स्वाभिमान – विनय कुमार मिश्रा

“पापा! जरा जा कर देखिए, बाथरूम से लेकर हॉल तक का, क्या हाल हुआ है”

ऑफिस से घर पहुंचा ही था कि बेटा लिफ्ट के पास ही मिल गया

“क्यों.. क्या हो गया?”

“आपने उन्हें यहां रुकने को ही क्यों बोल दिया पापा? आप उन्हें कल ही भेज दीजिए..प्लीज”

“बेटे बस हफ्ते दस दिन की ही बात है.. वे..”

“नो पापा!”

हम बात करते दरवाजे तक पहुंचे। पत्नी ने दरवाजा खोला। मुंह उसका भी बना हुआ था।

दरअसल जब पता चला कि गांव के नारायण काका, काकी की आँखों का ऑपरेशन कराने यहां आ रहे हैं, तो मैंने ही उन्हें यहां अपने घर ठहरने के लिए बोला था। आज सुबह ही उन्हें स्टेशन से घर लेकर आया और फिर जल्दी ही मुझे ऑफिस और फिर डॉक्टर से मिलने निकलना पड़ा।

मैंने अंदर आकर हॉल में देखा तो वे काकी को दवाई दे रहे थे। एक तौलिया वहीं सोफे पर डाल रखा था उन्होंने। उनकी पुरानी सी अटैची वहीं बेड पर खुली हुई थी। जिसमें कुछ दवाइयां और कुछ कागज थे जो शायद गांव के डॉक्टर्स की पर्ची थी। मुझे देखते ही बोल पड़े

“डॉक्टर के पास नम्बर लगा आये बबुआ?”

“हां.. वो परसों बुलाये हैं..काका”

तभी दूसरे कमरे से पत्नी ने आवाज लगाई, मैं गया और वे देखते ही हल्की आवाज में बरस पड़ी

“क्यों बुला लिया इन लोगों को यहां? बाथरूम तक ढंग से इस्तेमाल करना नहीं आता इन्हें! जाकर देखो..कमोड से लेकर शावर तक का क्या हाल बनाया है? गंवार कहीं के!”


“हां तो तुमलोग इन्हें.. इस्तेमाल करना समझा देते”

“क्या समझा देते? अब तुम समझाओ इन्हें कि ये कल ही यहां से गांव जाएं..हमने ठेका नहीं ले रखा, समझे”

पत्नी की इन बातों से मन सहसा ही बचपन में चला गया जब हम गाँव में मिट्टी के एक छोटे से घर में रहा करते थे। गाँव का एकमात्र पक्के का मकान काका का ही था। मंजरी की शादी में काका ने मेहमानों के लिए पूरा घर खुशी खुशी दे दिया था और वे हफ्तों तक दालान में रहे थे।

काका के घर में टीवी था और साइकल भी। काका की कोई संतान नहीं है। हम गाँव के बच्चे उनके घर दिनभर रहते टीवी देखते,उनकी साइकिल चलाते। काका और काकी कभी परेशान नहीं होते थे।

“क्या सोचने लग गए? मैंने कहा ना..इन्हें जल्दी यहां से..”

मैंने पत्नी को देखा और अपने एक जान पहचान वाले को फोन लगाया

“हैलो..आपका जो.. वो फ्लैट खाली पड़ा है, मुझे हफ्ते दस दिन के लिए चाहिए”

“आपको चाहिए?..पर आपका तो खुद का घर है?”

“हां..अपना है पर..किसी अपने को यहां दो दिन भी रख नहीं सकता..खैर आप चिंता ना करिएगा..पैसे मैं पूरे एक महीने का ही दूंगा”

पत्नी और बेटे मुझे ही देख रहे थे। मैंने भी उन्हें देखते हुए कहा


“कल से..जब तक ऑपरेशन करा कर ये सकुशल चले नहीं जाते..मैं ज्यादातर इन दोनों के साथ ही रहूंगा”

“पर तुम क्यों उनके साथ?”

“क्योंकि बात अपने गांव की मिट्टी की है..मैं इन्हें अकेले तो नहीं छोड़ सकता..”

दरवाजे पर आहट सुनी तो देखा काका आँखों में नमी लिए खड़े थे, उन्होंने मुझे देखा और

“तुम्हें देख आज हमको..अपने गाँव की मिट्टी पर बहुते गर्व हो रहा है बबुआ..पर हो सके तो हमको आज ही उस घर में छोड़ आओ”

पूरे घर में एक चुप्पी सी छा गई। पर मेरे आँखों के कोर भीग आये थे

“हम तुम्हें तुम्हारे फर्ज से नहीं रोक रहे हैं बबुआ..पर उस घर का किराया हम ही देंगे”

मैंने काका को देख दबी जुबान से कहा कि

“पर काका..काकी का ऑपरेशन भी तो है और..”

काका ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया

“हम बुढ़ापे के लिए..उतना बचाये हैं बबुआ..जितने से हम अपना..आत्मसम्मान बचा सकें..!”

विनय कुमार मिश्रा

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