“तितलिया”-पूनम वर्मा

एक दिन रजनी अपनी चार साल की बेटी काव्या को डांट रही थी । मैंने कारण पूछा तो उसने कहा,  “काव्या अपने स्कूल में कुछ बोलती नहीं । और बोलेगी भी कैसे ? इसे तो सिर्फ भोजपुरी आती है । हिंदी तो बोलती ही नहीं ।”

“तो क्या हुआ ? बच्चे को अपनी मातृभाषा का ज्ञान तो होना ही चाहिए । तुम्हें तो गर्व होना चाहिये ” मैंने कहा ।

‘वो तो ठीक है ! लेकिन इसकी बराबरी के सभी बच्चे तो हिंदी बोलते हैं न ?” रजनी ने शिकायत के लहजे में कहा ।

“अच्छा भई, हमारी काव्या भी बोलेगी और हिंदी ही नहीं बहुत सारी भाषाएँ बोलेगी । जो इतनी छोटी उम्र में इतनी वाकपटु है, उसे कम न समझो ।” “बोलेगी न बेटा ?” कहते हुए मैं काव्या को पुचकारा ।

काव्या धीरे-से मुस्कराई और मुझसे आकर लिपट गई । काव्या से बात करते हुए मुझे उसे हिंदी सिखाने की एक तरकीब सूझी ।

मैंने रजनी से कहा –

“ऐसा करो इसे हिंदी और अंग्रेजी की कविता और कहानियों की किताब ला दो और उसे पढ़ाओ और सुनाने को कहो । शायद इससे कहीं सीख जाए ।”

हमदोनों की बातें वहीं बैठी काव्या भी सुन रही थी । उसने झट से कहा ” हमला लगे बा किताब, हम ली आबतानी।”


और दौड़ कर गई, एक बालगीत की किताब लाकर मुझे थमाया । मैंने तत्काल ही अपनी तरकीब को प्रयोग में बदलने की सोची ।

मैंने पहली कविता ही निकाली “तितली रानी” और पूछा ” ये तितली वाली कविता याद है तुम्हें ? तो सुनाओ !”

उसने “ना” में सिर हिलाते हुए कहा “अभी पढ़ले नइखी, तू पढ़ा द ।”

मैंने कविता को गाते हुए पढ़ा,

तितली रानी, तितली रानी, तुम कहाँ से आई हो ।

इतना सुंदर, इतना प्यारा, पंख कहाँ से लाई हो ।

वह थोड़ी देर चुप रही । फिर कहा ” एके हाली हतना पढाइबू । बाचा नू बानी, कमे-कमे पढ़ाब ।”

मैं उसकी तर्कशक्ति और भाषा दोनों पर अचंभित थी । मैंने उसके कथनानुसार इस बार एक पंक्ति ही पढ़ाया ।


“तितली रानी, तितली रानी, तुम कहाँ से आई हो !

इस बार भी काव्या चुप हो गई । मुझे मेरे प्रयोग की विफलता का अहसास होने लगा । लेकिन मैंने भी उम्मीद नहीं छोड़ी । मैंने उसे फिर टोका । “अभी तो मैंने एक लाइन ही पढ़ाया, अब तो सुनाओ ।”

“हबड़ात काहे बारु, सुनाबतानी नू ।”

वह थोड़ी देर चुप रही फिर कहा,

कहवाँ से आइल बारु, तितलिया तितलिया !!

अब रजनी मुझे देख रही थी और मैं उसे । और हम दोनों जोर-जोर से हँसने लगे, शायद अपने प्रयोग की विफलता पर, लेकिन हमें  आश्चर्य हो रहा था काव्या की काव्य कुशलता पर ।

हमदोनों का साथ देने के लिए काव्या भी हँसने लगी, शायद अपनी सफलता पर, और कहीं मातृभाषा प्रसन्न हो रही थी अपने अस्तित्व की  जीवन्तता पर ।

पूनम वर्मा

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