Moral stories in hindi: आकांक्षा-मम्मी जल्दी आओ अपने बगीचे में कोई आदमी है और फूलों के साथ छेड़छाड़ कर रहा है।
देवकी (आकांक्षा की सास)-अरे पगली ये संत प्रसाद अंकल है, जो बिना कहे ही आकर बाग बगीचे की सफ़ाई में लग जाते है। तुझे आए अभी ज़्यादा समय नहीं हुआ है ना इसलिए तू नहीं जानती है इन्हें।
आकांक्षा-हाँ मम्मी। मुझे तो लगा कोई फूल तोड़ने आया है।
देवकी (आकांक्षा की सास)-संत प्रसाद की जितनी तारीफ़ की जाए उतना कम है। आज से लगभग 12 साल पहले जब हम गाँव से यहाँ शिफ्ट हुए तब एक बार तुम्हारे पापा लेबर मंडी से इन्हें चार दिन की दिहाड़ी पे काम करने लाए थे।
आकांक्षा-चार दिन के लिये आये थे और अभी तक यहाँ काम करते है।
देवकी (आकांक्षा की सास)-जब ये दिहाड़ी पर काम करने आए थे तब इनके बीच वाले बच्चे की तबियत बहुत ख़राब थी, उसे डेंगू हुआ था। तब संत प्रसाद ने तुम्हारे पिता से कहा कि साहब हम रात भर काम करेंगे पर आप चार दिन बाद भी हमसे ही काम कराइएगा हम हर तरह का काम कर लेते है। अभी हमें पैसों की बहुत ज़रूरत है तो साहब इस कठिन घड़ी में हमारी मदद करें।
तब तुम्हारे पिता ने घर बनवाने के हर काम में इनसे सलाह ली और जहां ज़रूरत पड़ी काम भी करवाया। साथ ही उनके बच्चे को शहर बुलाकर उसका उपचार कराया, उनका बेटा आज भी हर त्योहार में आशीर्वाद लेने आता है। संत प्रसाद का काम के प्रति समर्पण, सेवाभाव देखकर अपनी कॉलोनी के सब लोग इनसे काम करवाने लगे और अब ये खुद ठेकेदार बनकर अपने अधीन लोगों को रोज़गार देकर काम करवाते है, परंतु अपने यहाँ ख़ुद काम करने आते है।
आकांक्षा-वाक़ई मम्मी आज के जमाने में ऐसे कर्तव्यनिष्ठ इंसान बहुत मुश्किल से मिलते हैं।
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थोड़ी देर बाद बाहर का शोर सुनकर देवकी जी और आकांक्षा बाहर की ओर भागे तो वहाँ का माहौल देखकर हतप्रभ रह गए। संत प्रसाद बगीचे के बीचों-बीच मरणासन्न अवस्था में पड़ा था और अशोक (देवकी के पति) को पुकार रहा था। देवकी ने तुरंत फ़ोन कर अशोक को बुलाया और साथ ही संत प्रसाद के बेटे को भी फ़ोन मिलाया।
अशोक जी भागे भागे आए और संत प्रसाद को देखकर तुरंत कार में बैठाया और हॉस्पिटल की तरफ़ दौड़े। संत प्रसाद को एडमिट कराया। थोड़ी देर में संत प्रसाद का बेटा भी हॉस्पिटल पहुँचकर रोते हुए बोला- पापा की तबियत बहुत दिन से ख़राब है दोनों किडनियाँ ख़राब हो गई है और डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया। मम्मी ने भी कही निकालने को माना किया था पर आपके यहाँ आने की ज़िद पकड़े हुए थे कि साहब के यहाँ बगीचे में घास बढ़ गई होगी और गाँव से राशन भी आया होगा उसे भी स्टोर में रखवाना है। मैंने कहा कि मैं करवा दूँगा तो बोले जब तक मैं ज़िंदा हूँ अपने कर्तव्य को स्वयं निभाऊँगा।
अशोक जी ये सुनकर द्रवित हो गये और सोचने लगे कि कुछ तो अच्छे करम किए है मैंने, जो संत प्रसाद जैसा कर्तव्यपरायण सेवक मिला है।
डॉक्टर साहब (बाहर आते ही)-अब इन्हें बचाना नामुमकिन है आपलोग इन्हें घर ले जाए।
अशोक-डॉक्टर साहब ऐसा ना कहे। मैं अपनी एक किडनी देने को तैयार हूँ, पर आप मेरे संत प्रसाद को बचा ले।
डॉक्टर साहब-अब किडनी ट्रांसप्लांट करना भी मुश्किल है पर हम एक बार कोशिश कर सकते है।
अशोक जी ने किडनी देने का कह तो दिया पर अपनी पत्नी और बच्चों से सलाह भी ना ली। जब देवकी और घर में सबको पता चला तो बच्चों ने विरोध किया पर देवकी जी ने निशब्द रहकर अपनी मौन स्वीकृति दे दी।
आकांक्षा ने अपने पति को समझाया कि बचपन में एक बार संतप्रसाद ने आपको गहरे बोरवेल से बाहर निकाला था, और शिवम् (आकांक्षा का देवर) की दुकान बनवाने में बारिश में भी इतनी दूर से आकर दिन रात काम किया है। आज उन्हें हमारी ज़रूरत है तो क्या हमारा कोई फ़र्ज़ नहीं।
ये सुनकर सुदीप (आकांक्षा का पति) बोला-पापा आप अपनी किडनी डोनेट नहीं करेंगे, मैं करूँगा अपनी किडनी डोनेट।
अशोक-पागल है क्या। मेरी तो उम्र हो गई है और तेरे सामने ज़िंदगी पड़ी है। मेरा किडनी डोनेट करने के निर्णय पर कोई कुछ नहीं कहेगा।
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अगले दिन अशोक हॉस्पिटल पहुँच संत प्रसाद से मिला और बोला-अब एक बार फिर तुम स्वस्थ हो जाओगे और अभी तो तुम्हें मेरे बगीचे में जामुन और अमरूद के पेड़ भी लगाने है तो फटाफट ठीक हो और सम्भालो अपना बगीचा। अशोक, संत प्रसाद के साथ भविष्य के सुनहरे सपनों को बुनने में लगा था और संत प्रसाद टकटकी लगाये अशोक को निहार रहा था। अशोक ने जब संतप्रसाद को छुआ तो पता चला कि संत प्रसाद अनंत की यात्रा पर चल चुका हैं। अशोक और संतप्रसाद एक दूसरे को निहार रहे थे और ऐसा लग रहा था मानो कितनी बारे कर रहे हो।
आज ये सब देखकर लोग कह रहे थे कि इस कलयुग में भी राम जी जैसे राजा और हनुमंत जैसे सेवक अशोक जी और संतप्रसाद के रूप में अस्तित्व में है।
आदरणीय पाठकों,
ये रचना सत्य घटना पर आधारित है। आज भी कई ऐसे उदाहरण है जो इस कलयुग़ में सतयुग की अवधारणा को जीवित रखे हुए है। यहाँ कुछ पंक्तियाँ कहना चाहूँगी-
नगरी हो अयोध्या सी, रघुकुल सा घराना हो,
चरन हो राघव के, जहा मेरा ठिकाना हो।
राम सा स्वामी हो और हनुमंत सा सेवक हो।
कलयुग में भी सतयुग का दीपक हो।
उम्मीद है आप सबको मेरी ये रचना पसंद आयी हो। पसंद आने पर लाइक, शेयर और कमेंट करना ना भूलें🙏🏻🙏🏻
# समर्पण।
धन्यवाद।
स्वरचित एवं अप्रकाशित।
रश्मि सिंह
नवाबों की नगरी (लखनऊ)