सुनो बसंती रे…. काहे सताए आ जा.. – विनोद सिन्हा “सुदामा”

कहते हैं इंसान जब अंदर से टूट जाता है तब बाहर से खामोश हो जाता है…अंदर शोर तो बहुत होता है पर बाहर हर तरफ मौन पसरा रहता है…मेरी हालत भी आज़ कल कुछ ऐसी ही है..जिंदा लाश ..बना हर पल तुम्हारे न होने की वजह ढूँढता रहता हूँ….

कैसे कहूँ…एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता था…बेजान बेबस पत्थरों को घर कर देता था….!

लेकिन आ़ज़ वही घर तुम्हारे बिना खण्डहर हुआ पड़ा है.. वीरानियाँ…मकड़े की जाले समान हर कोने में फैली हैं…हर ईंट सिसकियों से सरोबर हैं..खिड़की दरवाजें हर घड़ी हरक्षण,विरह वेदना से तड़पते रहते हैं चर्चराते रहते हैं..दीवारों से टंगी कितनी सुनहरी यादों पर धूल परत दर परत अपना कब्जा जमाए बैठी है….कुर्सी टेबल…बिस्तर झूले..सब मौन का चादर ओढ़े हर पल सिर्फ़ तुम्हारे आने की राह तकते हैं…. मानों  इंतजार हो इन्हें साथ तुम्हारे खुशियों के बसंत का ,जैसे बाद पतझड़ करता है हेमंत..बसंत के आने का,बसंत…का मौसम…सर्द उदासी उतार फेंकने का मौसम..जब प्रकृति भी फिर से नया श्रृंगार कर रही होती है….बसंत…जिसमें चिड़ियों की चहचहाहट बेजान भँवरों के प्राणों को उद्देलित करने लगती है..रंग बिरंगे फूलों की महक मन को आल्हादित करने लगती हैं..बसंती हवाओं का थिरकन तन मन में मीठी कंपन्न पैदा करती है…

तुम थी तो जीना सीख लिया था मैने… पर तुम बिन मन आंगन सुनसान पड़ा है..धड़कने बेजान सी दिखती हैं..हालांकि वावजूद साँसें अब भी चल रही..मेरी..पर सच पूछो तो जी नहीं रहा मैं..क्योंकि सांसों का चलना ही जीवन नहीं कहतें.अंदर से मर जाना भी जीवन का अंत ही है.और तुम बिन जीवन भी कैसा…जीते हुए भी मृत्युशय्या पर लेटा…मैं…



तुम्हें पता नहीं शायद..तुम्हें पाकर कुछ पाने की चाह नहीं बची थी .आज तुम नहीं तो खोने को भी कुछ नहीं रहा पास..पर शायद अभी मुझे और अकेला होना है..हिज्र ए दर्द अभी और दूर तक सहना है…!

फिर भी जाने क्यूँ आज भी यह अहसास है..हम दूर होकर भी एक दूसरे के दिल के पास हैं..फिर एक जैसे ही तो थे हम दोनों..थोड़े लपरवाह मगर….एक दूसरे के परवाह में….खोए रहते हरपल..!

तुम भरोसा मैं यकीन,मैं आसमान तूम जमीन, हम दोनों सा कोई भी नहीं था…जिस तरह बसंत के मौसम में टहनियों पर फूल अघ्छे लगतें हैं ठीक उसी तरह मेरे हाँथो में तुम्हारा हांथ..होना..एक दूसरे की बाहों में बाह़े डाल..घंटों घंटो बातें किया करते हम…कब समय बीत जाता पता ही नहीं चलता…

उन क्षणों में तुमसे बातें करना बहुत अच्छा लगता था दिल को..या यूँ कहो तुम्हारी बातें बहुत पसंद थी मुझे और थोड़ी थोड़ी तुम भी…

मेरा तुम्हारे प्रति यह अनकहा प्रेम था या प्रेम की परकाष्ठा मैं नहीं जानता पर तुम्हारा मेरे साथ मेरे पास होना इक अजब सुकून देता था मन को….

अक्सर कहती थी तुम.प्रेम ब्रेम कुछ नहीं होता..बस वहम है मन का….मैं हँस कर कहता…पहले किसी से प्रेम कर के तो देखो..प्रेम को समझ कर तो देखो…प्रेम ही समस्त है व समस्त में समाहित प्रेम है और प्रेम को समझना है तो पहले प्रेम को जीकर देखना होगा…

जब किसी को किसी से प्रेम होता है…तो मुख शब्दरहित हो जाता है..और मन में पल्वित सारी इच्छाएँ …धुमिल…हो जाती हैं..

जानती हो….किसी के प्रेम में कहा गया एक वाक्य कि मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता…सरासर गलत है… मैं समझता हूँ..किसी का यह कहना चाहने वाले के प्रति उसके पवित्र प्रेम की कमजोरी को दर्शाता है….बल्कि मैं तो यह कहता हूँ कि….मैं तुम्हारे बिना भी तुम्हारे लिए जी सकता हूँ…

शायद इसलिए बाद तुम्हारे कितनी दफा लिखा तुम्हें… कितनी दफा मिटाया भी….और हर मिटते शब्द के साथ मैं मर जाता हूँ…ताकि जिंदा रह सको तुम….या मैं रहूँ जिंदा तुम्हारे लिए…

और संभवतः यही अंतर भी रहा मेरी और तुम्हारी मुहब्बत में… मैने सबकुछ छोड़ कर तुम्हें अहमियत दी और तुमने मुझे छोड़ कर स्वयं को..या फिर शायद कभी समझा ही नहीं तुमने मुझे और न ही कभी मेरे जज्बात क़ो समझने की कोशिश की..

कभी कभी तो मैं खुद हैरान हो जाता कि आखिर इतनी मुहब्बत क्यूँ और कैसे हुई तुमसे…क्यूँ इतना प्रेम किया तुम्हें…



पर कहते हैं जहाँ प्रेम होता है..वहाँ तर्क नहीं होता…शायद इसलिए कुछ नहीं कहा मैने जब तुम जा रही थी….छोड़ कर मुझे….

हाँ इतना जरूर कहूँगा .आज भी बहुत याद आता है तुम्हारे साथ का ग़ुजरा वक़्त….आज भी बहुत याद आती हो तुम…तुम्हारा हँसता मुस्कुराता चेहरा..हर घड़ी नज़रों के सामने रहता है…

मैं आज़ भी उसी मोड़ पर खड़ा तुम्हारा इंतजार करता रहता हूँ..जहाँ से अलग हुए थे हम बिना कुछ कहे..बिना कुछ सुने…

हाँ….आज़ भी तुम्हारा इंतजार है मुझे…

सच कहूँ तो इंतजार तो बहुत छोटी चीज है….तप किया है मैने तुम्हारे लिए….तुम्हें मेरी ज़िंदगी में लाने के लिए..

वैसे भी प्रेम का सबसे सुंदर स्वरूप इंतजार है जितना लंबा इंतजार उतना गहरा प्रेम…

अत: जब भी दिल करे..तुम लौटकर आ जाना हर बार मुझे अपना ही पाओगी तुम..

सुनो न तुम लौट आओ न…?

तुम बिन कुछ अच्छा नहीं लगता..

क्या सावन क्या भादो क्या बसंत…

विनोद सिन्हा “सुदामा”

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