उम्मीद – माता प्रसाद दुबे

बारिश थम चुकी थी..रामू बहुत खुश था..”अरे मुन्नी बिटिया!बीज वाला थैला लेकर जल्दी आओ?”रामू ने अपनी छोटी बेटी मुन्नी को आवाज दी।”अभी लाती हूं बाबू! मुन्नी बीज वाला थैला रामू के हाथ में थमाते हुए बोली।”बाबू मुझे भी ले चलो अपने साथ?”मुन्नी उछलते हुए बोली।”अच्छा चल बिटिया! रामू मुन्नी को साथ लेकर अपने खेत की तरफ चल पड़ा।

 

रामू गरीब किसान था..उसे लाला का पांच हजार रुपए का कर्ज भी चुकाना था..वह टमाटर, मिर्च, बैंगन,धनिया,व अन्य हरी सब्जियों के बीज लेकर आया था..जिसकी फसल बरसात के मौसम के बाद बहुत जल्द तैयार हो जाती थी। उसे उम्मीद ही नहीं पूरा भरोसा था..कि वह कुछ महीनों में सब्जियां उगाकर उसे बेचकर लाला का कर्ज अदा कर देगा।

 

बारिश अच्छी होने के कारण खेत की मिट्टी गीली थी।”मुन्नी बिटिया! तुम किनारे की तरफ बीज छिड़को?”मैं बीच में मेड़ बनाकर बीज लगाता हूं?”रामू छुटकी को समझाते हुए बोला।”ठीक है बाबू! कहकर मुन्नी रामू के साथ बीजों की रोपाई करने  लगी।

शाम हो चुकी थी..रामू और मुन्नी ने मिलकर पूरे खेत में बीज की बुवाई पूरी कर ली थी।”चलो मुन्नी बिटिया!अब घर चलते हैं?”रामू मुन्नी से बोला। दोनों बाप-बेटी खेतों में काम पूरा करके अपने घर की ओर निकल पड़े।

 

एक महीने बाद रामू खुशी से झूम यहां था। उसके खेतों पर जमकर हरियाली छाई हुई थी। टमाटर,बैंगन,मिर्च,धनिया,व अन्य हरी सब्जियों के पौधों से उसका पूरा खेत भरा हुआ था।

भादों माह का आखिरी दिन था। आसमान पर काले बादल छाए हुए थे। दिन ढलते ही जोरदार बारिश होने लगी..तीन दिन बीत चुके थे..बारिश रौद्र रुप धारण कर चुकी थी..चारों तरफ बस..पानी ही पानी नजर आ रहा था।

 

रात के बारह बजे थे..रामू परेशान था..उसकी आंखों से नींद गायब थी..उसे अपनी सब्जी की फसल की चिंता हो रही थी..जिस पर उसकी सारी उम्मीदें कायम थी।”रामू भाई! दरवाजा खोलो?”दरवाजा घटघटाते हुए हरिया ने आवाज लगाई।”क्या हुआ हरिया!रामू कुंडी खोलते हुए बोला।”रामू भाई!नदी में बाढ़ आ गई है..हम लोगों के खेत,खलिहान,सब पानी में डूब चुके है..नदी का पानी बढ़ता ही जा रहा है?” कहकर हरिया हांफने लगा। “हे भगवान! कहकर रामू अपना सिर पकड़कर बैठ गया..उसका शरीर अंजाने भय से कांप रहा था।

 

सुबह का उजाला अंधेरे को चीरकर धीरे-धीरे फैल रहा था.. बारिश थम चुकी थी..नदी का पानी गांव में पहुंच चुका था। रामू एकटक दूर से अपने खेतों की तरफ देख रहा था..जहां नदी का पानी हिलोरें मार रहा था..उसकी सारी उम्मीदें बाढ़ के विकराल रूप में ध्वस्त हो चुकी थी..अपनी उम्मीदों को पानी में बहता हुआ देखकर वह आंसू बहा रहा था।

#उम्मीद 

माता प्रसाद दुबे

मौलिक स्वरचित लखनऊ

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