सपनों की कीमत – संजय मृदुल

काठ के पुतले की तरह बैठे नरेंद्र पंडित जी के निर्देश का पालन किये जा रहे थे। मानो  बस कान ही हों वहां, बाकी शरीर और आत्मा बेटी को अनन्त आकाश में ढूंढने गयी हो जैसे।

दशगात्र है आज रुचि का। मंडला में नर्मदा के संगम में क्रियाकर्म सम्पन्न करते नरेंद्र का मन हुआ कि यही डुबकी लगाते हुए ऊपर ही न आये। किस तरह प्रायश्चित करें अपनी करनी का। 

रुचि बड़ी बेटी थी उनकी। होशियार, चंचल, गजब की नृत्यांगना। अभी उम्र क्या थी उसकी बस सत्रह ही तो। छुटपन में जब उसे गानों पर मटकते देखते तो उन्हें लगता ये है जो उनके सपनों को पूरा करेगी। नरेंद्र भी अपने समय मे मिथुन, गोविंदा के जबरा फैन रहे। पर न घर की परिस्थियाँ रही ऐसी न हिम्मत, की बाहर निकल कर कुछ कर पाएं। बस अपने दायरे में एक पहचान बन गयी डांसर की उसी में खुश होकर संतुष्ट हो लिए। 

घर परिवार की जिम्मेदारी, नौकरी ने फिर अवसर ही कहाँ दिया। रुचि ने उनके सपनों को फिर पंख लगा दिए। 

छोटी सी उम्र में कत्थक की शिक्षा शुरू करा दी। ऑफिस से आने के बाद उसे क्लास ले जाना, फिर घर पर प्रेक्टिस कराना, सब उनके जिम्मे रहता। जब भी टेलीविजन पर कोई डांस शो देखते उन्हें रुचि दिखाई पड़ती वहां। कभी विनर के रूप में तो कभी जज बनी हुई। धीरे धीरे उनका ये शौक जुनून में बदलने लगा और मशीन बनने लगी रुचि। एक क्लास से दूसरी क्लास। एक प्रतियोगिता से दूसरी। घर मे मैडल ट्रॉफी से अलमारी सजने लगी और कसमसाने लगा रुचि का बचपन। 

दूसरे बच्चो की तरह न उसे मनमानी करने की छूट थी न ही सपने देखने की इजाज़त। 

अलग अलग नृत्य की विधाओं में पारंगत रुचि जीवन की कक्षाओं में पिछड़ती जा रही थी। बचपन कहीं खो गया था और खुद के सपने मरने लगे थे। उसे पढ़ना अच्छा लगता था, आसमान, तारे, ग्रह लुभाते थे उसे, पर गानों के कोलाहल में सब कुछ कहीं गडमड हो जाता। 


बहुत मेहनत और प्रयास के बाद उसे अवसर मिला एक बड़े शो में भाग लेने का जहां देश भर से प्रतिभागी आये थे। सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ते हुए आखरी दस में आ ही गयी वह। रोज कड़ा अभ्यास, दूसरों से बेहतर करने का दबाव, पिता का जीतने के लिए लगातार टोकना और अपने से कमतर प्रतिभागी का विजयी होने की संभावना ने उसे जैसे अवाक कर दिया।

शो की असलियत जैसे जैसे सामने आती गयी उसे भागने का मन होने लगा। लग रहा था सब कुछ पूर्वनियत है। जो हो रहा है बस दिखावा है।

और हुआ वही, वह शो से बाहर हो गयी।

शो की चकाचौंध ने शहर में नाम तो जरूर दिया। पर साथ ही छोटी उम्र में कमाई करने वाली मशीन भी बना दिया। ज्यादा समय नही गुजरा की लोग भूलने भी लगे उसे। ये फितरत है न इन्सानो की। कोई बेहतर मिल जाये तो पिछले को भूलने में समय जाया नही करते।

उम्र के साथ रुचियाँ, पसन्द बदलती हैं। भविष्य को लेकर सपने देखने की इक्छा जागृत होने लगती है। उसके अपने सपने कहीं खो गए थे कहीं।दसवीं क्लास में पढ़ाई में पिछड़ने के बाद उसे लगने लगा कि पिता के सपनो को पूरा करना मुश्किल है। 

वार्षिक परीक्षा में अनुतीर्ण होने के बाद नरेंद्र ने खूब डांटा। और उसकी परिणति हुई सुबह उसके न जागने से।


कमरे का पंखा और रुचि का लटकता शरीर।

संगम में सामग्री विसर्जित करते हुए वे सोच रहे थे इस अपराध का प्रायश्चित किस तरह कर पाएंगे वो। अपने सपनो को पूरा कराने के लिए एक जान का सौदा किया था उन्होंने।

 

©संजय मृदुल

रायपुर

मैं प्रमाणित करता हूं कि उपरोक्त कहानी मौलिक एवम अप्रकाशित है।

संजय अग्रवाल

भरत कुटीर, भावना नगर

चिल्फी हाइट्स, खमार डीह

रायपुर छत्तीसगढ़

 

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