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सुलभा दीदी की बारात – गीतू महाजन

सुलभा की बारात किसी भी वक्त आ सकती थी।सारी तैयारियां ज़ोरों शोरों से हो चुकी थी।सुलभा दुल्हन बनी बहुत ही सुंदर लग रही थी..ऐसा लग रहा था जैसे कोई अप्सरा ही स्वर्ग से धरती पर पधार गई हो।सुलभा की मां उसे देखते हुए उसकी बलाएं लेती थक नहीं रही थी।उन्होंने तो शायद यह सपना देखना छोड़ ही दिया था कि उनके दरवाज़े पर उनकी बेटी की कभी बारात आ पाएगी और शायद यह सच भी था क्योंकि सुलभा तो कभी अपनी शादी के लिए मान ही नहीं रही थी और यह सब संभव हो पाया था सुलभा के भाई शलभ की वजह से।

नीचे पंडाल में शलभ सारी तैयारियों की व्यवस्था देख रहा था और सुलभा दुल्हन बनी अतीत के गलियारे में

गोते लगा रही थी..जब उसके छोटे भाई शलभ ने उसे मनोज के साथ शादी के लिए पूछा था।

“क्या बात कर रहे हो शलभ..इस उम्र में मैं अपनी शादी के बारे में सोच भी कैसे सकती हूं”।

“तो क्या फर्क पड़ता है सुलभा दीदी..अपनी शादी के बारे में सोचने पर तुम कौन सा इतना बड़ा गुनाह करने जा रही हो”, शलभ ने पलटकर कहा था।

“तुम्हें पता है 35 पार करने वाली हूं मैं और इस उम्र में शादी”,सुलभा बोली।

“अरे,लोग तो आजकल 70 बरस के होने पर भी शादी कर रहे हैं और तुम 35 की बात कर रही हो।मुझे कुछ नहीं सुनना..मनोज जी तुम्हारा कब से इंतज़ार कर रहे हैं और मैं यह बात अच्छी तरह से जानता हूं”।




“फिर भी, लोग क्या कहेंगे”।

“कौन से लोग दीदी..तुम किन लोगों की बात कर रही हो? वही लोग ना जो पापा के जाने के वक्त हम से मुंह मोड़ कर चले गए थे ताकि उन्हें हमारी कोई मदद ना करनी पड़ सके और उस समय जब पापा की ठंडी छांव के नीचे हम दोनों पल बढ़ रहे थे तुम उस छांव के हटते ही ज़िंदगी की कड़ी धूप का सामना करते हुए अपनी सारी इच्छाओं का गला घोंट कर इस घर को वो सब सुख सुविधाएं जुटाने की कोशिश मे लग गई थी जो पापा के समय हुआ करती थी।

कैसे तुमने अपनी पढ़ाई के साथ-साथ शाम को ट्यूशन पढ़ाने का काम शुरू कर दिया था और फिर अपनी पढ़ाई खत्म होते ही एक प्राइवेट नौकरी कर तुमने कैसे कंपटीशन की जी जान से तैयारी की और बैंक का इम्तिहान पास कर बैंक में नौकरी हासिल करने में तुम कामयाब हो गई थी।पापा की जमा पूंजी को तुमने कैसे किफायत से खर्चा था ताकि उससे मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कोई बाधा ना आ सके।

मेरी पढ़ाई के लिए तुम अपने लिए आए हुए एक से एक अच्छे रिश्तों को टालती गई क्योंकि बैंक की नौकरी लगने पर तुम्हारे लिए बहुत से अच्छे रिश्ते आ रहे थे और वो रिश्ते भी वही लोग ला रहे थे जो कि हम से मुंह मोड़ कर चले गए थे लेकिन..तुम मेरे और मां के लिए जीवन की धूप में खड़ी होकर तपती रही और हमें सदा छांव में ही रखा।




मेरे इंजीनियर बनने पर जो सुकून तुम्हारे चेहरे पर मैंने देखा था उसकी छवि आज भी मेरे दिल पर छपी हुई है कैसे भूल सकता हूं मैं तुम्हारी उन कुर्बानियों को जो तुमने मेरे लिए दी थी।उसी बैंक में काम करते हुए मनोज जी तुम्हें पसंद करने लग पड़े थे और उन्होंने तुम्हारे सामने कई बार शादी का प्रस्ताव भी रखा लेकिन तुम मेरे और मां की खातिर उस प्रस्ताव को टालती गई।

यह तो तुम्हारी सहेली सुमन दीदी ने हमें बताया तो हमें इस बात का पता चला।दीदी, चाहे मैं तुम्हारे से 10 साल छोटा हूं लेकिन अब तो मुझे इतनी समझ आ गई है कि आज मैं जो कुछ भी हूं तुम्हारे द्वारा दी गई उसी छांव की वजह से हूं जो कि तुमने कड़ी धूप को सहते हुए मुझे दी थी और आज मेरा यह फ़र्ज़ बनता है कि उस छांव का एक टुकड़ा तुम्हें भी मैं वापिस करूं जिसकी तुम हकदार हो”, शलभ ने सुलभा के हाथों को अपने हाथों में लेकर कहा।

सुलभा को उस पल ऐसा लगा जैसे उसका छोटा सा भाई एकदम से से सयाना हो गया हो और सच ही तो कह रहा था वो।सुलभा तो शायद भूल भी गई थी वह सब पर शलभ ने उसे फिर से याद करा दिया था।उसे याद आ गई थी अपनी वह कड़ी मेहनत..अपनी इच्छाओं का दबाना जो कि पापा के एकदम से जाने के बाद उसे करनी पड़ी थी ताकि अपने भाई और अपनी मां का वह एक मज़बूत सहारा बन सके।

उसे याद आ गए थे अपने वो मतलबी रिश्तेदार जो कि वक्त पड़ने पर एकदम से गायब ही हो गए थे और जैसे ही उसे बैंक की नौकरी मिली तो फिर से उनके साथ अपनी रिश्तेदारी निभाने वापिस आ गए थे।शलभ का एक एक शब्द सही था और मां की नम आंखें भी उसे सोचने पर मजबूर कर रही थी और बहुत सोचने समझने के बाद उसने मनोज जी से शादी के लिए हां कर दी थी।

नीचे बारात आ चुकी थी..बैंड बाजे की आवाज़ से ही उनके आने का पता चल गया था.शलभ उसे लेने ऊपर आया था।दोनों भाई बहनों की आंखें नम थी..शायद ज़िंदगी की कड़ी धूप को सहते सहते अब उन्हें ठंडी छांव का झोंका एक राहत सा देता हुआ महसूस हो रहा था और नीचे हंसते नाचते हुए सुलभा दीदी की बारात मंडप में दाखिल हो रही थी।

#कभी_धूप_कभी_ छाॅंव

#स्वरचित

गीतू महाजन।

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