समर्पण की दीवार – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi: सुबह के धुंधलके के ॲंधेरे में अपने घर की दहलीज लाॅंघ अपने लिए स्वयं ही ओल्ड एज होम में बुक किए गए कमरे की दहलीज पार करते हुए पैंतालीस साल की वैष्णवी के पाॅंव एकबारगी काॅंप गए थे और वो वही चौखट पर ही बैठ गई। ओल्ड एज होम जाने की इच्छा नहीं थी उसकी, लेकिन पंद्रह दिन पहले भाई और उनकी पत्नियों की बात सुनकर उसने अपने लिए ओल्ड एज होम जाने का निर्णय ले लिया था।

याद आ गई थी आज से पच्चीस साल पहले की वो चौखट जहाॅं उसके माता पिता का पार्थिव शरीर रखा हुआ था और उसके तीनों छोटे भाई बहन उसके गले लगकर रोये जा रहे थे और बीस साल की वैष्णवी फटी फटी ऑंखों से माता पिता को देखती रो भी नहीं पा रही थी। उसके आगे आज की तरह ही सिर्फ और सिर्फ एक ॲंधेरा ही दिख रहा था और आज की तरह ही वो काॅंप रही थी। उस एक्सीडेंट में उसने अपने माता पिता के साथ साथ अपनी ऑंखों के सारे सपने भी खो दिए थे। 

अभी तो उसका कॉलेज भी खत्म नहीं हुआ था, कैसे संभालेगी वो। सोलह साल के भाई की दसवीं, तेरह साल के भाई का हर पल ही उसके इर्द गिर्द घूमना और दस साल की बहन का उसे टुकुर टुकुर ताकते रहना, अभी वैष्णवी को सब कुछ याद आ रहा था और वैष्णवी ने अपना ऑंचल फैला दिया था, जिसमें तीनों चिड़िया के चूजे की तरह समाहित हो गए थे।

देख बेटा इस तरह घर बैठे रहना जीवन का समाधान नहीं है…सारे रिश्तेदार अपनी अपनी उलझनों में उलझे चले गए थे लेकिन वैष्णवी की बड़ी मौसी और मौसा तीनों की सहायता के लिए रुक गए थे।

उठ बेटा, जो भी कागजी काम हैं वो तेरे मौसा करा लेंगे। सारी चीजें देगी तो तू ही ना। कई दिन हो गए दुकान बंद हुए, अब उस पर भी ध्यान दे बेटा …वैष्णवी की मौसी उसका सिर सहलाती हुई कहती है।

वैष्णवी ने उस एक क्षण में अपनी आँखों में जमे अनगिनत स्मृतियों का संग्रह किया। उसकी यादों का सफर वापस पलट गया, जब उसके माता पिता हमेशा उसके सपनों में मुस्कुराते दिखाई देते थे। उनकी आवाज, उनकी मुस्कराहट, वो सब वैष्णवी के दिल में बसे हुए थे‌ और वह चाहती थी कि वो उन्हें फिर से अपने साथ महसूस कर सके और उसी क्षण उसने अपना सारा सुख दुःख त्याग कर खुद को अपने भाई बहन को समर्पित कर दिया था।

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दीदी दुकान पर मैं बैठ जाया करूंगा, तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लो… एक दिन भाई अमन ने कहा था।

नहीं अब तुम तीनों पढ़ाई में मन लगाओ, तुम तीनों का जीवन में सफल होना ही मेरी सफलता होगी…भाई के भावनात्मक उद्गार से ऑंखों के कोर में आ गए नीर को पोछ्ती वैष्णवी ने कहा था।

दुकान के साथ साथ ट्यूशंस, बुटीक में पार्ट टाइम काम करके दिन रात देखे बिना खुद को काम में डूबा दिया, जिससे भाई बहन को कोई कमी महसूस न हो। तीनों अपने पैरों पर खड़े हो सकें, क्या इसी दिन के लिए ? खुद के लिए कुछ नहीं सोचा, क्या इसी दिन के लिए …वैष्णवी का शरीर चौखट पर बैठा था लेकिन मन भागा जा रहा था।

तीनों भी तो जहीन ही निकले, अपने अपने क्षेत्र के महारथी होकर उभरे। वो तो अब रानी बनकर रह रही थी। लेकिन उस दिन

दीदी के लिए क्या है, एक कमरा ही काफी है…छोटे की दुल्हन कह रही थी।

हाॅं और भी तो काम हैं…बड़े की दुल्हन भी हाॅं में हाॅं मिलाती हुई कह रही थी।

उसने वही दरवाजे पर से देखा तो दोनों भाई गाल पर हाथ दिए चुपचाप अपनी अपनी पत्नियों की बात सुन रहे थे। वैष्णवी इसके आगे सुन नहीं सकी और अपने कमरे की बत्ती बुझाकर लेट गई।

क्या बात है दीदी, तबियत ठीक नहीं है क्या। खाना खाने भी बाहर नहीं निकली…बड़े ने कमरे में आकर पूछा तो कुढ़ कर रह गई थी वैष्णवी।

दूसरे दिन से ही उसने ओल्ड एज होम खोजना शुरू कर दिया था और आज यहाॅं कमरे की चौखट पर बैठी, क्षितिज को पार कर नभ पर छाते सूरज को खिड़की से देखती गालों पर अश्रु ढलका रही थी।

एक महीना होने को आया, किसी ने खोज खबर भी नहीं ली। उन्हें तो खुशी हो रही होगी कि गले की फांस खुद ब खुद निकल गई…वैष्णवी पौधों को पानी देकर वही बेंच पर बैठी सोच रही थी।

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बिटिया जब से तुम यहाॅं आई हो, ना किसी से बोलती हो , पौधों को पानी देने के अलावा कभी कमरे से बाहर भी नहीं निकलती हो। आज पहली बार तुम्हें इस जगह बैठे देख रहा नहीं गया… एक बुजुर्ग महिला उसके पास आकर कहती हैं।

तुम्हारी उमर तो अभी यहाॅं आने की नहीं हुई है, तुम यहाॅं कैसे आ गई…बुजुर्ग महिला ने पूछा।

किसी की यहाॅं आने की ना तो उमर होती है ना इच्छा। सबकी मजबूरी ही होती है…वैष्णवी ना चाहते हुए भी बोल उठी।

फिर भी बेटा तुम्हारे बच्चे इतने बड़े हो गए क्या, जो उन्हें तुम्हारी जरूरत नहीं रही..बुजुर्ग महिला वैष्णवी का हाथ अपने हाथ में लेकर बहुत ममत्व से पूछती है।

एक अरसे के बाद किसी से मां सी ममता पाकर वैष्णवी रो उठी और सिलसिलेवार सब कुछ बताती चली गई।

ओह मतलब तुमने खुद ही अपने और उनलोगों के बीच समर्पण की दीवार खड़ी कर दी है…बुजुर्ग महिला बहुत अफसोस से वैष्णवी की ओर देख कर कहती हैं।

हां बेटा, क्या गलत कहा था तुम्हारे घर वालों ने, रहने के लिए सभी को एक कमरा ही चाहिए होता है। उन लोगों के पास भी एक ही कमरा होगा। क्या उन्होंने तुम्हें किसी और कमरे में उठने बैठने से मना किया या किसी और काम से कभी मना किया, नहीं ना। बेटा हम त्याग समर्पण सब कर तो लेते हैं, उसके बदले उन लोगों से गुलामी भरा व्यवहार चाहते हैं। बेटा तुम्हारे समर्पण के बदले वो तुम्हारी इज्जत कर सकते हैं, गुलामी नहीं। तुमने तो त्याग के एवज में बाउंड्री सेट कर ली कि अब तुम्हारे बिना वो लोग कोई बात , कोई निर्णय ले ही नहीं। कोई किसी को खुद को समर्पित कर देने नहीं कहता है। एक अच्छी इंसान होने के नाते ये तुम्हारी भलमनसाहत थी। लेकिन उनसे बात न कर घर छोड़ने का तुम्हारा निर्णय बिल्कुल सही नहीं था…वैष्णवी की चेहरे पर उभर आए ढ़ेर सारे प्रश्नचिन्ह देखकर बुजुर्ग महिला उसे समझाती हुई कहती हैं।

अब…वैष्णवी को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसके मुंह से इतना ही निकला।

अब क्या, सुबह सुबह घर पहुंचो और क्या। दुबारा घर जाने का अवसर किस्मत वालों को मिलता है और तुम्हारे घर वाले तुमसे बहुत प्यार करते हैं..

ऐसा था तो अभी तक किसी ने खोजा क्यूं नहीं मुझे…वैष्णवी पूछती है।

हो सकता है खोज रहे हो और यहां का कोई आइडिया ही नहीं हो। है भी तो यह शहर के अंतिम छोर पर…बुजुर्ग महिला हॅंस कर कहती हैं।

सुबह के सूरज के साथ दरवाजे पर दस्तक देती वैष्णवी के हाथ और हृदय कांप रहे थे लेकिन तीनों के एक साथ लिपट जाने से खुद के द्वारा बनाई गई समर्पण की दीवार उसे गिरती हुई महसूस हुई और उसने फिर से अपना आंचल फैला कर तीनों को उसमें समाहित कर लिया था।

आरती झा आद्या

दिल्ली

#समर्पण

 

 

 

 

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