तमाचा – गीतू महाजन : Moral Stories in Hindi

चितरंजन जी अपने साथ लाए  तोहफों के साथ बेटी के ससुराल में बाहर के अतिथि कक्ष में अपने समधी का इंतज़ार कर रहे थे।यहां आए हुए उन्हें लगभग आधा घंटा हो चुका था। दिवाली के त्यौहार के उपलक्ष्य में वह बेटी के घर मिठाई और उपहार लेकर आए थे।इस आधे घंटे में नौकर उनके लिए चाय पानी रख गया था और बेटी रिद्धिमा भी उनके पास ही आकर बैठ गई थी।

उनका दामाद भी उनसे कुछ देर मिलकर अपने काम के लिए निकल गया था।चितरंजन जी बेटी के चेहरे पर पिता के आने की खुशी के साथ-साथ परेशानी के भाव भी देख पा रहे थे।उनके समधी जगत नारायण जी और समधन चित्रा जी शायद अंदर कुछ काम में व्यस्त थे

जो अभी तक उनसे मिलने नहीं आए थे।खैर, पिता होने के नाते वह बेटी से उसका कुशल क्षेम पूछ रहे थे और तभी उन्हें जगत नारायण जी की आवाज़ सुनाई दी और वह उनसे मिलने के लिए उठ खड़े हुए।

 “चितरंजन जी, नमस्कार, कैसे हैं आप” जगत नारायण जी ने उनके उनका कुशल क्षेम पूछते हुए कहा ।

चितरंजन जी हाथ जोड़ उनके समक्ष खड़े बस इतना ही बोल पाए,” आपकी कृपा से सब ठीक है..मैं तो बस दिवाली के त्योहार पर आप सब से मिलने चला आया”। 

“अरे, इन तोहफों की कोई ज़रूरत नहीं.. वैसे भी आधे से ज़्यादा हमारे किसी काम के नहीं है तो आप यह तकलीफ ना उठाया करें”, जगत नारायण जी ने चाशनी में लिपटे हुए अपने कटाक्ष को उन पर ज़ाहिर कर दिया था। चितरंजन जी को ऐसे लगा जैसे किसी ने खींचकर एक तमाचा उनके मुंह पर मार दिया हो..अचानक से उन्हें अपने गाल पर दर्द सा महसूस हुआ और स्वयं ही उनका हाथ गाल पर चला गया।

“चलो अच्छा है, आप बैठो.. मुझे कुछ काम है मैं निकलता हूं.. बहु इनकी खातिरदारी कर देना” कहते हुए जगत नारायण जी निकल गए। चित्रा जी भी कुछ देर बाद आई और कुछ ही क्षण में औपचारिकता निभाते हुए वह भी चली गई। 

चितरंजन जी बेटी के मनुहार करने पर भी वहां और नहीं रुके और वहां से चल पड़े। बाहर आते-आते उनके गाल का दर्द जैसे और बढ़ गया था।अपने हाथ से उन्होंने गाल को फिर से एक बार सहलाया।क्या सचमुच उनके लिए यह एक तमाचा था या फिर यह तमाचा उस चितरंजन के लिए था जो कि कुछ बरस पहले अपनी अकड़ में किसी को अपने सामने कुछ नहीं समझता था और आत्म मंथन करते हुए चितरंजन जी ऑटो लेकर घर की तरफ चल पड़े।

ऑटो में बैठते ही उनका मन अतीत में जा पहुंचा था जब चितरंजन दास का नाम पूरे शहर में बहुत अदब से लिया जाता था।चितरंजन दास, कपड़ों के व्यापारी.. जिनका काम पूरे शहर में फैला हुआ था।घर में बेटा अभिनव, बेटी रिद्धिमा और पत्नी शैलजा थी।व्यापार की उन्नति के साथ-साथ चितरंजन जी के अहम् में भी उन्नति होने लगी थी।

शहर के रसूख घरानों में उनकी अच्छी खासी जान पहचान थी।आए दिन किसी न किसी व्यापारी घराने के साथ उनका आना जाना लगा रहता था।अपने बेटे के लिए ऐसे ही किसी  व्यापारी घराने से रिश्ते की उन्हें उम्मीद थी और व्यापारी घराने भी अपनी बेटियों के लिए अभिनव पर

नज़रें रखे बैठे थे पर अभिनव को अपने साथ पढ़ने वाली मानसी पसंद आ गई थी जो की एक मध्यवर्गीय घर से ताल्लुक रखती थी।उसके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे और मां गृहिणी थी और उसका छोटा भाई राघव अभी पढ़ाई कर रहा था। 

अभिनव ने जब मानसी के बारे में चितरंजन जी और शैलजा जी को बताया तो चितरंजन जी तो घर में जैसे एक तूफान खड़ा हो गया था।एक मामूली घराने की बेटी उनके घर की बहू कैसे बन सकती थी।चितरंजन जी तो  अपने समधी के रूप में एक सफल व्यापारी की उम्मीद लगाए बैठे थे पर यहां तो बेटे ने सब कुछ उल्टा सोच कर रखा था।

चितरंजन जी अभिनव को किसी हालत में मानसी के साथ शादी करने की इजाज़त नहीं दे रहे थे..पर पत्नी और बेटी के बार-बार समझाने पर वह मान गए थे क्योंकि अभिनव उनका घर और  व्यापार मानसी के लिए छोड़ने को तैयार हो चुका था। 

अभिनव और मानसी के विवाह की चितरंजन जी ने हामी तो भर दी थी पर उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे इस शादी ने उनके अहम् को ठेस पहुंचाई थी और उनके सारे अरमानों पर पानी फेर दिया था। 

मानसी एक अच्छी लड़की थी..पढ़ी-लिखी तो वो थी ही पर साथ ही साथ संस्कारी भी थी।शैलजा जी और रिद्धिमा के साथ उसका व्यवहार बहुत अच्छा था। कुछ  ही दिनों में वह इस घर में रच-बस गई थी पर अगर उसे दिल से किसी ने नहीं अपनाया था तो  वह थे उसके ससुर चितरंजन जी जो कि अपने नाराज़गी उस पर  मौके बेमौके निकाल देते थे।हालांकि, मानसी का दिल उनकी बातों से दुखता था पर अपनी सास के समझाने पर वह खुश रहने का प्रयास करती।

मानसी देखती कि जब भी उसके पिता उसके लिए त्योहार पर उनसे मिलने आते तो चितरंजन जी उसके पिता को बिल्कुल भी सम्मान नहीं देते थे और उनके लाए तोहफों की भी कद्र नहीं करते।कई बार अभिनव ने उनसे इस बारे में बात करने की कोशिश की पर मानसी ने उसे चुप कर दिया।वह नहीं चाहती थी कि पिता पुत्र के बीच नाराज़गी

और लड़ाई का कारण उसके पिता बन जाए पर अभिनव चाहता था कि उसके ससुर जी को भी उसके घर में सम्मान मिलने का पूरा हक है पर इस बात को चितरंजन जी को ना उनकी पत्नी समझा पाई और ना ही बेटी। उन्हें लगता कि उनके हाथ से अभिनव की शादी का एक व्यापारी सौदा निकल गया हो जैसे।हर बात को रूपए पैसे में तोलना उनकी आदत जो बन चुकी थी।उस समय वह एक बार भी नहीं सोचते कि अपने समधी के साथ ऐसा व्यवहार करके वो अपनी ही इज़्ज़त गवां रहे थे।

खैर, समय यूं ही बीत रहा था।मानसी कभी अपने माता-पिता से इस बारे में बात करती तो वह  उसे ज़्यादा सोचने को नहीं कहते।हालांकि मानसी को अपने ससुराल में और कोई परेशानी नहीं थी।समय बीत रहा था.. धीरे-धीरे राघव  की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी उसने नौकरी करने की बजाय व्यापार करने की सोची और बैंक से लोन लेकर अपना व्यापार शुरू किया।उसकी मेहनत, लगन और कठिन परिश्रम से उसके व्यापार ने दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की कर ली थी।

मानसी के माता पिता और मानसी के ससुराल वाले भी उसकी तरक्की देखकर बहुत खुश थे पर चितरंजन जी यही कहते  फिरते,” खानदानी अमीर होने में और नए-नए अमीर होने में अलग बात होती है” और यह बात कहते हुए उन्हें लगता कि जैसे अपने समधियों की बेइज्ज़ती कर उनके अहम् को संतुष्टि मिल गई हो जैसे। 

वक्त अपनी रफ्तार से बीत रहा था ।चितरंजन जी रिद्धिमा के लिए लड़का देख रहे थे।वो अक्सर मानसी को सुनाते हुए कहते,”अब देखना रिद्धिमा की शादी कैसे करता हूं बेटी कैसे ब्याही जाती है यह लोगों को अब पता चलेगा”।लेकिन कहा जाता है कि ज़रूरी नहीं कि जो इंसान सोचता हो वही होता है। चितरंजन जी की  फैक्ट्री में भीषण आग लग गई थी और देखते ही देखते करोड़ों रुपए का नुकसान हो गया था। इस बात को लेकर रिद्धिमा के ससुराल वालों ने रिश्ते के बारे में दोबारा सोचने के लिए वक्त मांगा तो चितरंजन जी पर जैसे गाज गिर पड़ी थी।एक तरफ व्यापार में नुकसान और दूसरी तरफ बेटी की ब्याह की चिंता।

 अभिनव जैसे तैसे कपड़े का शोरूम संभाल रहा था पर वहां भी लेनदारों ने आना करना शुरू कर दिया था। जो लोग कभी बिना किसी गारंटी के लाखों का माल ऐसे ही दे देते थे आज वे अपना पैसा लेने के लिए सबसे पहले खड़े हो गए थे।फैक्ट्री के नुकसान और शोरूम का काम बहुत कम हो जाने से चितरंजन जी बहुत मुसीबत में घिर गए थे।लेनदारों को तो उन्होंने अपने पैसों से चुकता कर दिया था पर अब वह शानो शौकत वाला जीवन तो नहीं जी सकते थे यह उन्हें भी पता था। बेटी के ब्याह के लिए जैसे तैसे उन्होंने अपने समधियों को मनाया और अच्छी तरह से उसका ब्याह कर दिया पर अब उनकी सारी शानो शौकत खत्म हो चुकी थी

।बाज़ार का पैसा देने के चक्कर में काफी कुछ बिक चुका था।आज उन्हें अपने समधी की हालात का अंदाज़ा हो गया था।आज वह जान पाए थे कि एक बेटी का पिता पैसे ना होने पर अपने आप को उसके ससुराल में कितना मजबूर महसूस करता है  या यह कहना चाहिए कि उसे इतना मजबूर महसूस कराया जाता है।

 उन्होंने भी तो यही किया था आज उन्हें अपने समधी से माफी मांगने का मन कर रहा था।वह सोच रहे थे कि उन्होंने ऐसी गलती की है जिसकी शायद ही वह कभी भरपाई कर पाए लेकिन उन्हें लग रहा था

कि उन्हें इसका प्रायश्चित ज़रूर करना चाहिए। कैसे करेंगे वह प्रायश्चित..यह सवाल हथौड़े की तरह उनके मस्तिष्क में बार-बार बज रहा था..क्या प्रायश्चित करने से उनकी पिछली गलतियां माफ हो जाएंगी..क्या वह अपने समधी की उस अपमान की भरपाई कर पाएंगे..क्या वह उनकी आंखों में तैरते बेचारगी  के भाव को दूर कर पाएंगे.. यही सोचते सोचते  उनकी आंखों से आंसू बह निकले और उन्हें भी पता नहीं चला कि उन्होंने कब ऑटो वाले को अपने समधी के घर का की तरफ मोड़ दिया था।

ऑटो का किराया देकर वो अंदर गए।चितरंजन जी को इस वक्त यहां देखकर मानसी के पिता भी हैरान थे। उन्होंने उन्हें आदर पूर्वक अंदर बैठने को कहा पर चितरंजन जी की मनोदशा तो कुछ और ही थी।आंखों से बहते हुए आंसू और रूंधे हुए गले के साथ हाथ जोड़कर वह अपने समधी के आगे खड़े हो गए और बोले,” मुझे माफ कर दो, मैं अपनी गलतियों के लिए बहुत शर्मिंदा हूं.. अपनी अकड़ में मैं नहीं जान पाया कि एक पिता की मजबूरी क्या हो सकती है… मैं आपकी माफी के लायक तो नहीं हूं पर मैं प्रायश्चित करना चाहता हूं..कृपया कर मुझे एक मौका दे दीजिए”। 

मानसी के पिता ने उनके हाथ पकड़ कर कहा,” आप ऐसा क्यों सोचते हैं.. वक्त वक्त की बात है ..इंसान वक्त के हाथों का एक पुतला है कभी वक्त ने आपको एक अहंकारी इंसान बनाया था और आज वक्त ने  ही आपको प्रायश्चित करने पर मजबूर कर दिया हैं।परिवार में एक दूसरे के साथ मिलकर रहा जाता है ऐसे माफी नहीं मांगी जाती और हां मैं आपको बताना ही चाहता था कि राघव ने अभिनव को एक बड़ा ऑर्डर दिलवा दिया है।अब देखना फिर से बाज़ार में आपका नाम चमकेगा और आप फिर से अपनी पुरानी जगह पर खड़े हो पाएंगे”।

 चितरंजन जी को लगा कि उनके समधी जैसे साक्षात भगवान बनकर उनके सामने खड़े थे।आज प्रायश्चित की आग में जलते हुए वह कुछ भी नहीं बोल पा रहे थे। कुछ देर बाद जब वह बाहर निकले तो उनका मन शांत था और उनके गाल पर पड़े तमाचे की दर्द भी गायब हो चुकी थी।

#स्वरचितएवंमौलिक 

गीतू महाजन, 

नई दिल्ली।

#प्रायश्चित

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