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थैंक यू  – अमित किशोर

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हमेशा की तरह ही अंजलि से मेरी बात हुई। अंजलि मेरी शान, मेरा गुरुर, मेरा सब कुछ थी। मेरी और मानसी की इकलौती औलाद। हम ने कभी इस बात की आपस में चर्चा तक नहीं की “अंजलि के जाने के बाद हम दोनों का क्या होगा !!!”

मानसी से जब कोई पूछता कि,”कभी दूसरी औलाद के बारे में क्यों नहीं सोचा ?” तो उसका अटपटा जवाब सुनकर मैं भी जोरों से हंसता। मानसी कहती, ” हमारे नवीन जी को खूबसूरती बहुत पसंद है। एक तो मैं खूबसूरत, और ऊपर वाले ने इतनी खूबसूरत बिटिया दी है कि और किसी चीज की क्या जरूरत !! फैमिली फोटो में दो दो खूबसूरती के बीच जब नवीन जी का दमकता चेहरा देखती हूं ना,बड़ा सुकून मिलता है। और सबसे बड़ी बात, मेरी फिगर भी मेंटेंड रहती है।” लोग सुनते, हंसते पर हम दोनों ने कभी परवाह नहीं की, पीठ पीछे क्या कहते थें वो सारे लोग।

बेटी को एक बेटे की तरह आजादी दी। अव्वल परवरिश की अंजलि की और अंजलि ने भी कभी हमें निराश नहीं किया।। स्कूल में तो पढ़ाई के झंडे गाड़े ही, मेडिकल में भी सेलेक्ट होकर पूरे जिले में नाम रोशन किया । रिश्तेदार तो कभी कभी ताना भी मारते कि, ” नवीन जी, बिटिया को इतना पढ़वाकर क्या करोगे, अगर कल को ढंग का लड़का नहीं मिला तो शादी कैसे होगी ?” और हम दोनों ऐसे दकियानूसी बातों को खिड़की से बाहर फेंकते रहते थें। समय के साथ अंजलि ने सिडनी में ज्वाइन किया और वहीं से मास्टर ऑफ सर्जरी की पढ़ाई भी पूरी करने लगी।




हम गर्व से फूले नहीं समाते। जहां जाते सबसे पहले यही चर्चा होती कि अंजलि के मम्मी पापा आए हुए हैं। उसी अंजलि के जो मेडिकल में स्टेट टॉपर थी। बहुत अच्छा लगता पर कमी भी खलती कि, काश !!! अंजलि हमारे साथ यहां हमारे देश में ही रहती। फिर ख्याल आता कि बेटी की तरक्की में अपनी भावनाओं को बाधक बनाकर सामने लाना अच्छे मां बाप की निशानी नहीं हो सकती थी। इसी उधेड़ बुन और चाहत में जिंदगी चलती जा रही थी हम दोनों की और अंजलि की जिंदगी दौड़ रही थी।

एक रोज सिडनी से अंजलि ने फोन किया। कहा, ” पापा, मुझे आने का तो बहुत मन करता है वापस, पर क्या करूं, जितने अच्छे मौके यहां सिडनी में हैं, वहां अपने इंडिया में नहीं। इतनी पढ़ाई कर, अगर यहां सेटेल हो जाऊं तो ये बेहतर ऑप्शन होगा। आप लोग भी यहीं आ जाए।”

“अब इस उम्र के इस पड़ाव में देश तो नहीं छूटेगा, बेटा। अगर तुमने फैसला किया है, तो मैं रोकूंगा नहीं तुम्हें। मैं और मानसी तो बस, तुम्हारी खुशी में ही अपनी खुशी ढूंढते आए हैं, अब तक। अपना सही गलत तुम सबसे बेहतर जानती हो, समझती हो। हमें खुशी है कि, तुमने हम दोनों को समय रहते बता दिया ये बात।”

पहली बार मुझे और मानसी को उस दिन एक और औलाद की कमी महसूस हुई। लगा जैसे एक और औलाद होती तो हम दोनों को ही सहारा मिल जाता। मानसी अपने खाली वक्त में एनजीओ में अपना समय देती रही थी। मैं अपने रिटायरमेंट के बाद अक्सर घर पर ही रहता और बागबानी किया करता। वक्त कट ही जाता था। एनजीओ में ही मानसी की मुलाकात रीमा से हुई। रीमा बारह तेरह साल की एक अनाथ लड़की थी। मां बचपन में ही छोड़ कर भगवान के पास जा चुकी थी और पिता ने जिम्मेवारियों से किनारा कर रीमा को अनाथाश्रम में छोड़ दिया था और पिता ने दुबारा कभी बेटी का मुंह नहीं देखा। मानसी अक्सर मुझसे रीमा की चर्चा करती और मैं भी एक बेटी के बाप की तरह उसकी चर्चाओं में हामी भरता रहता। सामान्य सा ही था सब कुछ। 




अंजलि के परमानेंट सेटल होने के ऐलान के बाद ही एक दिन मानसी रीमा को घर ले आई और बोली, ” आज से रीमा यहीं रहेगी, हमारे साथ।” मुझे ताज्जुब नहीं हुआ। मानसी के पिछले दिनों के हाव भाव से ही महसूस कर रहा था कि वो कुछ अनोखा, कुछ नया करने वाली थी। आखिर पिछले पैंतीस सालों से साथ थी मेरे वो। पर, मैं कहीं न कहीं अंजलि के रिएक्शन से डर रहा था। वो क्या समझेगी, वो क्या सोचेगी या फिर उसके मन पर क्या बीतेगी !!! मां बाप की तपस्या कहीं उसे जीवन का स्वार्थ न लगे। यही सोच सोचकर मेरा मन बैठा जा रहा था। 

मानसी ने मेरे मन की दुविधा समझ ली थी। खुद अंजलि को फोन किया और कहा, ” बेटा, तुम बिल्कुल परेशान न हो, हम दोनों के लिए। तुम्हारे पापा और मैं अब भी एक दूसरे का हाथ पकड़े पूरा एंजॉय कर रहे हैं। एक बात बतानी थी, तुमसे। जैसे तुमने हम दोनों को बताया न, ठीक वैसे ही। रीमा याद है तुम्हें ? वही जो मेरी संस्था में रहती थी और जिसके बारे में तुम्हें मैंने कई बार बताया भी होगा तुम्हें। तुम्हारे पापा और मैंने रीमा को गोद लेने का फैसला किया है। क्या है न बेटा, कभी कभी तुम्हारी बहुत याद आती है। कभी कभी एक दूसरे का हाथ थामे रहना भी काफी नहीं होता। तब मुझे तुम्हारा चेहरा याद आता है। अब तुम तो जिद पकड़े बैठी हो, हम दोनों को वहां बुलाने की, तो रीमा में ही अपनी अंजलि ढूंढ लिया करेंगे हम दोनों। देखो, रीमा भी रह रही है हम दोनों के साथ।”

अंजलि ने कुछ पल की चुप्पी साध ली, हम दोनों भी थोड़े टेंशन में आ गए।

” क्या मम्मा, आप तो मेरी बातों का बहुत बुरा मान गई। रीमा मुझे बहुत अच्छे से याद है। बहुत प्यारी है। आपको कब से मुझसे किसी बात की परमिशन लेने की जरूरत पड़ गई। आपने और पापा ने अगर सोचा है तो बेहतर ही सोचा होगा। आपने परवरिश की है मेरी। पापा ने मुझे केवल पढ़ाया लिखाया ही नहीं, एक अच्छे इंसान के रूप में भी गढ़ा है। मुझे तो खुद बहुत अफसोस है, और मैं उसी दिन से सोच रही हूं कि मैं आप दोनों के साथ गलत कर रही हूं। मुझे बहुत खुशी है आप दोनों के इस फैसले से। अंजलि सिडनी में रहे या अपने घर पर, आखिर रहेगी अपने मम्मा और पापा की ही बिटिया।”




मानसी ने बस “थैंक यू” कहा और फोन रख दिया।

अंजलि ने दुबारा कॉल बैक किया और मुझसे बात की। कहा, “आपने मेरे मन की परेशानी को एक बार फिर से सुलझा दिया पापा, यह बात मैं चाह कर भी कभी नहीं कह पाती आपसे। रीमा वाकई बहुत प्यारी है, आपकी बेटी अंजलि जैसी लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप और मम्मा नई बेटी को पाकर मुझसे बात करना बंद कर देंगे, मैं आप दोनों की पहली औलाद ही रहूंगी।” अंजलि फोन के दूसरी तरह ठहाके लगाकर हंसने लगी। 

और मैं इधर सोचने लगा कि बेटियां घर का श्रृंगार होती हैं जिन्हें हम अपने हाथों से सजाते हैं। कुछ मोतियों के बिखर जाने से श्रृंगार की शोभा कम नहीं होती। बस जरूरत है, इस बात को समझने की और श्रृंगार को हर हाल में सजाए रखने की तभी जीवन का सौंदर्य बना रहता है।

#औलाद

स्वरचित एवं मौलिक

अमित किशोर

धनबाद (झारखंड)

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