उम्मीद का दामन – निभा राजीव “निर्वी”

अपने आठ माह के बच्चे को गोद में लिए कमली ने एक बार फिर अपने खेतों को विवश आंखों से निहारा। बारिश के अभाव में शुष्क होकर मानो धरती का सीना फट गया था। जगह-जगह दरारें फटी हुई थी। कमली को ऐसा लगा मानो वे दरारें जमीन के साथ-साथ आंतों में भी पैठकर आंतों को दरका रही हैं। उसकी आंखों में आंसू झिलमिला गए। आज फिर उसका पति रघु काम की तलाश में शहर की ओर गया था ताकि अपने और अपने परिवार की पेट की आग को बुझाने के लिए कुछ रकम का प्रबंध कर सके। अब तो शाम होने जा रही थी। कमली ने बच्चे को जमीन पर बिठा दिया और जल्दी-जल्दी सूखी लकड़ियां बटोरने लगी कि कहीं रघु आ गया और खाने-पीने के कुछ सामान प्रबंध हुआ हो तो वह चूल्हा जला सकेगी।

               सिर पर लकड़ियों का गट्ठर और गोद में बच्चा संभाले वह घर आ गई। बच्चा भूख के मारे बिलख बिलख कर रो रहा था। लकड़ियों को चूल्हे के पास रखकर वह अपने बच्चे को छाती से लगाकर दूध पिलाने का प्रयत्न करने लगी परंतु दूध का सोता भी मानो जमीन की तरह ही शुष्क होकर मरू हो गया था। बच्चा भूख के मारे बिलखे जा रहा था। लाचार होकर वह उठी और घर मैं कुछ खाने के लिए ढूंढने लगी ताकि कुछ भी खिला कर कम से कम बच्चे की क्षुधा तत्काल शांत कर सके।….. तभी एक डब्बे में एक छोटी सी गुड़ की धेली उसे मिल गई। उसने हाथ में गुड़ उठाया फिर कुछ सोच कर आधा गुड़ तोड़ कर वापस डब्बे में रख दिया। ताकि एक बार और काम में आ सके। उसने गुड़ को पीसा और पानी में मिलाया और धीरे-धीरे कटोरे से बच्चे को पिलाने लगी। गुड़ पीकर बच्चा थोड़ा शांत हो गया और धीरे-धीरे सो गया। कमली ने सावधानीपूर्वक बच्चे को बिस्तर पर लिटा दिया और खुद चौखट पर बैठकर पति की राह ताकने लगी।



           तभी दूर से रघु आता दिखाई दिया। उसके अशोथकित कदमों को देखकर ही वह समझ गई कि रघु को आज भी काम नहीं मिला है। शुष्क होठों पर जीभ फिराता हुआ रघु भी आकर वहीं चौखट से लग कर बैठ गया। कमली ने लोटे में पानी ला कर उसे थमाया । उसने लोटा कमली के हाथ से लेकर मुंह से लगा लिया, आंखों से दो बूंद आंसू ढुलक कर उसी लोटे में जा गिरे। पानी के साथ साथ में वह आंसू और सारा दर्द भी गटकने के प्रयास करने लगा।

             रात हो चली थी। रघु आंगन में लेटा तारों भरे आसमान को निहार रहा था। उसकी आंखों में नींद कहां …….उसे अपना जीवन भी इसी काली रात की तरह अंधकारमय लग रहा था। कहीं से उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी। तभी उसकी दृष्टि कोने में खड़े बैलों के युग्म पर पड़ी। गहरी सांस लेकर उस ने विवशता पूर्वक निर्णय लिया कि कल वह इन बैलों को बेच देगा ताकि कुछ दिनों के लिए अपने परिवार के लिए दो जून रोटी का प्रबंध कर सके। मानो मूक बैल भी उसके मन की बात समझ गए और आंखों में ढेर सारी करुणा भरकर उसकी ओर ताक रहे थे। रघु ने अपने आर्द्र आंखों को मूंद लिया। तभी कमली भी वहां आ गई और उसके बगल में बैठ गई उसने रघु को ढांढस बांधते हुए कहा,”- निराश ना हो जी, ईश्वर ने चाहा तो हमारे भी अच्छे दिन आएंगे।”

       “- क्या अच्छे दिन आएंगे कमली! मुझे तो कहीं काम भी नहीं मिल रहा और ना ही इस साल बारिश का नामोनिशान है! कुछ समझ नहीं आ रहा क्या करूं। मुन्ने को कैसे पालें! मैंने तो अब यही सोचा है कि इन बैलों को कल बेच दूंगा। अब यही एक अंतिम आस बच गई है।” रघु ने निराश स्वर में कहा।



      ” तुम हिम्मत मत हारो जी। कुछ ना कुछ रास्ता जरूर निकल आएगा। भगवान के घर देर है अंधेर नहीं !रुको मैं अभी आई।” कहकर कमली उठकर अंदर चली गई। कुछ देर बाद वह बाहर आई तो उसके हाथ में उसकी चांदी की हंसली और पायल थी। उन्हें रघु को थमाते हुए उसने आशा भरे स्वर में कहा, “- यह लो, इन्हें गिरवी रख दो।एक-दो दिन खाने का इंतजाम तो हो ही जाएगा। तब तक शायद तुम्हें कुछ काम भी मिल जाए। थोड़ी मेहनत मजदूरी मैं भी कर लूंगी।” कमली ने मुस्कुराने का प्रयत्न किया।

रघु ने मना करने का प्रयत्न किया परंतु शब्द घुटकर कंठ में ही रह गए। उसने कांपते हाथों से वे जेवर कमली के हाथों से ले लिए।

“- अरे वह देखो…” अचानक कमली पुलक उठी।

“ऐसा लग रहा है जैसे आसमान के कोने में कुछ बादल दिखाई दे रहे हैं। जल्दी ही बारिश होगी। तुम उम्मीद का दामन मत छोड़ो जी! हम दोनों एक साथ है ना, एक दूसरे की उम्मीद बनकर। बुरा वक्त भी काट ही लेंगे साथ मिलकर, उम्मीद की नई किरण जरूर आएगी।” कमली ने बगल में लेेटते हुए रघु के सीने पर हाथ रखकर कहा और कोने में बने हुए चूल्हे और उसके पास चुन कर रखी हुई लकड़ियों का गट्ठर की ओर देखने लगी, मन में यह उम्मीद भरकर कि शायद कल इन्हें वह जला पाएगी।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी धनबाद झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

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