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सरोज – अमित किशोर 

एक नामी गिरामी परिवार। माता लक्ष्मी की असीम कृपा पर सरस्वती मां की कृपा से वंचित सभी सदस्य। बाप दादा की कमाई और नेकनामी के सहारे चलते घर के लोग। पूरे गांव में बहुत रुतबा था शंकर ठाकुर का।

जब घर में दौलत बहुत पड़ी हो तो अक्सर दौलत के निकालने का रास्ता घर वाले ही खोज लेते हैं। अपनी दोनों बेटियों की शादी तो अपनी बिरादरी और रुतबे को देखकर ठाकुर साहब ने जैसे तैसे कर ही दी थी पर दोनों बेटों में से किसी को भी पढ़ा लिखा नहीं सके थे। दरअसल, उनके दोनों बेटों के दिमाग में कमाने से ज्यादा खर्च करने पर ही ध्यान था। दोनों बेटों ने होड़ लगी रहती कि कौन कितना ज्यादा पैसे खर्च करेगा। ठाकुर साहब इसे शान की बात समझते थें। जैसे तैसे दौलत की चमक धमक में बेटों की भी शादी करवा ही दी।

समय बीता। न रुतबे में कोई बदलाव आया और न ही झूठी शान शौकत में। हां, घर में सदस्यों की संख्या बढ़ गई थी। पहले ठाकुर साहब के यहां बहुएं आई फिर पोता पोतियों की आवाज से घर में किलकारियां गूंजने लगी। माहौल खुशनुमा था। पर ऊपरवाले के पास भी हर बात का हिसाब रहता ही है। लाख सुखों के बीच एक दुख देकर ईश्वर अपने होने की अनुभूति कराता है। ठाकुर साहब के यहां भी दुख ने घर कर लिया था। 




छोटी बहू अपने बेटे को खुद का दूध पिलाने में असक्षम थी। दूध उतरता ही नहीं था। बच्चा भूखे प्यासे दिन भर रोता। झुंझुलाहट सी फैल जाती पूरे घर में जब बच्चा लगातार रोता। कई उपाय किए गए पर कोई नतीजा नहीं निकला। घरवालों ने आखिर में फैसला किया कि एक दूध पिलाने वाली धाय का इंतजाम किया जाए जो बच्चे को दूध पिला दे और साथ में बच्चे की देखभाल भी करे । आदमी लगा दिए ठाकुर साहब ने खोजने के लिए धाय को। पास के गांव से सरोज आई और बखूबी काम संभाल लिया।

इतनी कुशल और व्यवहार कुशल थी सरोज की, सभी के जुबान पर बस उसका ही नाम रहता। एक धाय के रूप में ठाकुर साहब के यहां आई सरोज, बहुत जल्द ही घर के कोने कोने में सरोज बस गई। बच्चे को दूध पिलाने से लेकर घर का छोटा से छोटा काम वही करती। जानने वाले लोग तो ये भी कहने लगे कि ” अगर सरोज न हो, तो शंकर ठाकुर जी के परिवार का क्या हो “

एक दिन ठाकुर जी के मकान में आग लग गयी। कैसे लगी, किसने लगाई, किसी को कुछ नहीं पता था। घर पर इस समय हमेशा की तरह ठाकुर जी, ठकुराइन, बहुएं और बच्चे ही थे। दोनों बेटे तफरी में निकले हुए थे। घरवाले किसी तरह जरूरी सामान के साथ और अपने प्राण बचाकर जब बाहर आये तब पता चला कि एक बच्चा तो अभी घर में ही रह गया था। उनका सबसे छोटा पोता अंदर ही रह गया था। अब आग ने भयानक रूप ले लिया था। चारों तरफ आग की लपटें और बस धुआं ही धुआं। समझ में ही नहीं आ रहा था कि बच्चे को कैसे बचाया जाए। जलती घर के बाहर लोगों का हुजूम लग गया पर किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि आग में जाए और बच्चे को बचा ले। महज बाल्टियों से पानी फेंक कर आग को बुझाना नामुमकिन था। ठाकुर साहब ने गुहार लगाई सबसे, ” जो मेरे पोते को बचा लायेगा, उसे मैं अपनी जमीन लिख दूंगा। ” इतने भयंकर आग को देख कर भला जमीन की बात किसे सुझती। किसी को आगे आतेबना देख, वो वहीं अपना माथा पकड़ दहाड़ मारकर बैठ गए। ठकुराइन का भी रो रोकर बुरा हाल था और बच्चे की मां तो अपने बच्चे के खोने की कल्पना मात्र से ही बेहोश हो चुकी थी।




इसी बीच सबने देखा कि वही सरोज बच्चे को पीठ में बांधे आग के लपटों से घिरी अंदर से बाहर आ रही है। लपटों से इस कदर झुलस चुकी थी कि उसे पहचानना भी बहुत मुश्किल हो रहा था। बच्चे को ठकुराइन को सौंप कर वहीं निढ़ाल होकर सरोज गिर पड़ी। बस इतना ही मुंह से निकला , ” मलकिनी, रखिए, अपना अमानत ।” पूरा जन समूह भौचक्का था ये सब देखकर। एक अधेड़ उम्र की औरत ने वो कर दिखाया था जिसकी हिम्मत बाहर खड़े हजारों लोगों में से किसी में भी न थी। कुछ लोगों ने कानाफूसी में ये भी कह दिया, ” जमीन की लालच ने सरोज से ये सब करवाया है। भला , कोई अपनी जान आफत में ऐसे डालता है क्या ? “

डॉक्टर ने जब सरोज की जांच की तो पता चला कि सरोज तो झुलस कर आग से कब की इस दुनिया से जा चुकी थी। ठाकुर साहब ने जब ये देखा तो वो फफक फफककर रो पड़े। कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था, उन्हें कि क्या कहे !!! छोटी बहू ने ही कहा, ” आज धाय ने अपने बेटे को बचा लिया और ममता को खत्म नहीं होने दिया। मैंने तो बस जन्म दिया था पर मां का फर्ज तो धाय ने निभाया है। “

अगले दिन उसी जमीन पर सरोज का दाह संस्कार किया गया। उसी जमीन पर, जो सरोज को मिलती, अगर वो जिंदा होती। मुखाग्नि उसी बेटे ने दी, जिसकी जान सरोज ने बचाई थी…………

स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित

#5वा_जन्मोत्सव #जन्मदिवस_विशेषांक

बेटियां जन्मोत्सव कहानी प्रतियोगिता

कहानी : द्वितीय 

 अमित किशोर

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