ससुराल गेंदा फूल….!! – विनोद सिन्हा “सुदामा”

अवनि ओ अवनि..

कहाँ हो..सुनती क्यूँ नहीं…

अरे जिंदा भी है कि मर गई…नासपीटी. जवाब क्यूँ नहीं देती..

वृंदा जी अपनी बहू अवनि को आवाज लगाए जा रही थी..लेकिन बहू थी कि कोई जवाब ही नहीं दे रही थी…

उफ्फ…

ये लड़की भी न…

जबसे आई है नाक में दम कर रखा है…..न खुद चैन से रहती है न मुझे चैन से रहने देती है….

मना किया था अवनीश के बाबू को मत ब्याहो अवनीश को इस लड़की से..बिन माँ की बच्ची क्या सीखा क्या नहीं..लेकिन मेरी सुने तब न…

दोस्त का मुह देख ब्याह लाए…

भुगतना तो मुझे पड़ता है…खुद तो दुकान चले जाते…

वृंदा जी अपने आप में बड़बड़ाते हुए..बहू के कमरे की ओर बढ़ गई..

देखा बहू पलंग की ओट पकड़े..जाने किस दुनिया में खोई थी….

कब से आवाज दे रही तुम्हें….सुनती क्यूँ नहीं…

कुछ नहीं माँ जी…बस..आपकी आवाज सुनाई नहीं पड़ी…

कहकर उसने झुककर सास के पैर छू प्रणाम किया…

खुश..रह..।।।

एक तू ही है जिसे मेरी तेज आवाज नहीं सुनाई पड़ती …दूसरी बहुओं को तो धीरे भी बोलो तो उसे तेज ही लगती है….

ज््््जी…

अवनि की आवाज भर्राई थी…आँखें भी लाल थी….उसकी

लगता फिर आँसू बहा रही थी ..

क्या हुआ…..???

ज््््जी..कुछ….नहीं..वो….

फिर झगड़ा हुआ ..?? अवनीश ने फिर कुछ बोला क्या…???

नहीं माँ जी ऐसी कोई बात नहीं

सब समझती हूँ..सास हूँ तेरी और तेरे पति की माँ

कोखजना है वो..मेरा

मुझसे बेहतर उसे तू नहीं समझ सकती…

बोल क्या हुआ…क्यूँ टेसुए बहा रही…

जी…. वो फीकी चाय को ले…

ओहहहह…नालायक….

आने दे उसे..खबर लेती हूँ….उसकी

वृंदा जी ने बेटे के लिए धमकी भरे स्वर में कहा…



और तू भी न….

छोटी छोटी बातों पर ध्यान रखा कर…

साल हो चले शादी को…

अब तक तो तुझे पसंद ना पसंद समझ आ जानी चाहिए थी उसकी..??

छः महीने..

अवनि ने सास के कहे समय काल को सही करते हुए कहा…

तो… छः महीने काफी नहीं होते…???

यहाँ तो एक दिन..एक घंटे में इंसान की कमियां..उसके पसंद और नापसंद मालूम चल जाते हैं..

और तू है कि…छ महीने ऐसे कह रही मानों छः हफ्ते हुए हो शादी के…

वैसे.. दिल का बहुत भोला है..मेरा बेटा..

हाँ यह अलग बात है कि अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रहता उसे..थोड़ा गुस्से वाला है..

लेकिन शांत भी बड़ी जल्दी हो जाता है..

और तू….

कितनी बार कहा है तुम्हे ज्यादा मत सोच…

उसकी बातों को मन पर मत ले..मगर तू है कि समझती ही नहीं…

जानती हूँ वो तेरी कद्र नहीं करता…उसे तेरी शालीनता की समझ नहीं लेकिन वो तुम्हे हृदय से प्रेम करता है यह पता है मुझे… उसने कभी किसी तरह की तेरी शिकायत नहीं की…मुझसे..

उसे जो कहना सुनना होता है..तुझे कमरे में कहकर चला जाता है..

इसलिए कहती हूँ…

वो चिल्लाता भी है तो तू जरा खामोश रहा कर..वो भी तेरी ख़ामोशी इतनी गहरी होनी चाहिए कि उस बेकद्र की चीख निकल जाए…आत्मा रोने लगे उसकी…

वृंदा जी ने बहू को समझाते हुए कहा…

सास की इस तरह संतावना देती बातें पति अवनीश के हर कहे कठोर शब्द़ों पर मरहम लगा देती…

कभी कभी तो अवनि को अपनी सास पर बड़ा गुस्सा भी आता था और प्यार भी.. थोड़ा आश्चर्य भी..होता..इतनी समझदार इतनी समझदारी भरी बातें करती कि लगता माँ बैठी हो सामने..

हालांकि अवनि को पता था अपनी रूखी बोली के उलट उसकी सास एक कोमल ह्रदय की महिला थी..जो भी कहना होता है वह घर में ही कहती है..लेकिन बाहर अपनी बहुओ की तारीफ करते नहीं थकती..

लेकिन फिर भी दो बहुओ को छोड़ सास का उसे ही जली कटी सुनाना अच्छा नहीं लगता था उसे…

बेटा भी उन्हीं के नक्शेकदम पर…..जो जब मन में आता अवनि को सुनाकर चला जाता…यह भी नहीं सोचता…उस पर क्या बीतेगी…

लेकिन सास की बाते सुन उसका सारा गुस्सा शांत हो जाता..

अवनीश जब भी रूखा व्यवहार करता या फिर अवनि को कुछ कठोर वचन कहता.सास इतनी प्यार से बातें करती कि..पूछो मत…

देख..बहू..

मेरी कोई बेटी नहीं..पर तू भी तो मेरी बेटी ही है न..

माना तुझसे मेरा खून का कोई रिश्ता नहीं पर इन्सानियत और प्यार का रिश्ता तो है ही

फिर बेटी हो या बहू..

कोई भी हो…उसे किसी तरह की कोई तकलीफ़ हो या वह तकलीफ में रहे..सास हो या माँ..मन को दुख तो होगा न..



जी..माँ जी..अवनि ने सर हिलाते हुए कहा…

तब तक वृंदा जी अवनि के पलंग पर पैर पसार बैठ चुकी थी…और अवनि के हांथ स्वतः वृंदा जी के पैरों पर…

उफफ््््् ये घुटने का दर्द…

अवनि सास के पैर दबा रही थी और वृंदा जी हर रोज़ की भाँति अपनी प्रवचनों से अवनि को..निहाल कर रहीं थी.

तुझे यह सब इसलिए कह रही कि..तू कोई वाद-विवाद नहीं करती..लेकिन तू अभी कच्ची है…बहुत से लोग तुझे बहुत सी बाते कहेंगे..कभी मुझे यानी सास को लेकर तो कभी पति को लेकर..

पर सच तो यह है कि बेटी और बहू के बीच एक बहुत बारीक सी रेखा होती है. जरूरत सिर्फ उसे खत्म करने की होती है. माँ हो बेटी हो या फिर सास बहू..पीठ पीछे एक दूसरे की कमियां निकाल देना अलग बात है..लेकिन सास बहू के रिश्ते को निभाना अलग होता है..सच पूछो तो कमी न माँ में होती है न सास में .न बेटी में होती है न बहू में, कमी तो आपस की समझ और हमारे प्यार में होती है.

सुन तुझे एक पते की बात बताती हूँ….अपनी जेठानियों से मत कहना..हालांकि वृंदा जी पहले ही अपनी दोनों बहूओं को गृहस्थी की यह पाठ पढा चुकी होती हैं…

जानती है हम औरतें भी बड़ी अजीब होती हैं…सुन तो सभी का लेती हैं परंतु खुद की कभी किसी से कह नहीं पातीं…

फिर भी मैं या तू या कोई और हो दुनिया भर की तकलीफ केवल इसलिए सह रहे होते हैं कि हम यह विश्वास किए बैठी रहती हैं कि कोई तो होगा जो कभी हमारी सुनेगा..कभी तो हम किसी से अपने मन की बातें कह सकेगीं…

और सच पूछो तो होता भी है..

हम सभी के जीवन में कोई न कोई एक इंसान ऐसा होता है जिसके होने से जीवन के सभी कष्ट हमें आसान लगते हैं…बस उससे दिल मिलने भर की देरी होती है..एक बार गर उससे दिल मिल जाये तो उसके लिए खुद को मिटाने से भी पीछे नहीं हटतें..

ये अलग बात है कि वह इंसान कौन है,कहाँ है..हमें उस इंसान को मिलने और समझने में देर लगती है..

सास बहू…पतिपत्नी के साथ भी यही लागू होता है दोनों को एक दूसरे को उनके संबंधों को समझने में भी कुछ समय लगता है…लेकिन धीरे धीरे वो भी सब समझ जाते हैं..और उनके रिश्तों में परिपक्वता आ जाती है….

ससुराल हो या पीहर..हर जगह हर रिश्ते की अपनी अहमियत होती है..आवश्यकता सिर्फ़ उसे समय पर समझने की है..

जिस तरह पीहर में कई रिश्ते होते हैं उसी तरह ससुराल में भी बहुत सारे रिश्ते होते हैं…ससुराल एक गेंदा के फूल” की तरह रिश्तों से बंधा बड़ा सा फूलों का गुच्छा होता है, जो सारे रिश्ते को समेट कर रखता है..क्यूँकि गेंदे के फूल में खुश्बू नहीं होती इसलिए ससुराल में भी हर रिश्ते में प्यार की खुश्बू नहीं होती..

कहीं किसी को पति से नहीं बनती,किसी को सास से.किसी को ननद से तो किसी को देवर देवरानी से….पर जो इंसान इन रिश्तों का महत्व समझ लेता है..उसका जीवन आसान हो जाता है..

वह ससुराल के बिगड़े रिश्तों को भी एक गुच्छे प्यार के बंधन में बाँधे रखता है..ठीक वैसे ही जैसे गेंदे के फूल में कई फूल एक साथ जुड़कर उसे गुच्छा बनाते हैं उसी तरह ससुराल में तरह तरह के लोग मिलकर एक फूलों का गुच्छा कहलाते हैं..और… “ससुराल गेंदा फूल”

अवनि मन ही मन सोच रही थी..कितनी समानता थी उसकी सास और उसकी माँ में..माँ कहती थी..रिश्तों की भीड़ में अगर हम दो बात सह लेते हैं तो सारे रिश्ते निभ जाते हैं और गर न सह पाए तो रिश्तों म़े दरार आ ही जाती है..आज़ जो बातें उसकी सास उसे बता रहीं थी माँ की कही बातों की गहराई और विस्तार भर थी..

फिर क्या हुआ कि माँ को याद कर अवनि की आँखें सजल हो उठ़ी ..वो सास के सीने लग गई

और उसकी सास उसे चुप करा रही थी..

विनोद सिन्हा “सुदामा”

 

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