सुधा विद्यालय की सीनियर टीचर थी।सोशल पढ़ाते समय समाज और संस्कृति को जोड़ देती थी।बच्चों को सिलेबस की पढ़ाई के साथ-साथ,मानवीय मूल्यों की शिक्षा देना आज के वर्तमान परिपेक्ष्य में नितांत आवश्यक हो गया है। अलग-अलग प्रेरणादायक कहानियों, कविताओं व धार्मिक संस्करणों के माध्यम से,पढ़ाना सुधा को बहुत रोमांचित करता था।वैसे तो आजकल लोग अधिकतर यही कहते”
आजकल के बच्चे ,पढ़ते नहीं टाइम पास करतें हैं।इनको कुछ भी समझाना समय गंवाना है।”सुधा इस बात से कभी सहमत ही नहीं हुई।वह कहती”बच्चों में आए बदलाव के प्रमुख कारणों में से एक पालक और दूसरे शिक्षक भी हैं।हमें हमारा कर्तव्य करते रहना होगा।”यह तर्क हर समय कारगर साबित नहीं होता होगा उनके लिए,पर सुधा को भरोसा रहा सदा।बदलाव जरूर आएगा।
इसी पहल में नौंवी की एक कक्षा में, भगवान पर विश्वास और भरोसा रखने में अंतर क्या है, उदाहरण देकर समझा रही थी।बच्चे ठीक से समझ नहीं पा रहे थे।पीरियड खत्म हो गया,सुधा को क्लास छोड़नी पड़ी।घर आकर भी मन बहुत बेचैन था।आख़िर सही उदाहरण क्यों नहीं दे पा रही थी?इतने में बेटी का फोन आया।सुधा ने झट अपनी बेटी से पूछा”मम्मा,जल्दी से “ट्रस्ट,बिलीफ और फेथ में अंतर समझाने वाला एक प्रासंगिक उदाहरण बता
तो।”सुधा की बेटी वास्तव में,उसकी प्रेरणा थी।बुरे समय में धीरज रखते हुए,भावनाओं पर संयम रखना उससे ही सीखा था सुधा ने।उसने भी एक चमत्कारिक उदाहरण दिया”मम्मी देखो,जैसे हम अपने दोस्तों पर ट्रस्ट करतें हैं,कि वे हमेशा हमारा साथ देंगे,वो देंगे या नहीं कोई निश्चित नहीं।हमें अपने भाई -बहन पर विश्वास है कि वो मुसीबत में हमारा साथ जरूर देंगे,वो दे भी सकतें हैं और नहीं भी।हमें अपने माता-पिता पर भरोसा होता हैं,कि वो हमेशा हमारा साथ देंगे,और वो देखें भी हैं।”
सुधा अवाक रह गई।बेटी ने इतनी अच्छी तरह समझाया कि वह मुग्ध हो गई।अगले दिन फिर से क्लास में बेटी के द्वारा बताया उदाहरण जब समझाया,बच्चे ताली बजाने लगे।
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लंच ब्रेक में अपनी कोट की जेब से रोज़ कुछ टॉफियां देती थी सुधा,छोटी क्लास के बच्चों को।बच्चे भी पूरे अधिकार से मांगते”मिस,टॉफी????”बड़े बच्चे अक्सर उन्हें टॉफी देते हुए देखते तो कहते”आप हमें तो नहीं देतीं टॉफी।क्या हम आपके प्यारे नहीं?”सुधा भी उन्हें समझाती”नहीं तुम सब मेरे प्यारे हो।ये जो छोटे बच्चे हैं ना,
अभी मासूम हैं।धूप में बड़े विश्वास से जब मांगते हैं टॉफी,उन्हें निराश करना अच्छा नहीं लगता।मुझे तो तुम सब प्यारे हो,पर सबको टॉफी कहां दे पाऊंगी मैं?जब तुम लोग कुछ अच्छा करना,हक से मांगना मुझसे।तुम लोगों के मन में विश्वास की कमी है,पता नहीं देंगीं मिस या नहीं।”
बच्चे निरुत्तर हो जाते।आज उसी नौवीं की कक्षा में जब सिविक्स पढ़ा रही थी,तब एक चौथी क्लास का बच्चा हांथ में पालीथीन का पैकेट लिए आया ,और बोला”मिस ,ये तीजा की गुझिया आपके लिए।”सुधा ने कुछ कहा नहीं,बस पैकेट को देखा।उसमें चार गुझिया रखें हुए थे।यह वही बच्चा था,जिसका पिछले साल खेलते हुए हांथ टूट गया था।लंच ब्रेक में हाथ में प्लास्टर देखकर बस पूछा था सुधा ने”कैसे टूटा हांथ तुम्हारा?”उसने दर्द में भी मुस्कुराते हुए कहा था”फुटबॉल खेल रहा था”।अगले दिन उसकी बहन जो शायद सातवीं में थी,
आकर बोली”मिस भाई आपको बहुत याद करता है। डॉक्टर ने कहा है कुछ दिन घर पर रहने को।वह छटपटाए जा रहा है कि मिस से नहीं मिल पाएगा।मम्मी ने कहा है आप उसे जरा समझाइयेगा फोन पर।”सुधा ने घर का नंबर ले लिया उससे।शाम को फोन लगाया”कैसे हो बेटा?ज्यादा दर्द तो नहीं है ना? मैंने डॉक्टर से पूछा तो बताया उन्होंने कि तुम्हें कुछ दिन घर पर रहकर आराम करना पड़ेगा।स्कूल में अगर धक्का लग गया तो और नुकसान हो सकता है।तुम चिंता मत करना।जल्दी ठीक हो जाओगे।”बड़ा खुश होकर बोला था
वह”आप आएंगी घर ?”सुधा ने बोला तो था हां,पर जा नहीं पाई थी।रोज एक बार फोन में बात कर लेती थी।पंद्रह दिनों के बाद वही लड़का अपनी मम्मी के साथ आ रहा था स्कूल।उसने मम्मी से सुधा का परिचय करवाया,तो वे बोलीं”आपके फोन ने जादू किया है मिस।आपकी सारी बातें सुनता है।मैंने कॉपी सभी कंप्लीट कर दी हैं।थोड़ा ध्यान रखिएगा इसका।बहुत चंचल है।”सुधा को खुद ही आत्मग्लानि हुई कि बच्चे के घर नहीं जा पाई।तब से कभी सुधा उसे टॉफी देती थी और कभी वह सुधा के हांथ में टॉफी,या एक बिस्कुट,कभी -कभार दो चार चिप्स पकड़ा के चला जाता था।
आज वही गुझिया देने आया था क्लास में।उसके जाते ही नौंवी कक्षा के छात्रों ने कहा”हम समझ गए मिस विश्वास और भरोसे में अंतर।”सुधा भी सुख के सागर में गोता लगाने लगी।अच्छे प्रयास,प्रमाण नहीं मांगते,प्रमाणित होतें हैं।वह कभी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ेगी।हो सकता है औरों को यह अप्रमाणिक लगे,पर सुधा का भरोसा स्वयं सिद्ध हुआ था आज।
शुभ्रा बैनर्जी