संस्कार – बेला पुनिवाला 

  सूशीला कि  बेटी आशा की शादी के कुछ महीनो बाद सुशीला  को अपनी बेटी आशा की बहुत याद आ रही थी, तब सुशीला ने सोचा, कि चलो, आज आशा को फ़ोन करके उसका हालचाल पूछ ही लेती हूँ और उसे कुछ दिन यहाँ आने को कहती हूँ। इसी बहाने उस से बात भी हो जाएगी।

        सुशीला ने अपनी बेटी आशा को फ़ोन लगाया, 

सुशीला : क्या आप मेरी बात आशा से करवा सकते है ?

आशा : जी माँ, मैं आशा ही बोल रही हूँ, तू कैसी है ? बाबा कैसे है ? स्वीटी कैसी है ? उसकी पढाई तो ठीक से चल रही है ना ? यूँ  आज इतने दिनों बाद अचानक से क्यों फ़ोन किया ? घर पे सब ठीक तो है ना ?

 

सुशीला : अरे, बस रुक जा ज़रा। इतने सारे सवाल एक साथ ही पूछ लेगी क्या ? ज़रा साँस तो लेले।

 

आशा : वो माँ, बड़े दिनों के बाद तेरी आवाज़ सुनी ना, इसलिए। अब बता कैसी है तू ? कैसे फ़ोन किया ?

सुशीला : मैं  बिलकुल ठीक हूँ बेटी, मुझे भला क्या होना था ? बड़े दिनों से तुझ से बात नहीं हुई, तो तेरी याद आ रही थी, बस इसलिए फ़ोन किया। तू ठीक तो है ना अपने ससुराल में ? तुझे वहां कोई परेशानी तो नहीं ना ?




        कहते-कहते सुशीला की आँखों में पानी आ गए। सुशीला अपने पल्लू से अपने आँसु छिपाते हुए पोछने लगी। आशा अपने माँ के सवालो से उसकी परेशानी समझ गई। 

आशा : हाँ माँ, मैं यहाँ बिलकुल ठीक हूँ। सब मेरा अच्छे से ख्याल रखते है। सुबह जल्दी उठकर नहा-धोकर सब के लिए चाय-नास्ता बनाती हूँ, बाद में उनके लिए टिफ़िन  बना देती हूँ। वह टिफ़िन लेके चले जाते है, फ़िर घर  का बाकि का सारा काम आराम से निपटाती हूँ, इन दिनों कामवाली बाई महीने के लिए छुट्टी पे गई है, तो घर की साफ-सफ़ाई, बर्तन, कपडे सब कुछ करना पड़ता है, फ़िर बाज़ार जाके सब्जी और घर का बाकि का सामान लाती हूँ। दोपहर को खाना खाने के बाद मेरे छोटे देवर को पढ़ाना पड़ता है, वह पढाई में ज़रा कमज़ोर जो है,  तो उन्होंने कहा, कि तुम पढाई में छोटे की थोड़ी मदद कर दिया करो, वैसे भी घर पे कुछ खास काम तो होता नहीं। बाद में फ़िर से शाम की चाय और रात का खाना बनाने में वक़्त कहाँ निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। ऊपर से हमारे यहाँ बार-बार मेहमान आए दिन आते रहते है, तब उनका चाय नास्ता, खाना अलग से बना देती हूँ। आपने यही तो सिखाया है ना माँ ? घर आए मेहमान भगवान  रूप होते है। उनकी सेवा हमारा धर्म है। बस हो जाता है सब कुछ, तुम फ़िक्र मत करना। 

       कहते हुए आशा की आँखों में भी आँसू आने लगते है। आशा ने भी अपने आँसू छुपाते हुए अपने दुप्पटे से अपने आंँसू पोंछ लिए। 

    

     सुशीला भी अपनी बेटी की बात सुन उसके मन की परिस्थिति समझ जाती है। सुशीला बात को सँभालते हुए 




सुशीला : तुम्हारी सास और देवेनकुमार कैसे है ? उनको मेरी याद भी कहना। अपनी सास और देवेन कुमार की इजाज़त लेकर कुछ दिन यहाँ चली आना, स्वीटी के साथ कुछ दिन यहाँ रहेगी, तो तेरा मन भी लगा रहेगा। मुझे और तुम्हारे बाबा को भी तुमसे मिलके अच्छा लगेगा। तुम्हारे बाबा कुछ कहते नहीं, मगर तेरी याद में कभी-कभी वह भी रो लिया करते है और फ़िर तेरी किताब और तेरी चुन्नी को लेके सो जाते है।  

आशा : हाँ माँ, मेरी सास तो बहुत अच्छी है, मेरी किसी भी गलती पे कभी मुझे भला-बुरा नहीं सुनाती। सुबह तो वह अपने रिश्तेदारो से और अपनी सहेली से फ़ोन पे बातें किया करती है और शाम को घर के बाहर खटिया लगा के सारे महोल्ले की औरतें साथ मिल के बातें करते रहते है। उनके घर आने के वक़्त पे रसोई में थोड़ा हाथ मेरा बटा दिया करते है, इसलिए तो तेरी याद कभी भी नहीं आती माँ।

     ( कहते-कहते आशा का गला भर आता है। ) 

  

    और मेरा छोटा देवर मुझे काम के वक़्त ज़रा भी परेशान नहीं करता और  ससुरजी किसी भी बात में  कुछ भी  नहीं सुनाते। दिन भर झूले पे बैठ के चाय-नास्ता करते रहते है और शाम को अपने दोस्तों के साथ बाहर चले जाते है। रात को खाने के वक़्त घर आ जाते है। घर में क्या हो रहा है, उनसे उनको क्या मतलब ? और मेरे वो तो इतने अच्छे है, की मुझे कभी किसी बात पे रोका-टोका नहीं करते। घर में  तो मेरी ही मर्ज़ी चलती है। खाना भी मेरी ही पसंद का बनता है। उनको ज़्यादा बात करना पसंद नहीं, इसलिए मुझ से बात भी बहुत कम करते है। हाँ, लेकिन रोज़ रात को वह मुझे बहुत सताते है। मगर इन सब की अब मुझे आदत सी हो गई  है। स्वीटी की पढाई पूरी होने तक उसकी शादी की जल्दी मत करना। उसका सपना डॉक्टर बनने का है, तो उसे पढाई करने से रोकना मत। भले ही मैं अपना सपना पूरा ना कर सकी, मगर उसका सपना ज़रूर पूरा करना। अब बात मेरी वहाँ कुछ दिन रहने आने की है, तो कल सुबह ही मेरी सास के कुछ रिश्तेदार कुछ दिनों के लिए हमारे घर रुकने आनेवाले  है, मेरी सास से तो घर का इतना सारा काम होता नहीं। तो भला तुम ही बताओ, मैं कैसे आ सकती हूँ वहाँ ? इसलिए अभी तो वहां आ पाना मुमकिन नहीं, कुछ दिनों के बाद मैं अपनी सास से इस बारे में बात कर लुंगी। तुम मेरी फ़िक्र मत करना, मैं यहाँ ठीक हूँ। तुम अपना और बाबा का ख्याल ऱखना और बाबा और स्वीटी से कहना मैं  भी उनको बहुत याद करती हूँ। अच्छा, तो अब मैं  फ़ोन रखती हूँ, सासुमा के घर में आने का वक़्त हो गया है और वह भी  ऑफिस से आते ही होंगे। 




  

      आशा बड़े भारी मन से कहते हुए फ़ोन ऱख  देती है और वापस रसोई में अपना काम  करने में लग जाती है।

     ( ऐसे आशा ने अपनी माँ को अपनी बात बता भी  दी और जैसे वह यहाँ ख़ुश है और उसीके बताए उसूलों पे चल रही है। ऐसा बात-बात में जताती रही। )

   

       सुशीला अपनी बेटी आशा की बात सुनकर सेहम जाती है, उसने क्या-क्या नहीं सोचा था अपनी बेटी के बारे में। कितना अच्छा घर और लड़का उसके लिए उसके बाबा ने पसंद किया था। कुछ देर बाद फ़िर सुशीला मन ही मन सोचती है, हर लड़की की कहानी ऐसी ही तो होती है। जैसे बरसों पहले मैं जब इस घर में आई थी, तब मेरी भी यही हालत थी। मेरी माँ ने मुझे सिखाया, वही मैंने भी अपनी बेटी को सिखाया। ”  चुप रहना, सहते जाना, सब की सेवा करना, सब का मान-सम्मान करना, सब की परवाह करना, ज़ुल्म होते हुए सेह जाना मगर आवाज़ नहीं उठाना, कभी ऊँचे आवाज़ में बात नहीं करना, दूसरों  की ख़ुशी में ख़ुश रहना । ” आख़िर कब तक और क्यों सेहती रहेगी हमारी बेटी ये सब ? औरत अगर चुप है, इसका मतलब ये की, ज़ुल्म करने वाले ज़ुल्म करते रहेंगे ? सोचते-सोचते सुशीला अपने काम में लग जाती है। 

       तो दोस्तों, ऐसी एक औरत की कहानी आज मैंने लिखते वक़्त लिख तो दी, जिसने अपने ज़माने में अपने ही घर के लोगों से जुल्म सहा है और आज उसी की बेटी भी वही ज़ुल्म अपने ससुराल में सेह रही है, जैसा जुल्म उसकी माँ ने अपने ज़माने में कभी सहा था। मगर अब सवाल ये है, कि अब आगे क्या ? अब आशा की माँ सुशीला अपनी बेटी की ऐसी बात सुनकर क्या करेगी ? ” जो उसके नसीब में था, वही उसकी बेटी के नसीब में  है, ” ऐसा सोच के सुशीला चुप रहेगी ? या फ़िर अपनी बेटी के ससुराल वालों को सबक सिखाएगी ? ताकि वह भी आशा के साथ ऐसा जुल्म ना करे, उसे भी प्यार और सम्मान दे, जो उसका अधिकार है और एक दूसरी बात – क्या दोस्तों, आप सबको नहीं लगता कि जितने संस्कार हम अपनी बेटी को दे, उतने ही संस्कार हमें अपने बेटे को भी देने चाहिए ? और लड़की को सिर्फ जुल्म सहना नहीं बल्कि गलत के आगे आवाज़ उठाना भी सीखाना चाहिए। ताकि लड़की अपनी पूरी ज़िंदगी घुट-घुट कर ना जिए, मगर ख़ुशी से अपने ससुराल वालो के साथ सारे प्यार, मान-सम्मान के साथ जिए, जो उसका भी अधिकार है। माना कि आज तो ज़माना काफी आगे बढ़ गया है, अब औरत के साथ ऐसा व्यवहार नहीं होता, लेकिन आज भी कई घरों में ऐसा आज भी होता है, जो नहीं होना चाहिए। ये मैसेज सिर्फ उन लोगों तक पहुँचाया जाए, कि आप के घर में भी बेटी है और वह भी किसी के घर में कल बहु बनकर जाएगी और उसके साथ भी ऐसा व्यवहार ना हो, इसलिए अपने ही घर की बहु, बेटी और माँ को प्यार और  मान-सम्मान का अधिकार दिया जाए। सिर्फ़ एक की नहीं बल्कि हर एक आदमी की सोच बदलनी चाहिए। क्योंकि कभी-कभी औरत ही औरत की दुश्मन बन जाती है। 

#संस्कार 

बेला पुनिवाला 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!