**विश्वास और घात***** –    बालेश्वर गुप्ता

 अंकल अंकल – – ये रही आपकी अदरक वाली चाय और साथ में भुजिया.

    टीवी देखते देखते मैंने चौंक कर चाय का कप हाथ में लिया और घड़ी की ओर देखा, उसमे पूरे 4 बज रहे थे.

        असल में अभी एक माह पूर्व ही हमारे यहाँ नई नौकरानी आयी थी, नाम था मनीषा. एक माह में ही उसने पूरा घर सम्भाल लिया था. पूरे समय यानि 24 घंटों के लिये हमने उसे एक एजेंसी की मार्फत रखा था. रात्रि को भी वो हमारे घर में ही सोती थी. पुराना अनुभव अच्छा नही था सो मनीषा को भी हमने अन मने रूप में ही स्वीकार किया था. बस ये सोच रहती थी जितने दिन टिक जाये अच्छा है. आधुनिक युग में सबके बिना काम चल सकता है लेकिन नौकरानी के बिना नहीं.

      पर मनीषा ने तो कमाल ही कर दिया, एक सप्ताह में ही उसे रसोई से लेकर घर के प्रत्येक सदस्य की हर वस्तुओं की जानकारी उसे हो गयी थी. कौनसी चीज़ कहाँ रखी है, उसे पता होता था और बिना आलस्य तुरंत दौड़ दौड़ कर सब के कार्य की पूर्ति वो करती. किसको क्या पसंद है और कौन कब क्या खाएगा, उसे जानकारी होती और वो उसी अनुरूप करती. मैं सायं 4 बजे भुजिया के साथ आधा कप चाय पीता हूँ तो क्या मजाल जो 4 बजे से ऊपर 5 मिनट भी हो जाये. ठीक चार बजे अंकल आपकी चाय की आवाज कानो में पड़ जाती. सच में बोली में जैसे शहद घुला हो.

     एक बार मुझसे रुका नहीं गया और उसे पास बुलाया वो सकुचाते हुए आयी, उसे लगा होगा कि उससे कोई गलती हो गयी है. जैसे ही वो मेरे पास आयी मैंने उसके सिर पर हाथ फिरा कर उसे मौन आशिर्वाद दिया. हमारे कोई बेटी नहीं है ना, उस को देखकर नौकरानी वाली भावना मन में आती ही नही थी. मेरी पत्नि भी कहती कि मनीषा तो बेटी की तरह ही रहती है.

     उसके पिता भी हमारे शहर मे ही रहते थे, एक डेढ़ माह में बस वो केवल एक बार अपने घर सुबह से शाम तक के लिए गयी.

       घर के हर सदस्य को मनीषा की आदत बन गयी, सब की जरूरत का ध्यान जो रखती. मेरा छोटा बेटा भी आया हुआ था, वो भी बोला पापा ये मनीषा तो कमाल की है, जैसे मशीन, और व्यवहार ऐसा शालीन.


           लेकिन इन्हीं दिनों घर में एक अनचाही अविश्वसनीय बात होने लगी. एक एक करके घर के सभी सदस्यों के पर्स से रुपये गायब होने लगे. 1000-500 का तो कोई जिक्र ही नहीं कर रहा था, पर एक दिन तो एक स्मार्ट वाच जो 25000 रुपये की कीमत की थी, वो गायब हो गयी. मैं बोला भई जरूर इधर उधर रख दी होगी, लापरवाही की भी हद होती है. सब इधर उधर ढूढ़ने लगे, पर घड़ी नहीं मिली, तभी मेरा छोटा बेटा बोला पापा मैंने तो कहा नही पर मेरे पर्स से तो 15000 रुपये गायब है. हम सब सन्नाटे में आ गये. मनीषा को छोड़ और तो कोई बाहरी था नहीं, कोई बाहर से आया भी नहीं, तो तो क्या मनीषा?? किसी का भी मन यह स्वीकार करने को नही था. फिर वो घर से बाहर भी नहीं जाती तो यदि उसने चोरी की भी होगी तो घड़ी और रुपये अभी तक तो घर में ही रखे गये होंगे. मनीषा पर विश्वास इतना था कि कोई भी उससे सीधा पूछने से भी कतरा रहा था. निश्चय हुआ कि उसके सोने के बाद अपने ही घर की तलाशी ली जाये. है पर कुछ हाथ ना आया, उसका बैग भी देखा गया उसमे भी कुछ नहीं मिला.

       लेकिन चोरी तो हुई है, फिर रुपये और घड़ी आदि को धरती लील गयी. मनीषा से पूछने की हिम्मत किसी की नहीं हो रहीं थी. कुशल व्यवहार कैसा बेबस बना देता है. आखिर में हमने गुप्त कैमरा लगाने का निर्णय लिया. मेरा बड़ा बेटा तुरंत एक कैमरा खरीद लाया और अपनी अलमारी के पास लगा दिया. दो घंटे में ही रिज़ल्ट आ गया, कैमरे की मेमोरी से मनीषा का पर्स आलमारी से निकालना और बाथरूम में ले जाना और वापस उसी स्थान पर पर्स रख देना, सब कैमरे में कैद हो चुका था.

           ये शायद दुनिया का पहला अजूबा होगा जहां किसी को चोर पकड़े जाने की खुशी नहीं थी, सब के चेहरों पर अविश्वसनीयता के भाव थे, पर सत्य तो सामने था. हम मनीषा को सोसाइटी के क्लब में लेकर आये और एक पुरुष और एक महिला गार्ड की उपस्थिति में मनीषा से पूछताछ की. मैंने बस उससे यही कहा मनीषा हमने तो तुझे अपनी बेटी माना था फिर तूने ऐसा क्यों किया?

       मनीषा ने घर में ही छुपाई घड़ी और 40000 रुपये सबके सामने निकाल कर दिये. हमने उसे पुलिस को नहीं दिया, बस तभी उसे घर से विदा कर दिया.

        इस घटना को चार माह बीत गये हैं, याद आने पर यह समझ ही आता, उसने ऐसा क्यों किया और हमे क्या करना चाहिये था? यह मनीषा का विश्वासघात था या उसका धंधा?

              बालेश्वर गुप्ता

                           पुणे (महाराष्ट्र)

मौलिक, अप्रकाशित तथा सत्य घटना पर आधारित.

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