*संग दिखाए रंग* – सरला मेहता 

” रानी डियर ! हमारा अमर लन्दन से आ रहा है, पढ़ाई पूरी करके। उसके स्वागत में कोई कसर बाकी ना रहे। “

मुंबई के नामी ड्रग माफिया शाह जी ने पत्नी को याद दिलाया। वे बहुत खुश है कि अंग्रेजी पढ़ा लिखा बेटा विदेश में भी पुश्तैनी कारोबार चमका देगा। मन ही मन लड्डू फोड़ते हुए वे पार्टी की तैयारियों का जायजा लेने लगते हैं। 

सुदर्शन कदकाठी का अमर अपनी सपाठिनी दिव्या के साथ आते ही पूछता है, “माँ ! पूजाघर कहाँ है ? पहले भगवान जी फ़िर मैं आपके व पापा के पैर छूता हूँ। माँ !  ये दिव्या है। मैंने आपको बताया था ना। इसके मम्मा पापा से मिलने चलना है हमें। “

 बेटे के हाव भाव व दिव्या का सादा रहन सहन देख कर शाह जी के तोते उड़ने लगे। वे तो बहू के रूप में एक गोरी मेम की कल्पना कर बैठे थे। बहू को वे अपने धंधे में क्वीन मोहरा बनाना चाहते थे।

         ” रानी ! लगता है हमारा बेटा गुरुकुल से आया है। एक तो औलाद के सुख के लिए लाखों खर्च किए फ़िर इसकी लायकी के लिए करोड़ो। 

और मिला ये ठनठन गोपाल। तुम्हें ही अपनी पुजारिन सहेली जची थी किराए की कोख के लिए। “

रानी खुश होकर सोचने लगी कि सच है लोग, किराएदार भी ठोकपीट कर रखते हैं। उसने भी अपनी सचरित्र सखी की कोख चुनी। अमर का चेहरा मोहरा चाहे माँ बाप जैसा है किंतु नौ माह तक उसे एक साध्वी ने पोषित किया है। रानी को तो अपना सोचा हुआ स्वार्थ सिद्ध होता दिखने लगा। वह सोचने लगी कि यदि बेटा उसके गर्भ से जन्मता तो यहाँ का वातावरण अपना प्रभाव अवश्य छोड़ता। वह अपनी सखी का शुक्र मनाती है। पति का स्वार्थ सिद्ध नहीं हो पाया। पुत्र अवश्य मिला किन्तु हिरणाकश्यप के घर में प्रह्लाद जैसा पुत्र।  

तभी अमर ने आकर उसकी तंद्रा भंग की, ” माँ ! मेरी शादी में आपकी वो पक्की वाली सहेली को बुलाना भूल मत जाना। “

 

मौलिक

सरला मेहता 

इंदौर

 

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