सरमाया – अंजू निगम

“आई की नहीं अभी तक?” चाची भनभना गई।

“अभी तो नहीं।”लेटे लेटे ही शंशाक ने जवाब दिया।

” चाय पत्ती लेने में इतना समय लगता है? एक काम बोलो तो वह भी ढंग से नहीं कर सकती। पता नहीं माँ ने क्या सीखाया है? इतने धीरे हाथ चलते है।” चाची का प्रवचन चालू था।

” माँ, आप भी न, एक -एक चीज़ मँगवाती हो। एक साथ लिस्ट बना लिया करो। आजकल तो घर आकर फ्री डिलीवरी कर जाते है।” शंशाक ने ज्ञान बघारा।

” मुझे अक्ल न सीखा। सारे दिन खाट तोड़ता है। थोड़ा हाथ-पैर चला लिया कर। बड़ी तरफदारी करता है। जा, उठ कर देख आ। कहाँ निकल गई ?कहीं कोई ऊँच-नीच हो गई तो इसकी अम्मा दस ताने देगीं।” नीलम का अलाप जारी था।

“ताईजी आपको सुनायेगी? कभी सुना तो नहीं। माँ, आप भी हाथ धोकर पीछे पड़ जाती हो। मैंने कहा था शाम को ले आऊँगा पर आपको तो धुन सवार हो जाती है। आपको अभी चाय पीनी है क्या? अब इतनी धूप में कहाँ ढूंढने जाँऊ सिया को ?” शंशाक खीझ गया।

“जा अब। बहस फिर कर लेना।” नीलम अब वाकई परेशान थी।

बहन की चिंता ने शंशाक को भी बिस्तर से उठा दिया। तभी डोरबेल बजी। सिया ही थी।

“कहाँ रह गई थी लड़की? चाय पत्ती लाने में इतनी देर लगती है?” पसीने से तर ,सिया को नजरअंदाज कर नीलम उस पर बरस पड़ी।

“चाची, लाला की दुकान बंद थी तो मैं गली के नुक्कड़ वाली परचून की दुकान तक चली गई थी।” चुन्नी से पसीना पोछंती सिया ने सफाई दी।

“दी, आप पहले बैठो। मैं पानी ले आता हूँ।” कह सिया के हाथ से चाय का डिब्बा ले उसने ठप्प से माँ के हाथ थमा दिया।


“लीजिये, चाय पीजिए।”कह शंशाक पानी लेने अंदर की ओर बढ़ गया।

अगले तीन दिन नीलम का मुँह चढ़ा रहा। सिया अजब कशमकश में फंसी थी। उस दिन के बाद से नीलम मारे कुढ़न के सिया का खाना उसके कमरे में पहुँचाने लगी।

” चाची, आज मैं रसोई पका देती हूँ। आप बैठिये। ” चौथे दिन सिया संकोच में पड़ते हुये बोली।

“अरे! तुमसे मैं काम न ले पाऊँगी अब। तुम्हारे भाई को पता चला तो मेरी आफत कर देगा। तुम तो भई, आराम करो। ” जानबूझकर शंशाक को भी सुनाती नीलम बोल उठी।

“दी, आप ऊपर आ जाईये। अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगाईये। चुल्हे- चौके के लिए कल से रत्ती को बोल दिया है।” शंशाक भी माँ को ही सुनाता ऊँचे सुर में बोल उठा।

नीलम के सारे  दाँव-पेंच खाली जा रहे थे। उसका अपना ही पेट का जाया उसकी गत बना रहा था। भला किसके लिए ? इन टुच्चे माँ-बेटी के लिए। मारे क्षोभ के वह रसोई के बरतन ही जोर-जोर से धरने-उठाने लगी।

सिया के कदम वहीं जड़ हो गये। शरीर सुस्त हो गया। वह तो एक-एक कदम संभल कर ही निकालती है। पापा के जाने के बाद घर के हालत बिगड़े न होते तो माँ कभी आगे की पढ़ाई के लिये उसे यहाँ न भेजती। फिर माँ ने कह कर तो भेजा था कि चाची के कामों में पूरी मदद कर देना। तभी तो आते ही पूरा रसोई का भार अपने ऊपर ले लिया था उसने।

सिया असंमजस में खड़ी रही। 

“दी, आप ऊपर आईये।” शंशाक ने फिर आवाज दी।

नीलम का मुँह अनदेखे अपमान से काला पड़ गया।

उसी अति संताप में उसने सिया को तीखा उलहाना दिया,” जाईये। ए.सी.की हवा खाईये। हम है न खटने के लिए। जब खाना बन जायेगा, आ कर ले जाईयेगा, नहीं तो हमें ही आदेश दे दीजिएगा, खाना पहुँचा दूँगी।” इस अति सम्मान के पीछे छिपा गहरा दंश सिया को गहरे चुभा।

आवाज ऊँची थी और कथन का मर्म शंशाक के कान झुलसा गया था। वह दनदनाते नीचे पहुँच गया।

” दी, आप ऊपर जाईये। माँ शायद वे चार साल भूल गई जब ताऊजी-ताईजी ने मुझे अपने पास रख कर पढ़ाया था। आज ताईजी का समय फिर गया है तो क्या ,मैं हूँ सब संभालने के लिए। दी, आपके अदंर अगर थोड़ा भी स्वाभिमान बचा है तो शाम की बस से घर लौट जाईये। आगे की फ्रिक करने के लिए अभी आपका भाई जिंदा है । आपकी पढ़ाई नहीं रूकेगी। स्वाभिमान को दाँव पर लगा कर जीना तो ताऊजी ने नहीं सिखाया था आपको।” कहते शंशाक का मन भर आया।

“लेकिन भईया, आप चाची को कुछ नहीं कहेगे अब।” एक स्वाभिमान ही नहीं इंसानियत के भी पाठ सिया ने पापा से.पढ़े थे।

नीलम की क्षोभ की आँच एकदम बुझ गई थी।

 

अंजू निगम

नई दिल्ली

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