स्वाभिमानी पिता

 पिता को ‘ आहार आलय’ में देखकर निलेश चौंक उठा।एक मन तो उसका हुआ कि वापस चला जाये लेकिन फिर वह आशीष जो कि उसके साथ ही काम करता था,के साथ एक टेबल पर बैठ गया।वेटर ने आकर आर्डर लिया और दस मिनट में खाना उसकी मेज पर लग गया।उसके आर्डर किये गये सभी डिश मेज पर थे,

साथ ही दो मेंथी-पराँठे भी थे।आशीष ने उससे पूछा कि यार ,ये तो हमने नहीं मँगवायें थें, फिर कैसे …।वह वेटर को बुलाने वाला था कि निलेश ने उसे मना कर दिया।एक बार फिर उसने कैशियर की कुर्सी पर बैठे अपने पिता को देखा और मुस्कुराकर खाना खाने लगा।

          खाना खाकर वह बिना पैसे दिये जाने लगा तो आशीष ने उसे टोका।हँसते हुए निलेश बोला, ” मेरे परिचित का रेस्तरां है तो पैसे देने की ज़रूरत नहीं ….।” तभी वेटर ने आकर उसे बिल थमा दिया।बिल में दो एकस्ट्रा पराँठे भी लिखे हुए थें जिसे देखकर वह चौंक गया।बुझे मन से उसने वेटर को पैसे दिये और बाहर निकल गया।

        कुछ साल पहले ही निलेश इस शहर में आया था।नई नौकरी थी, इसलिए तनख्वाह भी कम थी।उसने सोचा, पिताजी तो गाँव में अकेले ही हैं।यहाँ आ जायेंगे तो उनका मन लग जायेगा और उसे भी मदद हो जायेगी।उसकी माँ के बीमार हो जाने से उसके पिता को खाना बनाना पड़ा और वे एक अच्छे कुक बन गये थे।

बेटे के पास आकर उन्होंने सब संभाल लिया।खाना बनाने से लेकर बरतन धोने तक का सारा काम उसके पिता करने लगे जिससे उसका पैसा और समय बचने लगा।वह अपने काम पर अधिक ध्यान देने लगा, ऑफ़िस में सभी उसकी प्रशंसा करने लगे और उसकी तरक्की हो गई।इन्कम बढ़ने के साथ-साथ कंपनी ने उसे दो कमरे का एक फ्लैट भी रहने के लिए दिया।

        ऑफ़िस के ही एक सहकर्मी की बहन से उसने विवाह कर लिया।बहू के आने के बाद भी उसके पिता सब्जी खरीदना, अपने कपड़े स्वयं धोने जैसे कुछ काम करते रहें।बेटे के मना करने पर कहते, ” हाथ-पैर तो चलते ही रहना चाहिए।”

        फिर उनका शरीर कमज़ोर होने लगा।अब उनसे भारी काम नहीं होता तो उन्होंने बाहर का काम करना छोड़ दिया।यही बात बहू को अच्छी नहीं लगी।ससुर का घर में बैठे रहना अब उसे अखरने लगा।कल तक जो बहू बाबूजी-बाबूजी कहकर न जाने कितने काम अपने ससुर से करवा लेती थी,

वही बहू अब उन्हें बात-बात पर निठल्ले रहने के ताने देने लगी।निलेश के पिता को बहुत दुख होता लेकिन उन्होंने बेटे से कभी इस बात की शिकायत नहीं की।निलेश की पत्नी अब उसके कान भरने लगी कि बाबूजी को अब यहाँ की हवा सूट नहीं कर रही है, हमेशा तो बीमार हो जाते हैं।

इन्हें गाँव भेज देते तो ठीक रहता।कान का कच्चे निलेश ने पत्नी की बात सुनी लेकिन अपने पिता से उनकी तकलीफ़ जानने की ज़रूरत नहीं समझ। पत्नी बोलती जाती और वह हाँ-हूँ करता रहता।शायद सोचता कि पिता को वापस गाँव जाने के लिए कैसे कहे।

       जिस पिता ने इतने कष्ट से बेटे को पाला हो,उसके सुख में खुश और दुख में दुखी हुआ हो, उस बेटे का रूखा व्यवहार किसी भी पिता को बुरा लगेगा।उसके पिता सब समझ रहें थें।बेटे का उनसे हिचकना उनसे छिपा न रहा।एक ही घर में कटे-कटे-से रहना अब उन्हें अखरने लगा और एक दिन बेटा ऑफ़िस और बहू मार्केट गई हुई थी तो वे बेटे के नाम एक चिट्ठी छोड़कर घर से चले गयें।

       निलेश की पत्नी तो खुश कि चलो,बला टली और निलेश को भी पिता से कुछ कहना नहीं पड़ा।निलेश ने सोचा कि बाबूजी गाँव चले गये हैं।फिर उसने खोज-खबर नहीं ली।इस बात को पाँच महीने हो गए और आज अचानक जब उसने अपने पिता को ‘आहार-आलय’ में देखा तो उनके पास जाना चाहा,

फिर सोचा, बाबूजी कहीं साथ न आ जाये।फिर मेंथी के पराँठे अपनी मेज पर देखा तो खुश हुआ कि बाबूजी उससे नाराज़ नहीं है,आज भी उन्हें अपने बेटे की पसंद याद है।इसलिए बेटे से तो बिल लेंगे नहीं लेकिन वेटर ने उसे बिल दिया और पराँठे के पैसे भी लिखे देखा तो वह समझ गया कि बाबूजी अब पहले जैसे नहीं रहे।

      दरअसल निलेश के पिता स्वाभिमानी थें।वे बेटे के हाथों अपमानित नहीं होना चाहते थें, इसीलिए बेटे का घर छोड़कर वे अपने मित्र के पास चले आयें जो साल भर पहले ही उस शहर में आये थें।मित्र का बेटा दो रेस्तरां चलाता था।

मित्र का बेटा जानता था कि उसके पिता के मित्र अच्छा खाना पकाते हैं।बस ‘आहार-आलय ‘ उन्हें दे दिया।लोगों के बीच रहकर ,उनको भोजन कराके निलेश के पिता को बहुत संतुष्टी मिलती थी।

      निलेश ने सोचा था कि मेरे पिता हैं,बहुत प्यार करते हैं मुझसे।खाने के पैसे वे भला मुझसे क्यों॔ लेने लगें लेकिन बिल के पैसे लेकर उसके पिता ने यह बता दिया कि जब तुमने अपने पिता से रिश्ता तोड़ लिया तो मैं भी अब अकेला हूँ और आत्मनिर्भर हूँ।अब तुम मेरे लिए बेटे नहीं एक ग्राहक हो।इसलिए खाना खाये हो तो बिल का भुगतान भी करना ही पड़ेगा।

                               विभा गुप्ता                                स्वरचित🖋

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