“अरे! चंदू की दुकान खुल गई।”
जय मन ही मन बुदबुदाया। घर के बिल्कुल सामने जूते-चप्पल सुधारने की छोटी सी गुमटी जिसे चंदू ने अपनी मेहनत से धीरे-धीरे कर खरीद भी ली थी जिसमें वह सुधारने के साथ ही साथ वह कुछ जूते बना भी लेता था। बीस साल से घर के सामने दुकान होने से जय को उससे आत्मीय लगाव हो गया था, पर कोरोना ने चंदू को अपना शिकार बना लिया। बस तभी से दुकान बंद थी। गाहे-बगाहे जय को उसके बच्चे का ख्याल हो आता था। जरूरत पड़ी तो उसकी सहायता करने का ख्याल लिए हुए वह दुकान के सामने जा खड़ा हुआ।
” अरे! बेटा… तुमने दुकान खोल ली है?”
” हाँ अंकल।” वह बड़ी कुशलता से टूटी हुई चप्पल को सिलता हुआ बोला।
“बीस साल से घर के सामने चंदू को देखने की आदत पड़ गई थी… पर बेटा तुम अपने आप को बेसहारा मत समझना।”
” अंकल… पापा ने हमें बेसहारा नहीं छोड़ा… ये उनकी मेहनत से बनाई हुई दुकान है न… दिनभर अगर मेहनत से इसमें काम करूँगा तो हमारा घर तो चल जाएगा।”
उसकी हिम्मत और आत्मविश्वास ने जय को चकित कर दिया था।
” पर … तुम बहुत छोटे हो।”
” छोटा नहीं मैं पिछले महीने अठारह साल का हो गया हूँ …।”अब वह एक जूते का तला सिल रहा था।
” तुम भी तो इस साल बारहवीं में हो…चंदू को तुम्हारी पढ़ाई की बहुत चिंता रहती थी… फिर यह काम भी तो अभी अच्छे से तुम्हें नहीं आता होगा ।”
“अभी तो स्कूल की छुट्टियाँ हैं , फिर मैं यह दुकान सुबह और शाम ही खोलूँगा… पापा के साथ जब मैं छुट्टियों में दुकान आता था तो सब सीख गया हूँ।”
उसने पुराने रखे रखे जूतों को भी अच्छी तरह से पालिश करके रख दिया था।
“फिर भी…।”
” अंकल मैं इतनी मेहनत तो कर ही लूंगा कि माँ और दादी को कोई परेशानी न हो…।”
दुकान से बाहर निकलते हुए
जय ने उसके सर पर हाथ फेरा…
” स्कूल जरूर जाना बेटा…क्योंकि तुम्हे स्कूल की नहीं, स्कूल को तुम्हारी ज़रूरत है।
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रश्मि स्थापक