समर्पित पति – मुकुन्द लाल 

सागर, सेठजी के व्यवसायिक प्रतिष्ठान में बैठकर कुछ काम कर रहा था कि अचानक उसका मोबाइल बजने लगा।

  उसने पूछा, “हैलो!… कौन हैं?”

  “मैं मानसिक आरोग्यशाला से बोल रहा हूँ, आपका पेशेंट ठीक हो गया है। आकर जल्द ले जाइये, यहाँ वह बहुत परेशान है। घर जाने के लिए छटपटा रही है।”

 “अच्छा!… मैं कल ही लेने के लिए आ रहा हूँ। “

इसके बाद मोबाइल का कनेक्शन कट गया। 

  सागर उस दिन अपनी ड्यूटी से लौटने के बाद ज्योहीं अपने डेरे के पास पहुंँचा, उसने देखा कि पास-पड़ोस के कुछ पुरुषों और महिलाओं का झुंड बाहर में खड़ा था। लोग आपस में तरह-तरह की बातें कर रहे थे। उसके डेरे के अन्दर शोर-शराबा हो रहा था।

  वह तेज गति से डेरे के अन्दर प्रवेश कर गया। अन्दर उसने देखा कि डेरा कबाड़खाना बन गया था। घर के सारे सामान अव्यवस्थित और बिखरे पड़े हुए थे। पूरा डेरा अस्त-व्यस्त मालूम पड़ रहा था। किचन में गैस जल रहा था। चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ी हुई थी, जिसमें कोई खाद्य पदार्थ जल रहा था। उससे धुएँ निकल रहे थे। उस जलती हुई वस्तु का गंध वातावरण में तेजी से फैल रहा था। घर के सारे बरतन, थाली, लोटे, ग्लास, भगौना, प्लेटें… आदि इस तरह बिखरे पड़े हुए थे मानो वे आपस में युद्ध का अभ्यास कर रहे हों।

  उसने तेजी से आगे बढ़कर गैस बन्द कर दिया। फिर जैसे ही किचन से वह बाहर  आया उसने देखा कि उसकी तीनों बच्चियाँ नीता, कांता, और अंजु एक कोने में बैठकर रो रही है। फिर वह अपनी पत्नी दामिनी को खोजने लगा। उसी वक्त पीछे वाले कमरे से वह हाथ में झाड़ू लिए निकली। उसके चेहरे पर लम्बी-लम्बी बालों की झूलती हुई लटों से उसका आधा चेहरा ढका हुआ था। वह उद्वेलित और उत्तेजित थी। सागर पर नजर पड़ते ही, सबसे पहले उसने उसको चार गालियाँ दी, फिर उसने पूछा, “तुमने साहूकार को सामान देने के लिए क्यों मना किया था? हम गये थे होली के लिए पांँच किलोग्राम घी, पांँच किलो मैदा, पांँच किलो डालडा, पांँच किलो चीनी  लाने के लिए तो उसने कहा, तुम्हारा मर्द मना किया है इतना सामान देने के लिए, दो-दो किलो देने के लिए तैयार हुआ।”




  “ठीक है!… डांँट देंगे उसको, अब जितना समान मांगोगी वह तुरंत दे देगा। “

 ” ई लोग बाहर भीड़ काहे लगाये हुए हैं , ऐं, हम अपने घर में कुछ करें, ई लोग बाहर खड़े होकर हंँस रहे हैं… ई सब पागल तो नहीं हो गया है इस मोहल्ले का आदमी… झाड़ू से मार-मारकर सब पागलपन उतार देंगे। “

 ” तुम चुप रहो न… हम सबको भगा देते हैं… तुम रूम में बैठो जाकर और झाड़ू रख दो। “

   सागर को समझते देर नहीं लगी कि दामिनी पर फिर पागलपन का दौरा पङा है।

  शादी के बाद उसे विश्वस्त सूत्रों से पता चला था कि शादी के पहले भी उसको एक बार पागलपन का दौरा पङा था, तब उस समय उसके  पिताजी ने गुप्त रूप से उसका इलाज करवाया था।

   सागर उसे मानसिक आरोग्यशाला(पागलखाना) में भर्ती करवाने की तैयारी में जुट गया था। उस दिन वह और उसकी तीनों बच्चियाँ किसी तरह दामिनी के पागलपन से युक्त अजीबोगरीब हरकतों को झेलते रहे। दूसरे ही दिन अपने ही मोहल्ले के एक शुभचिन्तक साथी के साथ उसे मानसिक आरोग्यशाला में दाखिल कराने के लिए सुबह ही बस से निकल गया बच्चियों को घर बन्द करके घर के अन्दर ही रहने का निर्देश देकर। उसने उनको यह भी बताया था कि वह शाम तक लौटकर आ जाएगा।

  उसने मानसिक आरोग्यशाला के महिला वार्ड में उसे भर्ती करा दिया। 

  सागर एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करता था। उसकी पत्नी दामिनी कुशल गृहणी थी। समय पर रसोई तैयार करना, घरेलू कामों को निपटाना, अपनी तीनों बच्चियों को तैयार कर स्कूल भेजना, फिर घर की साफ-सफाई  करना और शेष कामों को सफलतापूर्वक संपन्न करती थी।




  सागर भी सुबह नास्ता करके, दोपहर का लंच लेकर ड्यूटी करने चला जाता था। उसका दाम्पत्य जीवन सुखमय था।

  सागर का व्यक्तित्व भी आकर्षक था, लम्बा सुगठित शरीर, चौड़ी छाती, जब वह कंट्रास्टिंग कलर में पैंट-शर्ट पहनकर आंँखों पर चश्मा चढ़ा लेता तो फिल्मी हीरो से जरा भी कम नहीं लगता था।

  उसके साथ उस फर्म में दो-तीन लड़कियाँ भी काम करती थी, जिसमें एक लड़की प्रतिमा कुंवारी थी। उसकी आर्थिक पृष्ठभूमि भी मजबूत नहीं थी। उसकी शादी हेतु धन का अभाव एक बहुत बड़ी समस्या थी। वह अपने परिवार को इसके कारण उत्पन्न तनाव और चिन्ता से मुक्त करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहती थी।

  उस दिन फर्म में टिफिन के समय जब सागर यों ही उदास-उदास सा बैठा हुआ था तो प्रतिमा अपना लंच-बाॅक्स लेकर उसके पास पहुंँच गई। आते ही उसने कहा, “यह कहांँ का नियम है?… टिफिन का टाइम है तो कुछ खाओ-पीओ… थोड़ा घूमो इधर-उधर।”

  उसने मुस्कुराते हुए चुप्पी साध ली।

  आपसी बात-चीत के क्रम में उसको जानकारी मिल चुकी थी कि उसकी पत्नी पागलखाने में है।

  याद आते ही उसने पुनः कहा, “माफ करना सागर!… मुझे तो याद ही नहीं रहा कि तुम्हारी पत्नी तो मानसिक आरोग्यशाला में स्वास्थ्य लाभ कर रही है।”

  कुछ पल तक दोनों चुप्पी साधे रहे।

  फिर लंच-बाॅक्स में से आधा खाना निकालकर उसको दिया। उसने ना-नुकुर किया, लेकिन अंत में प्रतिमा ने राजी कर लिया खाने के लिए।

  लंच खाने के बाद सागर ने कहा,” अच्छा!… चलो बगल के ढाबे में चाय पीते हैं। “

 ” तुमने तो मेरे मन की बातें कह दी।” 




 दोनों ने ढाबे में एक-एक कप चाय पी

    चाय के पैसे वह देना चाहती थी, लेकिन सागर ने जबरन भुगतान कर दिया, यह कहते हुए कि उसका भी तो कुछ फर्ज बनता है।

  इसी दौरान दोनों ढाबे से हटकर थोड़ी दूरी पर जब खड़े थे तो प्रतिमा ने कहा,” मुझे तुमसे कुछ कहना है… “

  “क्या कहना है?… बोलो!” उसने संजीदगी के साथ कहा।

 ” तुम भी न सागर त्रेता-सतयुग के आदमी हो, जरा अपनी जिन्दगी के बारे में सोचो!… एक ऐसी स्त्री के साथ जीवन जीना चाहते हो, जिस पर किसी भी समय पागलपन के दौरे पड सकते हैं  तुम्हारे और तुम्हारे बाल-बच्चों का क्या भविष्य  होगा यह संदेह के घेरे में है, तुम्हारी जगह कोई दूसरा आदमी रहता तो कब. का तलाक देकर दूसरी शादी कर लेता और कानून में भी ऐसा प्रावधान है। तुम्हारे पास बाजाप्ता पागलखाने का प्रमाण भी है। कहीं दूर जाने की भी जरूरत नहीं है।… यहीं पर सब संभव हो सकता है। “

  उसके संवाद इशारा कर रहे थे कि उसके साथ शादी करने का उसका इरादा था। 

  मौका मिलने पर अक्सर वह इस तरह की बातें उसके साथ करती थी। अप्रत्यक्ष रूप से उससे शादी करने के लिए राजी करना चाहती थी, उसे उत्साहित करती रहती थी, किन्तु ऐसे अवसरों पर वह कहता,” वह ऐसा नहीं कर सकता है।… क्या जरूरी है कि दूसरी पत्नी में कोई दोष नहीं हो।… और फिर मैंने अग्नि को साक्षी रखकर उसके साथ आजीवन साथ निभाने का वादा किया है, जहाँ तक रोग की बातें है वह किसी को भी हो सकता है, रोग है तो आजकल उसका इलाज भी है। मेरी, तीन संतानों की मांँ है, उसे त्याग कर मैं दूसरी शादी नहीं कर सकता हूँ। उससे मेरा आत्मीय संबंध है। अब मुझे ही कुछ हो जाय तो वह मुझे छोड़कर चली जाएगी?… नहीं न, ऐसा करना इंसानियत भी नहीं है। “




  उसकी बातें सुनकर वह उदास हो गई। 

  उसने आगे कहा,”  तुम उदास क्यों हो गई, तुम्हारी भावनाओं को मैं समझ सकता हूँ। पुरुष का रूप सिर्फ प्रेमी और पति का ही नहीं होता है, उसका रूप भाई और पिता का भी होता है। तुम्हारा भाई बनकर तुम्हारी शादी के लिए प्रयास करूँगा।” 

  उसके इस जवाब से प्रतिमा उमंग-उत्साह से सराबोर हो गई। 

                               दामिनी स्वस्थ होकर घर आ गई। 

  जब लोगों के द्वारा दौरे के दरम्यान किये गये गलत व्यवहार और ऊटपटांग कारनामों की उसे जानकारी मिली तो उसे बहुत अफसोस हुआ। वह सागर के पैरों को पकड़कर माफी मांगने लगी तो यह कहते हुए उसको उठाकर  उसने अपने गले लगा लिया कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह तुम्हारे रोग के कारण ऐसा हुआ। 

  जिस समय डेरा में उसने प्रवेश किया आरोग्यशाला से वापस आने के बाद प्रेमातुर होकर  उसने अपनी बेटियों को ऐसे गले  लगा लिया था मानो वर्षों बाद खोई हुई पुत्री से मुलाकात हुई हो। 

  उसने स्वतः अपने अंतर्मन में कहा, “मैं सचमुच बहुत भाग्यशाली हूँ जो मुझे समर्पित पति मिला।” 

      # 5वां जन्मोत्सव 

      बेटियाँ कहानी प्रतियोगिता 

                पांँचवीं कहानी 

     स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                   मुकुन्द लाल 

                    हजारीबाग(झारखंड)

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