“शर्त नहीं समझौता” – डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा

घर में सब लोग आराम से सो रहे हैं , तुम कहां जाने की तैयारी में लगी हो ? आज तो संडे है फिर सुबह -सुबह  बैग सम्भालने का क्या मतलब है जरा मैं भी तो सुनूँ? रावी बिना कोई जबाव दिये अपने धुन में भाग कर बाथरूम में गई।थोड़ी देर के बाद लौटकर कमरे में आयी तो सागर उसे अजीब सी नजरों से देखे जा रहा था ।

रावी ने बाल बनाते हुए कहा-” तुम ऐसे अचरज के साथ मुझे क्यूं देख रहे हों?  मैं नानी जी के घर जा रही हूँ माँ को लेने। “

माँ को लेने… माँ को लाने की इतनी बेचैनी क्यूं है तुम्हें? रहने दो न! कुछ दिन और रह लेंगी अपने भाई भतीजे के पास तो उनका मन लग जाएगा और तुम्हें भी आराम हो जाएगा, थक जाती हो सबका ख्याल रखते- रखते।

रावी ने कहा-” अरे थकने की क्या बात है वह तो मेरी जिम्मेदारी है। दस दिन हो गया माँ को वहां गए हुए अब कितना दिन रहने दूँ उन्हें वहां पर। उन लोगों के भी अपने बाल बच्चे हैं, जिम्मेदारियाँ हैं। हम घूम-फिर कर आ गये न! अब ले आती हूँ उन्हें।

सागर की खीझ साफ तौर पर उसके चेहरे पर दिखाई दे रही थी वह बोला-” कभी अपनी जिम्मेदारी भी निभाया करो। यहां की भी जिम्मेदारी तुम्हारी ही है जब देखो माँ- माँ किये रहती हो। खुद भी एक माँ हो उसका क्या? “

रावी अंदर तक तमतमा उठी। पलटकर बोली-” तुम कहना क्या चाहते हो? मैं अपनी कौन सी जिम्मेदारी भूल रही हूँ?”

हाँ बिल्कुल भूल रही हो। दस दिन तक मेरे मम्मी-पापा भी तो यहां नौकर के भरोसे थे। क्या सास-ससुर की सेवा तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है। कुछ दिन उनकी देखभाल करो, बच्चें के साथ रहो उनका भी तो तुम पर अधिकार है । मेरे लिए तो तुम्हारे मन में जगह है भी या नहीं ये तो तुम्हें ही मालूम है।

  “मैं माँ को दूसरे के भरोसे नहीं छोड़ सकती। मैं शाम तक वापस आ जाऊँगी।”

“कुछ दिनों बाद ले आना माँ को मामाजी के यहां से। तुम्हारे बिना दुनियां नहीं छोड़ रही हैं वो समझी…।”


रावी ने अपने हाथ में लिए हुए हैंडबैग को टेबल पर रख दिया और वहीं कुर्सी पर बैठ गई। सागर बोले जा रहा था और रावी उसके तीखे आव -भाव को आश्चर्यमिश्रित आखों से एकटक देखे जा रही थी।

यह वही सागर है जो पाँच वर्षों तक उसके ‘हाँ’ कहने के इंतजार में बैठा था। उसके बार -बार  इंकार के बाद भी सागर ने अपना धैर्य नहीं खोया। रावी सोचते हुए जाने कब अतीत में खोती चली गई।

माँ- पिताजी रावी और उसका छोटा भाई। चार लोगों का प्यारा सा परिवार। दोनों भाई बहन हँसते -खेलते पढ़ते लिखते कब बड़े हुए पता ही नहीं चला। रावी अभी एम.बी.ए फाइनल में ही थी तभी छोटे भाई को आर्मी में लेफ्टिनेंट की नौकरी मिल गई थी ।पिताजी का सपना साकार हो गया था। पूरा घर- परिवार रिश्ता -नाता भाई की कामयाबी हासिल करने पर गौरवान्वित हो गया। परिवार का तो जैसे भाग्य ही बदल गया था। लेकिन जाने किसकी नजर लगी की भाग्य दुर्भाग्य में बदल गया। भाई की पहली पोस्टिंग लद्दाख में हुई थी। ढेर सारे अरमान आँखों में बसाये पिताजी ने अपने जिगर के टुकड़े को विदा किया था।

दीपावली में एक महीने की छुट्टी में वह घर आने वाला था। माँ ने अपनी खुशियां दुगुनी करने के लिए कुछ करीबी रिश्तेदारों को भी बुलाया था। इस बार जम कर आतिशबाजी होने वाली थी। दो दिन पहले एक ऐसी खबर आई जिसने खुशियों को मातम में बदल दिया। भाई देश के दुश्मनों के भेंट चढ़ चुका था और उसका निष्प्राण शरीर तिरंगे में लिपट कर दीपावली के दिन दरवाजे पर आया था। घर का दीपक बुझ चुका था। पूरे मुहल्ले में एक भी दीये नहीं जले। भले ही देश का मस्तक ऊँचा हुआ था पर एक माँ का कोख खंडहर हुआ था। एक बाप ने अपने बुढापे का सहारा खोया था। एक बहन ने अपनी खुशियां गंवाई थी।

पिताजी इस हादसे को नहीं सह पाये थे। साल लगते लगते वे भी रोती -विलखती माँ -बेटी को अनाथ कर इस दुनियां को छोड़ बेटे से मिलने ना जाने किस देश में चले गए। माँ तो माँ ही होती है कब तक दिल की हूक बर्दाश्त कर पाती असमय दिल की मरीज हो गई।

  नियति ने रावी को दुनियां के मेले में अकेला कर दिया। अब उसे स्वयं ही अपनी धाराओं के साथ बहते हुए जिंदगी के मंजिल तक पहुंचना था। पर रावी एक शिक्षक की बेटी और फौजी की बहन थी। हार मान लेना उसके खून में नहीं था। उसने अपने परिवार की जिम्मेदारी को अपना फर्ज बना लिया और चल पड़ी दुनियां की पथरीली राह पर….। वो कहते हैं ना कि जो अपनी मदद आप करता है उसकी मदद के लिए स्वंय उपरवाला तैयार रहता है। 

रावी ने जिस कंपनी को ज्वाइन किया था। उसमें सागर उसका सीनियर अधिकारी था। रावी के काम करने के तरीके का वह कायल था और यही वजह था कि धीरे-धीरे दोनों की नजदीकियां बढ़ती गईं। सागर रावी के घर आने जाने लगा। उसने रावी की माँ को अपनी माँ की तरह आदर और सम्मान देने लगा। माँ की आंखों ने सागर में ही रावी का भविष्य देखा। जब भी मौका मिलता वह घूमा फिरा कर सागर की तारीफ बेटी से करते नहीं थकती। ऐसा नहीं था कि रावी माँ की मनसा नहीं समझ रही थी पर इतनी ही उम्र में उसने दुनियां के रंग रूप को अच्छी तरह से परखा था। उसने अपने लिए सोचना ही बंद कर दिया था।



एक बार रावी ट्रेनिंग के सिलसिले में शहर से दूर थी। माँ को हर्ट अटैक आया था। जब वह वापस आई तब माँ से ही उसे मालूम चला। सागर ने पांच दिन तक हॉस्पिटल में जी -जान लगाकर माँ की सेवा की थी लेकिन रावी को कोई खबर नहीं होने दी। उस घटना ने रावी के नजर में सागर को महान बना दिया। वह कई बार कह चुकी थी कि माँ मैं कैसे सागर सर का अहसान चुका पाऊँगी।

सागर हमेशा यही कहता कि मैंने कोई अहसान नहीं अपने सीनियर होने का फर्ज निभाया है। लगभग पांच साल तक यही सिलसिला चलता रहा। माँ अब पहले से कमजोर और चिंतित रहने लगीं थीं। एक दिन उन्होंने अपने मन की बात सागर के सामने रख दिया।

सागर ने माँ से  कहा -” माँ मैं पिछले तीन सालों से इसी इंतजार में था कि आप अपने मूंह से बताएंगी कि मैं आपकी बेटी के लायक हूँ या नहीं। “

माँ की आंखों से खुशी बरसने लगी। उन्हें लगा उनका बेटा वापस आ गया है। उन्होंने सागर का हाथ अपने दोनों हाथों से थाम लिया। बोली-” बेटा रावी का हाथ थामकर मुझे अपने कर्तव्यों से मुक्त करो।”

सागर ने कहा-“माँ मैं तैयार हूँ आप रावी से पूछ लीजिए उसकी मर्जी है या नहीं।”

उस रात खाना खाने के बाद रावी माँ को दवाइयां देकर आराम से सुलाने के लिए सिरहाने तकिया लगाने लगी तब माँ ने सही समय देखते हुए अपनी बात कह डाली। रावी एक दम से विफर पड़ी-” माँ अगली बार से ऐसी बात अपनी जुबान पर लाना भी नहीं मैं सागर सर का सम्मान करती हूँ बस,इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। “

उस समय तो माँ ने कुछ भी नहीं बोला पर धीरे-धीरे बेटी के लिए चिंता के कारण उनकी सेहत गिरती चली गई। रावी डर गई उसे लगने लगा कि कहीं उसकी जिद की वजह से वह पिता और भाई की तरह माँ को भी न खो दे। उसने सौ बार सोचा फिर मन को बहुत समझाने के बाद खुद से एक समझौता किया और जाकर माँ से बोला-” माँ तुम चाहती हो न कि मैं शादी कर लूं तो ठीक है पर मेरी एक शर्त है तुम्हें  मेरे साथ रहना होगा। यदि  पसंद है तो तुम मुझे बता दो मैं शादी के लिए तैयार हूँ।” 

माँ को लगा भगवान ने उनकी मुराद पूरी कर दी उन्होंने सोचा बच्ची की जिद है अभी हाँ कहने में क्या जाता है बाद में उसे दुनियादारी समझा देंगी। कम से कम शादी के लिए हाँ तो कर दिया बेटी ने। तुरंत ही उन्होंने सागर को फोन लगाकर सारी बातें बता दी और जितनी जल्दी हो सके मिलने के लिए कहा।

सागर तो पहले से ही तैयार था। रावी से हाँ सुनने की देरी थी। रावी सागर दोनों मिले। रावी ने सागर से मिलकर साफ शब्दों में अपनी शर्त रख दी। सागर ने खुशी- खुशी अपनी मंजूरी दे दी। इस समझौते के विषय में माँ को कुछ नहीं बताया गया।

माँ बहुत खुश थीं आज उनकी रावी दुल्हन बनने जा रही थी। वह बार- बार पिताजी के फोटो के पास जाकर हाथ जोड़ रोने लगती । मौन शब्दों में उनकी आंसुओं से भरी आँखे बोल उठती तुम्हारे बिना विदा कर रही हूँ तुम्हारी लाडली को……अपना आशीर्वाद देना।

विदा होने से पहले रावी ने माँ के भी समान को पैक कर लिया था। माँ ने लाख मना किया पर रावी नहीं मान रही थी । रिश्तेदारों ने मिलकर समझाया बेटा ससुराल जाओ हम सब अभी हैं तुम्हारी माँ के साथ। सागर ने हाथ जोड़कर माँ से साथ चलने की विनती की तब माँ ने कहा कि कंपनी से जब फ्लैट मिलेगा तब वह रावी के साथ रहने के लिए सोचेगी।

रावी को कंपनी से फ्लैट मिल गया। उसने माँ को बुला लिया। रावी और सागर के साथ माँ बहुत खुश थीं। रावी के पहले बच्चे के जन्म के समय सागर के माता-पिता बेटा बहू के पास रहने आ गए।

कुछ दिन तक तो सब ठीक था पर धीरे-धीरे सागर का व्यवहार बदलने लगा। उसे रावी की माँ खटकने लगीं। रावी तन -मन से सास -ससुर की सेवा करती ताकि उन्हें ये ना लगे कि वह सिर्फ अपनी माँ पर ध्यान देती है। लेकिन सागर गाहे -बगाहे रावी को उलाहना देने से नहीं चुकता था। रावी अपनी माँ के लिए सब कुछ सहने के लिए तैयार थी। सागर जानबूझकर रावी को जहां -तहां ऑफिस के टूर पर भेज देता ताकि वह अपनी माँ से दूर रहे।

माँ को भी कहां अच्छा लगता था कि वह बेटी दामाद के उपर बोझ रहे पर पता नहीं क्यूं बेटी का मोह उन्हें जाने ही नहीं देता था। रावी के नहीं रहने पर उनकी स्थिति आया जैसी हो जाया करती थी। कल रावी को एक टूर में सपरिवार जाना था पर सागर के पिताजी ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह रावी की माँ के साथ नहीं जाएंगे। रावी ने जब ससुर जी का फरमान सुना तो चुपके से माँ को नानी से मिलाने के बहाने उनके पास लेकर आई और यह कहकर छोड़ दिया कि टूर से लौटते ही वह माँ को आकर ले जाएगी।



“मेरे मूंह पर कुछ लिखा है क्या जो घंटे भर से स्टडी  कर रही हो ।” सागर के तीखे आवाज से रावी वर्तमान में लौटी।

“आपने कुछ कहा क्या?” 

सागर ने कहा-” हाँ यही कहा कि कहीं जाने की जरूरत नहीं है। मैं कोई शर्त नहीं हार  बैठा था कि जिंदगी भर तुम्हारी  माँ का बोझ माथे पर रखूँगा ।”

एक बात आप अच्छे से समझ लीजिए।मेरे अलावा मेरी माँ का इस दुनियां में कोई नहीं है ।माँ की वजह से ही मैंने शादी के लिए अपने आप से और साथ ही साथ आप से भी समझौता किया था। और अब ,अपनी माँ को छोड़ देने को लेकर मैं कोई समझौता नहीं कर सकती। मैं जा रही हूँ उनके पास। आपको मेरी बात समझ में आ जाय तो कॉल कीजियेगा नहीं तो मैं अपनी माँ के लिए सक्षम हूँ । उनके लिए मैं सब कुछ छोड़ सकती हूँ। एक झटके में रावी ने बैग उठाया और बाहर निकल गई।

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर,बिहार

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