‘ सुख- दुख तो धूप-छाँव की तरह है ‘ – विभा गुप्ता 

 ” बिटिया, परदेश में हो ना,चिंता तो लगी ही रहती है।लो ,अपने पापा से बात कर लो।” कहकर आरती ने मोबाइल अपने पति आलोक को थमा दिया।उधर से आवाज़ आई, ” पापा, मम्मी को समझाइये ना, मुझे यहाँ रहते हुए पूरे आठ महीने हो गए हैं।अब तो मेरी चिंता न ..।” बेटी की बात पूरी होने से पहले ही आलोक हा-हा करके हँसने लगे।बोले, ” अच्छा, समझा दूँगा पर तुम समय पर ब्रेकफास्ट और लंच करना, अपनी सेहत का ख्याल रखना।” 

” पापा, आप भी…।” और फिर फोन डिस्कनेक्ट हो गया।

         पचपन वर्षीय आलोक और इक्यावन वर्षीय आरती की इकलौती संतान थी आकांक्षा जो इस समय कनाडा में डाॅक्टर बनने की तैयारी कर रही थी।वैसे तो उसे वहाँ गए महीनों हो गए थें लेकिन आलोक-आरती आज भी फ़ोन पर उसे ऐसे ही नसीहत देते जैसे कि वह कल ही कनाडा गई हो।दोनों ही सुबह-सुबह बेटी से बात करके अपने-अपने काम पर निकल जाते थें।आलोक सरकारी दफ़्तर में हाज़िरी देते थें और आरती एक प्ले स्कूल की संचालिका थी।दोनों की खुशहाल ज़िन्दगी देखकर पड़ोसी ईर्ष्या करते तो आलोक के सहकर्मी कहते, ” आपके तो पौ बारह हैं।” और जवाब में वो कुछ नहीं कहते,सिर्फ़ मुस्कुरा देते थें।वे जानते थें कि इस खुशी के पीछे गम का एक साया भी छिपा है।संतों ने भी तो कहा है कि दुख बिना सुख का आनंद कहाँ।

             आरती जब आलोक की जीवन-संगिनी बनी थी तो आलोक की आय उसे बहुत अधिक लगती थी और दो कमरों का सरकारी फ़्लैट बहुत बड़ा दिखाई देता था।विवाह के पाँच महीने बाद जब वह गर्भवती हुई तो उसकी खुशी दोगुनी हो गई थी।बेटी के साथ खेलने और उसे पालने में ही वह जीवन का आनंद लेने लगी थी। आकांक्षा जब चलना सीख रही थी तभी उसका देवर अनिल कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसके साथ रहने आ गया।अब उसके काम बढ़ गए।आलोक के साथ-साथ उसे अनिल के लिए भी लंच पैक करना पड़ रहा था।अब उसे अनिल की फ़ीस, किताबों के खर्चे भी मैनेज करने पड़ते थें।कभी-कभी उसे अपने हाथ भी तंग करने पड़ते थे।पर वह कभी घबराई नहीं।उसका मानना था कि सुख-दुख तो धूप-छाँव के समान हैं जिनका आना-जाना तो ज़िन्दगी में लगा ही रहता है।अब आकांक्षा भी स्कूल जाने लगी थी।घर के काम और बेटी को स्कूल ले जाने और लाने में कभी-कभी तो वह बहुत थक जाती थी लेकिन जब कभी आलोक परेशान हो जाते तब वह मुस्कुरा कर उनसे कहती, ” दुख तो बादल की तरह होते हैं,आये हैं तो चले भी जाएँगे।” और ऐसा हुआ भी।




           इधर आकांक्षा ने पाँचवीं कक्षा में दाखिला लिया और उधर अनिल की नौकरी लग गई।अब अनिल भी घर के खर्चों में हाथ बँटाने लगा तो उसके दिन भी आराम से कटने लगे।समय बीतता गया।आलोक का प्रमोशन होने से उसकी आय में भी बढ़ोतरी हुई, अनिल भी अपने साथ काम करने वाली लड़की सीमा से विवाह करके अलग घर में शिफ़्ट हो गया और आकांक्षा ने भी दसवीं कक्षा की परीक्षा पास करके इंटर में एडमिशन ले लिया था।साथ ही वह मेडिकल की कोचिंग भी कर रही थी।सबकुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन बाज़ार से लौटते वक्त एक मोटर साइकिल वाले ने आरती को टक्कर मार दी जिससे वह उछलकर एक दीवार से टकरा गई।दुर्घटना घर के पास ही होने के कारण एक व्यक्ति ने उसे पहचान लिया, उसे पास के अस्पताल में भर्ती कराके आलोक को खबर दे दिया।

        अस्पताल में खून से लथपथ आरती को देखकर आलोक को रोना आ गया।वह स्ट्रेचर पर एक कोने में बेहोश पड़ी थी,काॅम्प्लीकेटेड केस कहकर कोई डाॅक्टर हाथ नहीं लगाना चाहता था।उसने कई डाॅक्टर्स से मिन्नतें की,किस्मत से एक डाॅक्टर उसके भाई का मित्र निकला।उसने ड्रेसिंग करके एक्सरे करवाया तो पता चला कि दाहिने पैर में मल्टीपल फ्रैक्चर है।उसने आलोक से कहा कि भाभी के पैर का ऑपरेशन करना होगा जो यहाँ संभव नहीं है।हो सके तो आप इन्हें तुरंत कोलकता ले जाइए।तब तक अनिल भी सीमा के साथ आ गया था।अनिल को देखकर आलोक फूट-फूटकर रोने लगा।

            अनिल ने अपनी पहचान से कोलकता के डाॅक्टर का अपाॅइंटमेंट लिया, दो टिकटें बुक करा दीं और आरती के होश में आते ही दोनों को हवाई जहाज से कोलकता भेज दिया।माँ की एक्सीडेंट की खबर सुनकर आकांक्षा तो बदहवास हो गई थी, उसे सीमा ने संभाला।

            कोलकता पहुँचते ही अगले दिन आरती का ऑपरेशन हो गया जो सफ़ल रहा।लेकिन ज़ख्म भरने और आरती को पूरी तरह से ठीक होने के लिए उसे दस दिनों तक हाॅस्पीटल में रहना था।ऑपरेशन, दवाइओं और हाॅस्पीटल के अन्य खर्चों में उसके पैसे लगभग खत्म होने को आ रहें थें जिसे आरती ने आलोक के चेहरे पर पढ़ लिया था।उसने हाथ की दोनों सोने की चूड़ियाँ निकाली और आलोक के हाथ में देते हुए बोली, ” देखो ना नहीं कहना,इसे बेचकर पैसे ले आओ, दिन के बाद रात आती है तो रात के बाद दिन भी तो आता है।हमारे ये दिन भी गुज़र जाएँगे।देखना,मेरे पैर ठीक होते ही हमारी खुशियाँ भी वापस आ जाएँगी।चलो, अब मुस्कुराओ।” कहकर वह अपने आँसू छिपाते हुए मुस्कुराकर आलोक के आँसू पोंछने लगी।




              आखिरकार आरती को हाॅस्पीटल से छुट्टी मिल गई।माँ को फिर से चलते देख आकांक्षा की खुशी का ठिकाना न रहा और तभी उसने तय कर लिया कि डाॅक्टर बनने के बाद वह अपने ही शहर में रहकर गरीबों का इलाज करेगी ताकि किसी को भी कोलकता न जाना पड़े।

       आकांक्षा को शहर के सबसे अच्छे मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया,फ़र्स्ट ईयर के बाद उसे स्कॉलरशिप भी मिलने लगी।आरती ठीक हो गई थी लेकिन अभी भी उसे दाहिने पैर से सीधे चलने में दिक्कत होती थी।फिर भी उसने अपने आप को संभाल लिया था।लंबी छुट्टी के बाद आलोक भी अपने दफ़्तर जाने लगे थें और इनके घर की खोई खुशियाँ फिर से वापस आ गईं।

           समय बीतता गया और आकांक्षा ने अपनी डाॅक्टरी की पढ़ाई पूरी कर ली।हाथ में डिग्री तो थी लेकिन वह एमएस करने के लिए कनाडा जाना चाहती थी।उसने सारी तैयारी कर ली थी लेकिन कनाडा जाने और वहाँ एक महीने तक रहने के खर्चे का इंतज़ाम आलोक को करना था।आलोक के ऑफ़िस से लोन लेने के बाद भी कुछ पैसे कम पड़ रहे थें तब आरती ने प्ले स्कूल ज्वाइन कर लिया।सैलेरी अधिक नहीं थी लेकिन छह महीने की सैलेरी से उसे इतने पैसे मिल गये जो आकांक्षा के लिए काफ़ी थें।

          आकांक्षा कनाडा चली गयी, आलोक को उसे एक बार कुछ रुपए भेजने पड़े थे,फिर तो वह खुद ही वहाँ पार्ट टाइम जाॅब करके अपने खर्च का इंतज़ाम करने लगी थी।बेटी की ज़िम्मेदारी तो इनकी पूरी हो चुकी थी लेकिन दोनों अभी भी नियमवत अपने काम पर जाते थें।सुख और दुख,दोनों मौसमों का आनंद तो वे उठा ही चुके थें।अब उन्हें गरीब-बेसहारों की मदद करने और उनकी तकलीफ़ों को कम करने में ही सच्ची खुशी मिलती थी। 

 #कभी_खुशी _कभी_गम 

                       —– विभा गुप्ता 

       

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