मैंने व्यवहारिक ज्ञान व विशेषज्ञता हासिल कर रखी है।


हरियाणा में स्थित अपने घर की तो क्या बात कहूँ, यहाँ अपने छात्रावास अर्थात् ‘दुर्गावाहिनी वर्किंग गर्ल्स होस्टल’ के परिसर से लेकर अपने कॉलेज ‘विवेकानंद स्मृति महाविद्यालय’ के उद्यान तक को मैंने अपनी इस योग्यता से लोगों के आकर्षण तथा कौतूहल का केन्द्र बना दिया है। कलम और ग्राफ्टिंग विधि से मैंने जंगली, देसी बेर के अधिकांश पेड़ों को मीठे गंगा बेर के पेड़ों में बदल डाला है, खट्टे आमों को कलमी उन्नत किस्मों में तो वहीं देसी गुलाब की झाड़ियों को इंद्रधनुषी छटा से सजा दिया है,

एक ही झाड़ी में सात रंगों के गुलाब खिला कर। शुरू-शुरू में उद्यान के रखरखाव के लिए स्थायी सेवा में नियुक्त प्रशिक्षित दोनों माली जो अपनी स्वछन्दता में मुझे रोड़ा समझ कर मुझसे चिढ़ा करते थे, अब वे भी मेरी इस कलाकारिता का लोहा मानने लगे हैं, जब पिछले वर्ष मैंने अपने होनहार छात्रों के संग मिलकर कॉलेज के पीछे स्थित किचन गार्डन में एक ही पौधे में नीचे जड़ों में आलू तथा ऊपर टमाटर उगा कर दिखा दिया है।
“यू आर रियली अमेजिंग नीलांजना शर्मा! आपके टैलेंट और एफर्ट से इस बार हॉर्टिकल्चर के इनोवेशन कॉम्पिटिशन का फर्स्ट प्राइज़ हमारे कॉलेज के नाम हो गया है।”
मुझे हमेशा कुछ विलक्षण करने की प्रेरणा देने वाले ये प्रशंसात्मक शब्द हमारे कॉलेज के सम्माननीय प्रिंसिपल अरोड़ा सर के मुँह से निकले थे जब मेरे द्वारा प्रशिक्षित कुछ छात्र अन्तर-महाविद्यालयीन उद्यानिकी प्रतियोगिता में भाग लेकर कॉलेज के लिए विजेता का ताज जीत लाये थे।

स्कूल के जमाने से ही मंच संचालन से लेकर सुमधुर गायन में भी सिद्धहस्त रही हूँ मैं। मेरे व्यक्तित्व के इस दूसरे पहलू से भी लोग बहुत प्रभावित रहते हैं। अब तो कॉलेज के प्रोफेसर्स से लेकर अन्य विषयों के छात्र तक इस मामले में भी मेरी प्रशंसा करते नहीं अघाते। हर समय आत्मविश्वास से भरी हर दिशा में सफलताओं के झण्डे गाड़ती रहती हूँ मैं।
लेकिन आजकल बीएससी सेकेंड ईयर के उस छोकरे देबाशीष के कारण सब धरा रह जा रहा है। आज भी उसका विचित्र दृष्टि से एकटक निहारना मुझे फिर असहज कर गया और जैसे-तैसे पढ़ा कर बाक़ी चैप्टर मैंने कल पर टाल दिया मगर कोफ़्त तो हो ही रही है। ऐसे कितने दिन चलेगा, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। लड़का पूरा मनोरोगी लगता है मुझे तो। नहीं होगा तो उसके अभिभावकों से मिल कर देखूँगी अब। मैंने कुछ निश्चय सा करते हुए एक लम्बी साँस भरी और उठ कर दैनिक कामों में लग गयी।

क्या गज़ब का संयोग था, देबाशीष दूसरे ही दिन दोपहर को सिटी-सेंटर मॉल में अपने माँ-पापा के साथ मिल गया मुझे। सप्ताह भर की एकरस दिनचर्या से उपजी ऊब दूर करने के लिए होस्टल की मेरी ख़ास सहेलियाँ मुझे जिद करके ले आयी थीं वहाँ।
पहले तो मुझे लगा माता-पिता के सामने देबाशीष मेरे सामने आने से बचेगा।

एक बार के लिए दिल किया, ख़ुद ही सामने जाकर उन लोगों से मिल लूँ और लगे हाथ कक्षा में उसकी असामान्य गतिविधियों को लेकर उसकी शिकायत भी कर दूँ। फिर सिर झटक कर सोचा छोड़ो, सहेलियों के साथ रिफ्रेशमेंट के लिए आयी हूँ, अपना और उनका मज़ा किरकिरा क्यों करूँ, अतः फोर्थ फ्लोर जाने के लिए दोनों सहेलियों का हाथ खींचती एस्केलेटर की ओर बढ़ गयी जहाँ मल्टीप्लेक्स में मूवी देखने का प्लान सागरिका व मेघा ने बना रखा था जबकि पहले मैं मना कर रही थी कि कौन ढाई-तीन घंटे बर्बाद करे।
हम ऊपर जैसे ही पहुँचे, सामने ही लिफ्ट से देबाशीष माता पिता के साथ बाहर निकलता दिखा।

“अरे, नीलांजना मैडम आप…आप भी हैं यहाँ!”
देबाशीष के चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता थी। थोड़ी देर पहले का उसका मुरझाया चेहरा हमें देख कर मानो खिल उठा था। माता-पिता के सामने वह ज़रा भी असहज नहीं लगा। मेरी उम्मीदों के उलट एकदम से चहकता हुआ वह बोल रहा था____
“माँ, बाबा! देखो न…यही हैं, मेरी वो कॉलेज वाली मैडम…यही तो हैं वो…नीलांजना शर्मा मैडम…माँ तुमसे बताया था न!” उसकी आवाज़ से ख़ुशी छलकी पड़ रही थी जबकि मैंने सोचा था ऐसे मुठभेड़ हो जाने पर चोरी पकड़े जाने वाले भाव होंगे उसके चेहरे पर।
“नमस्ते!!”  उसकी माँ के साथ उसके पिता ने भी हाथ जोड़कर जब कहा तो मैं जैसे नींद से जाग पड़ी।
“न…नमस्ते, नमस्ते, प्रणाम!!”____जल्दी से हाथ जोड़ती एकदम से हड़बड़ा गयी थी मैं और शर्मिंदा भी हो उठी थी कि पहले से मैंने उनका अभिवादन क्यों नहीं किया।
सागरिका और मेघा के चेहरे पर सख़्त नागवारी दिख रही थी कि इन लोगों के मिलने से अच्छा खासा प्लान सफ़लता के द्वार पर आकर चौपट हो गया लगता है। दोनों का बस चलता तो उनके मुँह के सामने से खींच कर ले चलतीं मुझे, मगर मेरे चेहरे के भाव देख कर रुक गयी थीं शायद।
“हम लोगों से देबू आपकी इतनी बातें करता रहता है कि बिल्कुल लग ही नहीं रहा कि आपसे पहली बार मिल रहे हैं।” ____देबाशीष के पापा अपने बेटे को निहारते हुए गम्भीर स्वर में मुझसे बोल रहे थे और उसकी माँ? …उसकी माँ, बिल्कुल देबाशीष वाले अंदाज़ में ही मुझे एकटक निहार रही थीं।

उनकी इस निर्निमेष दृष्टि में न जाने क्या था कि मैं सहेलियों के सामने बहुत असहजता का अनुभव करने लगी। दोनों जल्दी मचा रही थीं कि मूवी का टाइम हो रहा है और इसी बीच देबाशीष की माँ ने मेरा हाथ पकड़ लिया। बांग्ला उच्चारण वाली हिन्दी में वे कुछ बोल रही थीं।
____”आप चलिए न हमारे घर, यहाँ से बिल्कुल निकट ही है, हम लोगों को बहुत अच्छा लगेगा!”

मेरी मुखमुद्रा देख कर दोनों सहेलियों ने मुझे देबाशीष के परिवार के साथ छोड़ कर मूवी देखने चले जाना उचित समझा और मुझे बाय-बाय कहती हुईं वे मल्टीप्लेक्स के टिकट काउंटर की तरफ बढ़ गयीं।
पत्नी और बेटे की मंशा भाँप कर देबाशीष के पिता कार पार्किंग की ओर बढ़ गये थे। पीछे-पीछे हम लोग भी। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्यों इनके साथ चल पड़ी हूँ…न कोई ख़ास जान-पहचान…न कोई काम ही, तब भी…।
मुश्किल से पाँच-सात मिनट ही लगे होंगे उनके घर पहुँचने में। पिछली सीट पर देबाशीष की माँ अब भी मेरा हाथ थामे बैठी थीं और ख़ुद देबाशीष बार-बार पीछे मुड़ कर हमें देखता फिर पिता को देख आगे देखने लगता। सब कुछ एकदम रहस्यमय और असमंजस भरा अनुभव हो रहा था मुझे।

कार रुकी तब उतरते ही मैं चौकन्नी होकर चारों तरफ देखने लगी कि कहाँ आ गयी हूँ मैं। एक छोटे से मगर सुन्दर बंगले के सामने थे हम सब। सारा परिदृश्य एकदम सामान्य लग रहा था। साफ-सुथरी, शान्त-सी हरी-भरी कॉलोनी थी। आम मध्यम-वर्गीय रहन-सहन वाली।

देबाशीष की माँ ने बेटे को उनकी भाषा में न जाने क्या समझाया कि वह घर का मेन गेट खोल कर अन्दर गया और झटपट एक छोटे से काँसे के लोटे में पानी, साथ में एक छोटी थाली लिये हुए लौटा, शायद पूजा घर से लेकर आया होगा। मैं हैरान खड़ी देख रही थी जबकि उसकी माँ ने उसके हाथ से थाली ली और उसमें रखी रोली-अक्षत का टीका मेरे माथे पर लगाया और लोटे से जल की कुछ बूँदें छिड़कती हुई ‘तुम्हारा घर में स्वागत है’ कहतीं मुझे अंदर ले गयीं।
सजे-सँवरे ड्राइंगरूम को पार कर उन्होंने मुझे जहाँ बिठाया, वह रसोई, पूजा घर और दो शयनकक्षों से घिरा डायनिंग हॉल था। मेरी आँखें हॉल में नज़र आ रही सभी चीजों का मुआयना करती हुईं एक स्थान पर जाकर टिक गयीं। क्षण भर में ही मन-मस्तिष्क में धमाके से होने लगे। मेरे भीतर से कोई चीख पड़ा___

“ओह्ह! यह..यह क्या…!”
सुनहरे फ्रेम में जड़ी, चंदन हार चढ़ी उस तस्वीर को मैं सम्मोहित-सी अपलक देखती रह गयी थी। रहस्य की परतें अब अपने-आप खुल रही हैं, मुझे लगने लगा।
“दीपान्विता है यह…देबाशीष की बहन…हमारी बच्ची…रूठ कर चली गयी बहुत दूर, हमेशा के लिए…उसके बिना जिया ही नहीं जा रहा…बस साँस ले रहे हैं हम लोग!”
देबाशीष की माँ का भर्राया स्वर गूँजा और मैं अनायास ही चेयर से उठ खड़ी हुई। पीछे मुड़ कर देखा, देबाशीष के पिता भी अपनी आँखें पोंछ रहे थे। बेटा उनके कन्धे से लगा मौन खड़ा था, उसके नयनों से भी गंगा-जमुना बह रही थीं।
मेरे दिमाग़ में सब कुछ धुआँ-धुआँ सा हो रहा था। क्या है ये सब। तो क्या ये माँ-बेटे मुझमें दीपान्विता की छवि की झलक देख अनोखा जुड़ाव महसूस कर रहे हैं!
उस तस्वीर को देख कर मानो पूरी तस्वीर साफ होने लगी थी अब तो। समझ में आने लगा था उनके यूँ मुझे निहारे जाने का रहस्य। दीपान्विता, देबाशीष की बहन की शक़्ल कितनी मिलती-जुलती है मुझसे…जैसे मेरी ही कोई सगी बहन हो या मेरा कोई प्रतिबिंब।
थोड़ी देर बाद भावनाओं के ज्वार से किसी तरह उबर कर उन्होंने मुझे फिर से बैठने को कह कर पसन्द के खाने के बारे में पूछा। पहली बार आयी थी न उनके घर, ऐसे ही कैसे जाने देते। उनके दुःखी मन को तनिक भी चोट नहीं पहुँचाना चाहती थी अब मैं, इसलिए कह दिया____
“मैं कुछ भी खा लूँगी…बस सादा हो और माँ के हाथ का बना हुआ हो।”
देबाशीष और उसके माँ-बाबा उत्साह से भर उठे। तुरन्त तैयारियों में लग गये। माँ के साथ मैं भी रसोई में चली गयी कि जितना बने उनकी सहायता कर दूँ, हालाँकि रसोई के कामों में एकदम अनाड़ी हूँ मैं।
खाने की टेबल पर वे तीनों ख़ुश दिखाई दे रहे थे तो मुझे भी बहुत अच्छा लग रहा था। मन भीग-सा रहा था एक ज़माने के बाद, किसी के लिए तो ख़ुशी का कारण बन सकी, वरना बचपन से इतनी चोटें खायी हैं कि भीतर से एकदम रूखी, नीरस हो चुकी हूँ मैं।
खाने के बाद देबाशीष की माँ मुझे एक कमरे में ले गयीं कि चलो, थोड़ा आराम कर लो, फिर देबू तुम्हें होस्टल छोड़ आएगा। वह दीपान्विता का ही कमरा था। कमरे की हर दीवार पर उसकी कई तस्वीरें लगी हुई थीं। अलग-अलग पोज़ और मूड वाली। सच में हर फ़ोटो में मेरी झलक है, मन ही मन मुझे स्वीकार करना पड़ा। वहाँ बिछे पलँग पर बैठ मेरा हाथ खींच कर उन्होंने मुझे भी पास बिठा लिया। शायद मेरी आँखों में सच्ची सहानुभूति भाँप ली थीं उन्होंने कि धीरे-धीरे मेरे सामने उनके दिल का सारा दुःख, सारा दर्द शनैःशनैः पिघल कर बहने लगा था।
दीपान्विता अपने सहपाठी, अमीर घर के इकलौते बेटे वैभव के प्रेमाकर्षण में सर से लेकर पाँव तक डूब गयी थी। जिस दिन उस लड़के ने मज़ाक-मस्ती छोड़कर उसे सच्चाई बतायी थी कि वह उससे ऐसा वाला प्रेम कतई नहीं करता कि उसे अपनी पत्नी, अपने ख़ानदान की बहू बना ले, उस अति-संवेदनशील लड़की को सारा संसार निस्सार लगने लगा था। वह उसके सामने बहुत रोयी-गिड़गिड़ायी, उससे अपने सच्चे प्यार की दुहाइयाँ दी थीं मगर सब बेकार। जब दीपान्विता ने उसे अपनी ज़िंदगी बताते हुए अपनी ज़िंदगी की भीख माँगी, उसकी यह दीवानगी वैभव को गले की फाँस लगने लगी और उसने बहुत रूखाई से उससे कह दिया था___

“कभी अपनी और अपने परिवार की औक़ात देखी है? तुम्हारे लिविंग स्टैंडर्ड से कहीं ज्यादा अच्छी कंडीशन मेरे घर के नौकरों की है। …और मेरे घर वाले हमारी शादी के लिए तो तब मना करेंगे न, जब मैं तुमसे शादी को राज़ी होऊँगा। मेरे ख़्वाब ऊँचे हैं, बिज़नेस मैनेजमेंट की ऊँची डिग्री और विदेश में सैटलमेंट वाली जॉब…इन सब में तुम जैसी गँवार बहनजी कहाँ फिट बैठती है?

…बेहतर होगा, सपनों की दुनिया से बाहर आ जाओ। हाँ, मानता हूँ कि तुम जब मुझसे रिश्ता दोस्ती से आगे बढ़ा रही थीं, मैंने तब तुम्हें यह सब पहले नहीं बताया था…लेकिन मुझे भी कोई सपना तो आया नहीं था कि तुम इस हद तक सीरियस हो इन सब फालतू के मामलों में।”
उसने उस लड़के से अन्तिम विनय की, तुमको भूलने से पहले एक बार, बस एक बार तुम्हारे परिवार से मिलना और तुम्हारे घर को अन्दर-बाहर सभी ओर से जी भर कर देखना चाहती हूँ। फिर…फिर उसके… महलनुमा पाँच मंज़िला घर की छत से कूद गयी थी वह।
____”संसार में सबसे ज्यादा प्यार करता था मेरा देबू अपनी बहन से…उसके जाने के बाद जीना भूल गया था हमारा होनहार बच्चा…जिन्दा लाश हो गया था…

बस जिस दिन से तुम्हें देखा है,..फिर से जीवन की ओर कदम बढ़ा रहा है!”
उस बेबस माँ की सिसकियों में अब मेरा रुदन भी शामिल हो चुका था। और फिर कब उस परिवार के सुख-दुःख मेरे अपने सुख-दुःख हो चले, मालूम ही नहीं हुआ।
उस एक दिन और उस मुलाकात ने मेरी और मेरे अपने परिवार की ज़िंदगी भी एकदम से बदल कर रख दी। कई ज़िंदगियों ने नयी करवट ले ली थी। आधे-अधूरे कई लोग मिल कर एक नेह के बन्धन में बंध कर अब पूरी तरह से पूरे हो चले थे।

आज शुभ-विवाह है मेरा, प्रोफेसर अनुराग जैसे हर प्रकार से सुयोग्य वर के साथ, जिन्हें देबाशीष के माता-पिता ने मेरी माँ और बहनों की सहमति से मेरे लिए चुना है…जिन्हें व जिनके परिवार को मैं बेहद पसन्द हूँ। लग्न-मण्डप के नीचे विभिन्न रस्मों के बीच जब-जब वे मेरी ओर स्नेहिल दृष्टि से देखते हैं, शरमा कर दूसरी ओर देखने लगती हूँ मैं।

देबाशीष ब्याह की सारी रस्मों में भाई वाला रोल निभा रहा है, आख़िर उससे पहले मेरा कोई भाई जो नहीं था, हम तीन बहनें ही थीं, अपनी अकेली माँ की सन्तानें। जन्मदाता पिता हम सबको बेसहारा छोड़ कर दूसरी औरत के साथ तब चले गये थे, जब मेरी सबसे छोटी बहन निवेदिता का जन्म हुआ था।

उससे बड़ी नीहारिका को भी पिता की थोड़ी सी भी याद नहीं है। लेकिन मुझे आज तक सब कुछ जस का तस याद है। तब सात-आठ साल की थी मैं। जाते समय वे मेरी माँ पर अपशब्दों की बौछार करते हुए आरोप लगा गये थे कि तीन-तीन लड़कियों का बोझ मेरे मत्थे मढ़ दिया है इस ज़ाहिल औरत ने। हम निरीह बच्चियों की ओर देखे बिना ही चले गये थे फिर वो।
….वह दिन…वह समय, जब-जब स्मृतियों में कौंधता था पहले, हर बार मन में नफ़रत, गुस्से और दुःख की लहरें उठने लगती थीं। बहुत देर तक मन अशान्त रहता था। पुरुषों के लिए एक अज़ीब सी चिढ़ वाली कुंठा लेकर बड़ी हुई थीं

हम भ्रातृ-पितृविहीन तीनों बहनें, लेकिन देबाशीष के परिवार के हमारे घर-परिवार में शामिल होते ही सबकुछ बदल गया था। उसके धीर-गम्भीर पिता जिन्हें अब हम बहनें भी बाबा कह कर पुकारती हैं, उन्होंने हम सबके जीवन में एक आदर्श पितृपुरुष की जगह भर दी है और देबाशीष ने पूरी तरह से एक आदर्श भाई की। मेरी माँ बाबा को भाईसाहब कहती हैं

और वे दोनों पति-पत्नी माँ को ‘दीदी-मोनी’…बड़ी बहन के लिए बांग्ला में प्यार का, आदर का सम्बोधन। जिन नेह-पगे आत्मीय नातों के लिए हमारा मन बचपन से तरसता आया था, अब पूरी तरह से तृप्त होकर सभी के लिए संवेदना और प्रेम से छलकता रहता है।
देबाशीष की माँ कभी-कभी कहती हैं____
“एक बेटी छीनी ऊपर वाले ने पर तीन-तीन बहुत प्यारी बेटियों से मेरी झोली भर दी है उसने। दीपान्विता के ऐसे असमय चले जाने का दुःख तो बहुत है और वह तो अपने जिगर के टुकड़े के लिए अन्तिम साँस तक रहेगा…लेकिन अब ऊपर वाले से शिक़ायतें नहीं रहीं।”
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स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़

 

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