सोंच नई – इरा जौहरी

कुछ झटके जीवन में समयानुकूल उपयोगी नया ज्ञान देते हैं ।अभी तक यही सोंचती थी कि जीवन में स्वास्थ्य बीमा कराना बहुत जरूरी है पता नहीं कब आवश्यकता पड़ जाये ।एसे में पास में कुछ धन हो तो काम आता है । किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता हैमम ।

पर हकीकत इससे कोसों दूर नजर आई जब वास्तव में बुरा वक्त आया स्वास्थ्य बीमे की आवश्यकता पड़ी तो पता चला कि जिस स्वास्थ्य बीमे के भरोसे हम प्राइवेट अस्पताल की ओर बड़ी आशा से भागे थे वहाँ तो उतनी बीमा राशि से कुछ होना ही नहीं था। वह राशि तो वहाँ की शुरुआती देखभाल में ही खत्म हो गयी ।और बाद में आवश्यकता पड़ने पर सबसे मदद भी माँग कर इलाज में लगाने के बाद बुरी तरह निचुड़ कर खाली हाथ सरकारी अस्पताल की ओर ही अन्त में भागे।

सच तो यह है कि हाथ खाली होने पर ही अक्ल आई कि इतना पैसा स्वास्थ्य इंश्योरेंस में देने की जगह अपनें पास बचा कर रखना था तथा जीवन को आनन्द के साथ बिना चिन्ता के गुज़ारना चाहिए था । पास में जब कोई स्वास्थ्य बीमा न होता तो बीमार पड़ने पर सीधे सरकारी अस्पताल में ही भागते । जहाँ ईश्वर का दर्जा पाये अच्छे चिकित्सकों से इलाज करा कर मुस्कुराते हुये घर तो वापस आते ।और नहीं भी आते तो सुकून तो होता कि किसी नें हमें लूटा नहीं ।आखिर बीमा राशि के अलावा सबसे मांग कर के इतना खर्च कर के भी तो हाथ कुछ नहीं आया।

अन्त में  मुझे तो अब बहुत कुछ साफ साफ दिखाई दे रहा है ।पूरा इंश्योरेंस पहले सब स्वास्थ्य माफिया  मिल कर हजम कर जाओ डकार भी न लो और फिर पाचक चूर्ण की तरह बची खुची जमा राशि भी निकलवा लो ।और जब अपच होने लगे यानी मरीज की हालत बिगड़ने लगे  उल्टी कर के  मरीज से पल्ला झाड़ लो।

समाप्त 

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लक्ष्यभेद




लाला मनसुखराम दौलत से बहुत प्रेम होने के कारण दौलत इकट्ठी करने के लिये हर सही गलत तरीका आज़माने के लिये तैयार रहते थे ।ईश्वर ने दुश्मनी निभाते हुये उन्हे दो कन्याओं का बाप बना दिया था ऐसा उनका मानना था पर हार मानना उन्होने सीखा ना था ।बड़ी बेटी ब्याह योग्य होने पर वो ललाइन के जोर देने पर  उपयुक्त पात्र की तलाश में निकले ।

          आख़िर में एक लड़का उन्हे पसन्द आया जो संयुक्त परिवार की ऊँची हवेली में अपने माता पिता की इकलौती औलाद था।जिसके माता पिता अब नही रहे थे तो वह चचेरे भाइयों संग रहता था ।लड़के वालों को दहेज की कोई चाहत ना थी बस गुणी व संस्कारी बहू चाहिये थी ।फिर क्या था आनन फ़ानन में रिश्ता तय कर आये ।जिन्दगी में खुद की मेहनत से तो वह ज्यादा कमा नही पाये थे सोचा चलो पैसे वालों से रिश्तेदारी हो गयी ।

               शुभ समय पर दोनो का विवाह सम्पन्न हो गया ।विधि का विधान कोई टाल नही पाया है तो कुछ एसा हुआ कि अचानक हुये हादसे से लड़के की मौत हो गयी ।लाला जी ससुराल जा कर अपनी बिटिया को वापस बुला लाये और सबसे लड़ भिड़ कर दामाद की सम्पत्ति बेटी के नाम करा कर सब ले आये ।धीरे धीरे बेटी से यह कह कर तुम सब संभाल नही पाओगी उसकी सारी सम्पत्ति उन्होने अपने नाम करा ली ।अब अपनी बेटी के प्रति भी उनका रवैया बदल चुका था उसको वो दिन भर कोसते और  नौकरानी की तरह काम लेते थे ।

छोटी बहन से यह सब देखा ना जाता था ।अपने  ब्याह के बाद उसने पिता की गलत बातों का विरोध करते हुऐ अपनी बड़ी बहन का विवाह उसके योग्य व्यक्ति से करा कर उसका जीवन सुखमय बना दिया ।

समाप्त 

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“लज्जा”

“लाज के मारे मरि मरि जाऊँ ।इत जाऊँ। उत जाऊँ ।मैं कित जाऊँ ।कुछ समझ न पाऊँ ।”

   गया जमाना जब कुछ इस तरह से घर की पर्दानशीं स्त्रियों  की सोंच हुआ करती थी ।चाहें उस घूँघट के अन्दर से किसी को भर भर गरिया लें ।जाने कितने लोकगीत गारियों यानी गालियों से भरे पड़े हैं । मजे की बात यह कि कोई बुरा नही मानता न कहने वाला और न ही सुनने वाला ।और जब ऐसा हो तो काहे की लाज यानी लज्जा या शरम।एक कहावत भी खूब कही जाती है जिसने की शरम उसके फूटे करम।तो हमारी राय तो यही है कि जो करना है बिन्दास करो। 

आगे कहना चाहूंगी कि बड़े बूढ़े कह गये हैं लज्जा मन की होती है । पर्दा आँखो का होता है ।किसी को इज्जत देनी हो दिल से देनी चाहिये।पर्दा कर लजाने से किसी को ज्यादा इज्जत नहीं  दी जा सकती।

वैसे पुरानी फिल्मों में बहुत से दृश्य मिल जायेंगे जिनमें नायिका की कमर लाज के मारे दोहरी हुई जातीं थी पलकें थीं कि शरम के मारे झुकी ही जाती थी ।एक मशहूर गाना भी है ये झुकी झुकी पलकें नयन कजरारे..

किसी को उलाहना देना हो तब भी सुना देते हैं लोग “तुझे लाज नहीं  आती ऐसा करते हुये । चुल्लू भर पानी में डूब मरो।”

तो इस तरह लाज या लज्जा का हमारी संस्कृति में कई तरीके से आज भी  प्रयोग किया जाता है ।हलांकि आज के समय में न कोई लाज से मरता है और न ही किसी को लाज से मरने के लिये प्रेरित ही करता है ।

रही बात संस्कृति की तो विश्व भर में संस्कृति का आदान प्रदान हो रहा है कहीं आधे अधूरे वस्त्रों में लोगों को लाज आती है तो कहीं  संस्कृति की झलक दिखती है ।वही उनकी पहचान है।

समाप्त 

इरा जौहरी

स्वरचित

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