संघर्ष  (अंतिम किश्त ) –  मुकुन्द लाल 

  रेस्तरां में उसने वेटर को लंच लाने का आर्डर दिया लेकिन उसी वक्त सुप्रिया ने लंच लेने से साफ इनकार कर दिया। बहुत कहने पर उसने सिर्फ चाय ली थी। उसने भी अपने लिए चाय ही मंगवाई।

  इस दरम्यान वह बक-बक करता रहा। जिस पर वह ध्यान नहीं दे रही थी।

 अन्त में वह अपने असली विन्दु पर आ गया। उसने उसके साथ शाम में घूमने-टहलने और फिल्म देखने का प्रस्ताव रखा था। जिसको सुप्रिया ने खारिज करते हुए तल्ख आवाज में कहा था, “यह असंभव है!… आखिर आप चाहते क्या हैं हिमांशु बाबू!… आप अपनी मनमर्जी करना चाहते हैं, आपने नौकरी दिलाई। है… मैं आपका एहसानमंद हूँ, इसका मतवब यह तो नहीं कि आप मुझे अपनी उंगली पर नचाइये, नाजायज फायदा उठाइये… मेरी भी तो इज्जत है…”

  “ओह!… आप तो छोटी सी बात पर नाराज हो गई सुप्रिया जी!… मेरा मतलब… “

 ” आपका मतलब क्या है?… मैं अच्छी तरह समझती हूंँ “गुस्से में सुप्रिया ने कहा।

 ” चुप भी रहिए!… लोग हमलोगों की तरफ देख रहे हैं “हिमांशु ने धीमी आवाज में कहा।

 ” आइन्दा दफ्तर के काम के अलावा नीजि सम्पर्क हमसे मत कीजिएगा “उसकी आंँखें छलछला आई थी। वह उठी थी और तीर की तरह वहाँ से निकल गई थी, काउंटर पर अपनी चाय का बिल भुगतान करके।

  हिमांशु कहता रह गया,” ठहरिये सुप्रिया जी!… ठहरिये! “

  लेकिन वह अनसुनी करके निकल गयी थी।

   उस दिन के बाद से सुप्रिया ने हिमांशु से बात-चीत बन्द कर दी थी। दफ्तर में अचानक एक दूसरे के सामने पड़ते तो सुप्रिया अपनी नजरें फेर लेती। जब भी वह बातें करने की कोशिश करता, वह ऐसा करती मानो वह उसकी बातें सुन ही नहीं रही हो या वहांँ से वह हट जाती।

  वह जिस सेक्शन में काम करती थी, उसका हेड कोई दूसरा अफसर था। वह था नेक दिल इंसान। उसमें इस तरह की क्षुद्रता नहीं थी




   आज के बदले हुए जमाने में शायद ही कोई निःस्वार्थ किसी की भलाई करता है। दूसरे की भलाई करने के पीछे कोई न कोई मकसद तो अवश्य होता है। और हिमांशु इसी नीति के तहत सुप्रिया के साथ मौज-मस्ती करना चाहता था।

  उसने अपने जीवन में ऐसे कई कारनामों को अंजाम दिया था, मदद करने की कीमत वसूल की थी, किन्तु सुप्रिया का स्वभाव उन लड़कियों के आचरण के विपरीत था। यही परेशानी हिमांशु के साथ थी। उसको ऐसा महसूस होता था मानो उसने मुफ़्त में नौकरी दिला दी, उसकी कीमत उसे नहीं मिली।

  वह बार-बार सुप्रिया के समीप जाना चाहता था, चाहता था उसका सानिध्य प्राप्त करना पर सुप्रिया उसके सामने घास नहीं डालती थी। गलत मंशा का एहसास होते ही उसने कई बार झिड़क भी दिया था उसको। फिर भी वह दीवाना बना था उसके पीछे।

  उस कम्पनी में तो वह ऐसे कुकर्मों के लिए बदनाम था ही किन्तु खुलकर कोई सामने नहीं बोलता था। पीठ-पीछे वहांँ के कर्मचारी व कामगार आपस में आये दिन उसकी हरकतों की चर्चा किया करते थे।

  जब इस तरह से बात नहीं बनी रहेगी तो वह कंपनी के उपप्रबंधक से पैरवी करके उसने सुप्रिया  को अपने सेक्शन में स्थानांतरित करवा लिया। 

  उसके बाद उसका आत्मबल फिर बढ़ गया था। वह देखने लगा था उसके बारे में खुशगवार सपने। सोच रहा था दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवाने और फाइलों के लेने देने के क्रम में उससे बात-चीत के मौके मिलेंगे ही। आखिर कब तक उससे दूर भागेगी। इसी तरह बात बन जाएगी।

  किन्तु सुप्रिया को समझते देर नहीं लगी कि उसके स्थानांतरण का क्या राज है। वह उसके षङयंत्र को भांप चुकी थी। इसलिए वह भी सतर्क थी। वह कोई ऐसा मौका अपनी गतिविधियों से उसे देना नहीं चाहती थी, जिससे हिमांशु उत्साहित हो और उसकी ओर हाथ बढ़ाये।

  जब भी वह दफ्तर के काम से उसके टेबल पर जाती तो अपने काम की बातें करती, एक शब्द भी फ़ालतू नहीं बोलती।

किन्तु उस दिन फाइल देते वक्त उसने मुस्कुराते हुए उसकी कलाई पकड़ ली थी और लगा था कामुक और ललचाई नजरों से देखने। सुप्रिया क्रोध से विफर पड़ी थी। उसने कड़ी फटकार लगाई। 

                            उसकी नजर अचानक ‘टिक-टिक’ करती घड़ी की ओर चली गई। रात दो बज चुके थे।




  चारो ओर घनघोर अंधेरा फैला हुआ था। श्मशान सी नीरवता वातावरण में व्याप्त थी जिसको रह-रहकर कुत्ते के भौंकने की आवाज भंग कर देती थी। नींद उसे तड़पता छोड़कर कहीं दूर निकल गई थी।

  वह बिस्तर पर उठ बैठी। वह सोचने लगी कि क्या करूँ। हिमांशु का आचरण उसके गले की हड्डी बनी हुई थी। जब वह नौकरी से इस्तीफा देने की बात सोचती तो उसके सामने परिवार की परवरिश की समस्या पहाड़ की तरह खड़ी हो जाती। अपनी वृद्धा मांँ, छोटा भाई और दोनों छोटी बहनों के चेहरे उसकी आंँखों के सामने आ जाते। फिर दूसरी नौकरी मिलना भी आसान नहीं था। फिर क्या गारंटी है कि दूसरी नौकरी जहाँ मिलेगी वहांँ हिमांशु जैसे सहकर्मी नहीं मिलें। कोई अश्लील घटनाओं को अंजाम देने वाला पुरुष नहीं हो। क्या कोई गारंटी दे सकता है कि ऐसे लोगों का घृणित चेहरा देखने को नहीं मिलेगा।

  उसकी समझ में आ गया कि ऐसी गारंटी देने वाला कोई कम्पनी या कोई दफ्तर नहीं है और न कोई आदमी है। नारी को अपनी समस्या के निदान के लिए स्वयं लड़ना होगा। अपनी पीड़ा और व्यथा को दूर करने के लिए आगे आना होगा।

  ऐसे पुरुषों से अपनी अस्मिता बचाने के लिए संघर्ष करना होगा। नारी की इज्जत पर हाथ डालने वाले राक्षसों को समाज के सामने बेनक़ाब करना होगा, निंदा करनी होगी ऐसे अपराधियों को प्रताड़ित करके। जेल की काल-कोठरियों में बन्द करना होगा कानून की सहायता से।

  उसके आकुल अंतर्मन में उमड़ती-घुमड़ती तथा परस्पर टकराती सोच की श्रृंखलाओं ने उसे उर्जा प्रदान की। उसमें शक्ति का संचार होने लगा। उसके दिमागी पटल पर इस्तीफा नहीं देने की बात कौंधने लगी।

  वह सोचने लगी कि वह  हिमांशु के साथ संघर्ष करेगी। कम्पनी के उच्च अधिकारियों के पास उसकी शिकायत करेगी। उसके कारनामों का भंडाफोड़ करेगी। उसकी पत्नी के समक्ष  उसकी हरकतों का उल्लेख करेगी। दफ्तर के अन्य कर्मचारियों के समक्ष उसके क्षुद्र, पाशविक प्रवृति की जानकारी देगी और उसकी निंदा करेगी। इतना करने के बाद भी वह नहीं माना तो वह सहकर्मियों को गोलबंद करेगी। उसके खिलाफ मुहिम चलायेगी, आखिर कब तक उसकी नीच व क्षुद्र हरकतों और कामुक निगाहों का शिकार होती रहेगी। वह ऐसी नारी का उदाहरण नहीं बनना चाहती थी जो मर्दों द्वारा किये गये जुर्म की सजा भुगतती है और मर्द बेखौफ काले कारनामों को अंजाम देता रहता है। 

  उसे समझ में आ गया था कि हिमांशु ने उसकी इज्जत पर हाथ डालने की नीयत से ही

 उसकी तरफ हमदर्दी का हाथ बढ़ाया था। 

  ऐसे माहौल में एक लड़की का अपना जीवन यापन करना तो कांटों से भरा होता ही है, फिर भी वह लोहा लेगी। संघर्ष करेगी। संघर्ष ही एक मात्र रास्ता है अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए। बिना आवाज उठाये इज्जत जाने के भय से समस्या को टालते जाने से नारी पर होने वाले अमानुषिक बर्ताव को मिटाया नहीं जा सकता है। हिमांशु जैसे उभरते चरित्र का खात्मा नहीं किया जा सकता है। 

  उसने फैसला लिया कि वह इस्तीफा नहीं देगी। 

  विचारों के उठते-गिरते ज्वारभाटे धीरे-धीरे शान्त पड़ने लगे थे। तर्क की कसौटी पर खरे उतरे निर्णय ने उसे राहत दी। उसका चेहरा संघर्ष करने के अपने फैसले से चम-चमा उठा। 

      समाप्त 

   स्वरचित 

   मुकुन्द लाल 

    हजारीबाग (झारखंड) 

 

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