ऊँची दीवारों का दर्द-  सुनीता मिश्रा

चतुर्थी का चाँद आसमान पर था।हल्का उजास ज़मीन पर छितरा हुआ था। रात आधी बीत चुकी थी।हवेली के सामने पहुँचकर उसने घोड़े की लगाम खींची ।हवेली के बाहर चारों ओर से उँची दीवारों का परकोटा बना हुआ था।घोड़े से उतर कर लगाम हाथ में पकड़े हुए वो हवेली की ओर कुछ समय तक टकटकी बाँधे देखता रहा।फिर हवेली से थोड़ी दूरी पर ,बरगद के पेड़ से घोड़े की लगाम बाँध दी,खुद पेड़ के नीचे अपनी आँखें मूँद कर बैठ गया। अतीत का एक-एक पल आँखों में उतर आया।

“कौन है तू,इस गाँव में तो तुझे कभी देखा नहीं ।” खनकती सी हँसी गूँज गई ,नदी से,घड़े में पानी भर कर ,सिर पर रखते हुए बोली,”परले गाँव के जमींदार की छोरी हूँ ।मुझे नहीं जानता?सात भाईयों की अकेली बहिन।अब तू मेरा नाम पूछेगा–है न?कुन्ती है मेरा नाम।” होगी उमर कोई तेरह चौदह साल की। ठसक देखो–जैसे दुनियाँ के सारे गाँव उसके पिता और भाई के हों। “तेरे गाँव में नदी,ताल नहीं हैं क्या?पानी भरने यहाँ आई?” “पानी भरे मेरी जुत्ती।मैं तो हवा खोरी करने निकली हूँ।” कहते हुए वो अपूर्व सुन्दरी,अपने गाँव की ओर चल पड़ी। वो ठगा सा उसे जाते हुए देखता रहा। वो अपने दूर दूर तक फैले ईख के खेतों को देख रहा था।

ईख की फसल लहलहा रही थी।सूरज क्षितिज मे मुँह छुपा रहा था,और दूसरी तरफ मेड़ की उँचाई से वही सलोना चेहरा ऊपर उठ रहा था।हाथ में पकड़े सरकंडे को अपने दाँतों से छीलती हुई।उसे देखकर वो भागी नहीं,जोर से खिलखिलाई।बोली,”तेरा खेत है? —बड़े मीठे हैं सरकंडे।”रस चूस कर फोकल छिलका बाहर थूक दिया उसने । आराम से मेड़ पर बैठ गई ।वो गन्ना चूस रही थी,और उसका रूप अपनी आंखों में वह भर रहा था वो ।दोनों चुप थे। थोड़ी बाद वो बोली “तेरा घोड़ा तो बड़ा बाँका है।तुझे घुड़सवारी करना अच्छा लगता है?” “हाँ,मेरे बापू ने सिखाया ।कभी कभी इस पर बैठ मैं दूर जंगल की तरफ निकल जाता हूँ ।”




“डर नहीं लगता तेरे को?” “किससे? घुड़सवारी से?” “नहीं, जंगल में,कहीं शेर ,भालू मिल जाय तो?” “अभी तक तो कोई शेर,भालू नहीं मिला जंगल में ।हाँ,गाँव में ही शेरनी मिल गई एक।” वो खिलखिला के हँस पड़ी। फिर तो कभी नदी किनारे,कभी छोटी पहाड़ी की ओर,कभी बगिया में मिलना होता रहा। उस दिन अमराई के बागीचे में उसने पूछा, “तेरी उमर कितनी है?” “क्यों ब्याह करना है क्या मुझ्से?”वो बोला। सुनकर जोर से हँसी,पेट दबा कर हँसी,लोट-पोट हो गई हँसते- हँसते।हँसी जब थोड़ी रुकी तो बोली,”मेरा तो ब्याह गया पिछले बरस।देखो,मेरे पैर में बिछिया,गले में काली माला हैन।— ससुराल नहीं भेजा बाबा ने अभी।आते बैसाख में गौना होगा।—डॉक्टर की पढ़ाई कर रहा है वो।–अच्छा तुम कित्ते बरस के हो—तुमाई शादी हो गई?” “मेरी शादी नई हुई ।

उन्नीस साल का हूँ अभी मैं।मेरे बापू कहतें हैं कि मुझे अभी बहुत पढ़ना है। तू स्कूल नहीं जाती पढ़ने?” “नई,बाबा कहतें हैं,लड़कियों को घर गिरस्ती का काम आना चाहिये । पढ़ लिख कर कौन नौकरी करनी है।पर हम छ जमात तक पढ़े हैं।—अच्छा तू मुझे इतने बार मिला,अपना नाम तो बताया नहीं।” “तूने पूछा कब?” “हाँ,ये तो है,—-चल अब बता दे।” “मेरा नाम मीत है। ” “मीत,मतलब,दोस्त।सच्ची तू मेरा मीत है।तेरा साथ मुझे बहुत अच्छा लगता है।लगता है तू हमेशा मेरे साथ रहे।” “बैसाख में तेरा गौना हो जायेगा ,तू अपने ससुराल चली जायेगी।तब भूल जायेगी मुझे।” “ससुराल की बात न कर।रोना आता है।अम्माँ,बाबा,भैया ,दादी सब छूट जायेंगे।तू भी नहीं मिलेगा।”उसकी मोटी मोटी आँखें आँसुओं के सैलाब में डूब गई । व्याकुल हो गया था वो भी। खबर मिली,उसके गाँव के ही आदमी नें दी।बापू से कह रहा था–परले गाँव के जमींदार की छोरी है न,जिसका आते बैसाख मे गौना करना था।जमींदार के उसी डॉक्टर जमाई का एक्सीडेंट हो गया,वो नहीं रहा। अतीत को दुहराते हुए जाने कब उसकी आँख लग गई ।

अचानक जागा तो वो बिंदास,अपूर्व सुंदरी,हँसती खिलखिलाती,मस्त, अलहड़ किशोरी,बग्घी की ओर चुपचाप कदम बढ़ा रही थी।साथ चल रहे थे,उसके बाबा,माँ,दादी,सातों भाई और परिजन ,ताकि वो अपने पति का प्रथम-अन्तिम दर्शन कर सके । दूर खड़ा था उसका मीत ।उसे विदा करने के लिये। फिर बहुत बार उसने परले गाँव के चक्कर लगाये,कुंती शायद लौट आई हो।भटकता रहा,खेतों की मेड़ों पर,नदी के छोर पर,छोटी पहाड़ी की तरफ,बगिया की ओर। समय से बड़ा कोई डॉक्टर नहीं ।गहरे से गहरे घाव वो भर देता है।




और ये जो जिन्दगी है न,किसी के लिये नहीं रुकती,समय का सच्चा साथ निभाती है।मीत के घाव भी भरने लगे,धीरे-धीरे।शहर चला गया,आगे पढ़ाई के लिये ।सिविल इन्जियरिंग की।सरकारी नौकरी लगी।विवाह हुआ।सुन्दर सुघड़,पढ़ी लिखी,मिताली, पत्नी के रूप में उसके जीवन में आई।मिताली ,प्रायवेट कंपनी में कार्यरत। जब तक माँ बापू थे,वो अपने परिवार के साथ साल में एक चक्कर गाँव का लगा लेता था।बाद में खेत,घर भाइयों में बँट गये ।घर को बाँध रखने की धुरी, माँ-बापू के ना रहने के बाद सब टुकड़ों में बट गया।उसका प्यारा घोड़ा,परले गाँव, धीरे-धीरे सब छूट गये। स्मृतियाँ कभी भी स्थायी नहीं रहतीं।अवचेतना में छिप जाती है।वर्तमान जिंदगी पर हावी हो जाता। परिवार की जुम्मेदारी,सुख-दुख,हारी-बीमारी,इन सबके बीच यादों को दुहराने का समय कहाँ बचता है।

दिसम्बर की गुनगुनी धूप,इतवार का दिन वो अपने घर के बाहर छोटे से बगीचे में आराम कुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ रहा था।बेटी,क्रिसमस की छुट्टियों पर सहेलियों के साथ कॉलेज की ट्रिप पर गई थी। वहीं से उसने पत्नी को चाय लाने के लिये आवाज देकर अखबार परअपनी नज़रे घुमा दी।रविवारीय परिशिष्ट पर एक आलेख ने उसे आकर्षित किया”मन के जीते जीत” बड़ी सधी बुनावट के साथ ,अपने संस्मरणों को जोड़ते हुए,सुघड़ शिल्प,आत्मीय शैली में, जिजीविषा को दर्शाते हुए ,लिखा लेख वो बिना रुके पढ़ता गया। पत्नी चाय लेकर आई,वहीं पास कुर्सी में वो भी बैठ गई। “क्या पढ़ रहे थे आप?”उसने मीत से पूछा “बहुत सुन्दर लेख है।हारे हुए किसी भी मन को संबल देता हुआ।लगता है इसे लिखने वाले ने अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति परिचय दिया है ।”

“किसका लिखा है।” “ओह,नाम तो मैने देखा ही नहीं ।”अखबार देखते हुए बोला,”श्रीमती कुंती सहाय।” “ये तो अपनी गुड़िया के कॉलेज की प्राचार्य हैं।मैं मिली हूँ इनसे।अपने गाँव से लगा कोई परले गाँव है,वहाँ के जमींदार की लड़की हैं। बहुत विदुषी महिला हैं।प्रभावशाली व्यक्तित्व है।मैने इनके बारे में सुना।बहुत छोटी उमर में इनका विवाह हुआ।एम बी बी एस की पढ़ाई कर रहे थे,इनके पति और तभी सड़क दुर्घटना में नहीं रहे।सास-ससुर ने इन्हें पढ़ाया,शिक्षा पूरी कारवाई ।वे तो इनका दूसरा विवाह कर कन्यादान करना चाहते थे।पर कुंती जी इसके लिये राजी नहीं हुई।अपने माँ-पिता सम सास-ससुर के साथ रहीं। एक बेटी है,अपनी गुड़िया से थोड़ी छोटी है।सुना अनाथ आश्रम से गोद ली थी।—अरे चाय ठंडी हो गई,लाओ मैं गरम कर लाऊँ ।”कहती हुई मिताली चाय की ट्रे उठा कर घर के अंदर चली गई। “बाबा कहते हैं,पढ़ लिख कर लड़कियों को नौकरी थोड़ी न करनी है।”वो अल्हड़,बिंदास मस्तमौला लड़की मन को जीत कर जिंदगी की जंग जीत गई। सुनीता मिश्रा भोपाल

# दर्द

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