“सुखद चीख” – ऋतु अग्रवाल

विधा : नाटक  #चित्रकथा

परिमिता: रोहन! उठो!आह!आह!

रोहन: सोने दो ना! नींद आ रही है बहुत।

परिमिता:रोहन उठो भी! मुझे बहुत तकलीफ हो रही है।

रोहन: अरे यार सो जाओ। ऐसे में थोड़ी बहुत तकलीफ तो होती ही है।

परिमिता लेटने का उपक्रम करती है पर पीड़ा की वजह से उसे नींद नहीं आती। वह कमरे में घूमने लगती है।

परिमिता अपनी गर्भावस्था के आखिरी चरण में है।

परिमिता: अब  दर्द बर्दाश्त नहीं हो रहा। क्या करूँ? यह रोहन तो उठ ही नहीं रहे।

खट!खट! खट!

परिमिता: माँ, दरवाजा खोलिए,जल्दी।

सुगंधा: आ रही हूँ, क्या हुआ?


दरवाजा खुलता है।

सुगंधा:क्या हुआ बेटा? अभी से क्यों उठ गई? सो जाओ।

परिमिता: माँ! मुझे बहुत तकलीफ हो रही है। शायद हॉस्पिटल जाना पड़ेगा। रोहन को कई बार उठाया पर वह उठ ही नहीं रहे।

सुगंधा: ये तो है ही नालायक। शायद तुझे लेबर पेन शुरू हो गए हैं। वह बास्केट तेरे ही कमरे में है ना जो बच्चे के सामान से तैयार की थी।

परिमिता: जी माँ।

सुगंधा: तू बस थोड़ी देर रुक जा। मैं सारा सामान इकट्ठा कर लूँ। रोहन! ओ रोहन! उठ जल्दी, नालायक, यहाँ बहू को दर्द हो रहा है और यह घोड़े बेच कर सो रहा है। सुनो रोहन के पापा, जल्दी उठो, हॉस्पिटल जाना है। निधि तू घर का ध्यान रखना।

सुगंधा जी की आवाज सुनकर सारे घर में अफरा-तफरी मच जाती है। 15 मिनट के अंदर सब तैयार हो जाते हैं और गाड़ी में बैठकर हॉस्पिटल की तरफ चल देते हैं।

परिमिता: आह! माँ, बहुत तकलीफ हो रही है। सुगंधा: बस बेटा,थोड़ी ही देर में हम अस्पताल पहुँच जाएँगे। रोहन जरा सँभाल कर। गड्ढों से बचाकर गाड़ी चला। बहू को एक भी झटका ना लगे।

दिनेश जी:हाँ! हाँ!जरा सँभाल कर।

सुगंधा: तुम बस हाँ, हाँ करते रहना और मोबाइल में गड़े रहना।

दिनेश जी:अब मैंने क्या कह दिया जो तुम मेरे पीछे पड़ गई।

सुगंधा: मुझे तो बहुत घबराहट हो रही है।

रोहन (हंसते हुए): ओहो! हमारी सुपर वुमन मम्मी को घबराहट हो रही है।

सुगंधा: चुप रह नालायक! ज्यादा हँसी आ रही है तुझे। बहु दर्द से परेशान थी और यह नालायक खर्राटे मार रहा था। पता है, कितनी बुरी हालत होती है एक औरत की इस टाइम?

दिनेश की आँख के इशारे से रोहन को चुप रहने का इशारा करते हैं।

अस्पताल पहुंचकर सुगंधा जी परिमिता  को स्टूल पर बैठा देती है।


सुगंधा: सिस्टर! यह मेरी बहू का चेकअप कार्ड है। इसको लेबर पेन हो रहे हैं।आप जरा जल्दी देखिए। नर्स: मैं डॉक्टर को बोलती हूँ।

डॉक्टर: हाँ! इनको लेबर पेन शुरू हो चुके हैं। नर्स, इनको रूम में शिफ्ट करके ड्रिप लगाओ और ऑपरेशन थिएटर में तैयारी करो। इनकी डिलीवरी एक-डेढ़ घंटे में हो जाएगी।

परिणीता: अब मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा।

परिणीता की कराहट हल्की हल्की चीख में बदल जाती है। नर्स परिमिता को ओ टी में ले जाती है और ओ टी के बाहर पूरा परिवार हाथ जोड़कर मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहा है। अंदर से रह-रहकर परिणीता के चीखने की आवाजें आ रही हैं।

रोहन: माँ, ये इतना क्यों चीख रही है? मुझे तो डर लग रहा है।

सुगंधा:अब मालूम पड़ा कि एक औरत कैसे जान पर खेलकर एक नए जीवन को दुनिया में लाती है?

तभी परिमिता की एक जोरदार चीख और सब शांत।

रोहन: मम्मी, क्या हुआ?????

तभी बच्चे के रूदन का स्वर सुनाई देता है  और नर्स बाहर आती है।

नर्स: आँटी! आपकी पोती आई है,बहुत सुंदर है।

सबके चेहरे पर खुशी छा जाती है।

        (पटाक्षेप)

सभी चीखें- दर्द, पीड़ा,तकलीफ का पर्याय नहीं होती। कुछ चीखें खुशियों, नवजीवन का संकेत भी होती हैं। मैंने बहुत सोचा। फिर मन में आया कि चीख को प्रसन्नता में बदलना कितना आनंददायक  होगा। आशा करती हूँकि आपको यह लघु नाटिका पसंद आएगी।

यह पूर्णतया मौलिक है।

स्वरचित ऋतु अग्रवाल

मेरठ

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