हवन वेदी के सामने श्रीकांत धीर गम्भीर शांत मुद्रा में विराजमान हो, पंडित जी द्वारा बतायी जा रही पूजा विधि का अनुसरण कर रहा था । उसके मुख पर एक अलौकिक चमक थी। उसे निहारतीं हुई गायत्री जी मन ही मन सोच रही थी, सुबह से हवन पूजन की सामग्री,ब्राम्हण भोज की तैयारी में जुटा हुआ, कितना अधीर हुआ जा रहा था और अब देखो कितनीं शान्ति है इसके चेहरें पर….।
“यक़ीन नही होता, ये मेरा वही बेटा है”,जिसे बचपन मे पूजा- अर्चना, धूप -दीप ,अगरबत्ती किसी से मतलब ना होता ” मुझ जैसी धार्मिक, आस्थावान माँ का इकलौता पुत्र ऐसा कैसे नास्तिक निकल गया..सोंचकर उनका मन दुःखता था !
यजमान आँख बंद कर ईश्वर का ध्यान कर पहली आहुति दें…
“अग्नवये कत्यवाहनाय स्वाहा” पण्डित जी की आवाज़ सुनकर, सभी ने आहुति देकर स्वाहा ss कहा गायत्री ने भी हौले से स्वाहा कहा।
मंजरी ,श्रीकांत की पत्नी उसी की तरह बुद्धिमान डॉक्टर लेकिन ईश्वर भक्ति में लीन रहनें वाली,भजन कीर्तन करने वाली, हर कथा, पूजन को बड़े मनोयोग से करनें वाली, दूबा, बेलपत्र, हल्दी ,कुमकुम, चंदन, नारियल,सुपारी, इत्यादि बड़े ज़तन से जुटाती, उसे पाकर तो जैसे धन्य हो गईं थीं गायत्री जी।
श्रीकांत के जन्म से पहले चारों धाम की यात्रा का संकल्प लिया था उन्होंने पर उस संकल्प को पूरा ना कर पायीं थी। सात आठ बरस बाद भी जब बहू की गोद ना भरी तो पोता पोती की चाह में गायत्री जी, बेटे श्रीकांत से चारों धाम की यात्रा करनें की ज़िद कर बैठी।
जोड़ों के दर्द से परेशान माँ को इतनी लंबी यात्रा कैसे कराएँ ? धर्मसंकट में फँसे बेटा बहु खुद ही ने यात्रा का मन बनाया था।
गायत्री जी ने घर के मंदिर से भगवान जी के श्री चरणों में रखें सिक्को को थैली में भरकर ,मंज़री बहू के हाथ में थमाकर कहा था,
” मंज़री बेटा इसे गंगा जी में प्रवाहित कर आना ”
“जी! माँ जी” कहती हुई मंज़री ,उनके चरण छूकर आशीर्वाद लेकर शाम को श्रीकांत के साथ केदारनाथ बद्रीनाथ के लिए रवाना हो गयी थी….।
श्रीकांत और मंज़री ने बद्रीनाथ, केदारनाथ धाम की यात्रा कर ऋषिकेश पहुँचकर गायत्री जी को अपनी कुशल क्षेम बतायी थी।लगातार हो रही बारिश के चलते दो दिन होटल में रहे थे दोनों और ना जानें मंज़री को अचानक क्या सूझी, श्रीकांत को होटल में सोता छोड़ “माँ जी की दी हुई सिक्कों की थैली, माँ गंगा में तिरोहित करके जल्दी आ जाऊंगी ” संदेश, एक कागज़ पर लिखकर सुबह सुबह चुपचाप निकल पड़ी…।
श्रीकांत जागा तो सन्देश पढ़कर, उसे खोजने निकल पड़ा पर उसे कहीं नहीं मिली वह । किसी ने बताया घाट पर नदी के उफ़ान पर कुछ लोग बह गए…
इतनी तेज मूसलाधार बारिश में कोई नाविक ,गोताखोर नहीं मिला जो उफ़नती नदी में बहे हुए लोंगों को खोजता..
आसपास के इलाके में मंजरी की खोज में कई कई दिन भटकता रहा था श्रीकांत। ख़ूब खोजबीन की, शवों में खोजा ,मृतकों की सूची में खोजता रहा पर मंजरी नहीं मिली… .कई दिनों के अथक प्रयास के पश्चात भी जब उसकी कोई खैर ख़बर नहीं मिली तो थक हारकर खाली हाथ अकेले ही लौट आया घर…।
मंज़री का इस तरह से जाना ,भीतर तक व्यथित कर गया था उसके मन को…
फिर तो उसनें दोबारा विवाह ना करने के संकल्प के साथ ही एक और प्रण ले लिया और हर लावारिश शव का पूरे विधि विधान से दाह संस्कार की अंतिम क्रिया करता … ।
फिर हर वर्ष पितृ अमावस्या के दिन अपनें कुल के पितरों व मंज़री के साथ उन सभी मृतकों के लिए भी शांति पूजन करता …
यही मंज़री की लिए उसकी सच्ची श्रद्धांजलि थी…..।
अपनों के लिए, अपनें पूर्वजों के लिए तो हर कोई करता है लेकिन लावारिसों/अनाथों के लिए, सच्ची भावना से उनकीं आत्मा की शांति के लिए, श्रीकांत द्वारा प्रतिवर्ष श्राद्ध पूजन विधि विधान से सम्पन्न करता देख , गायत्री जी को बहुत गर्व होता अपनें पुत्र पर।
“सभी अपनें हाथ में अक्षत और पुष्प लें “
पंडित की आवाज़ से गायत्री जी ने चौककर खुद को संयत किया और वे भी सबके साथ मंत्र को दोहराने लगी …
— सपना शिवाले सोलंकी