“सहारा” – राम मोहन गुप्त

भईया, मैं अंदर आ जाऊँ!

हाँ आओ न, कहते हुए विनोद ने सुबोध की ओर देखा, जो बंशी को लगातार घूरे जा रहा था।

कल ही की यो बात है कि उसने बंशी को घर से भगा दिया था। रोज रोज घर आकर कुछ न कुछ माँगना, दे दूँगा कह कर भी कभी वापस न देना बंशी की आदत में शुमार हो गया था और यही बात सुबोध को नागवार लगती थी, पर भईया थे कि समझते ही नहीं।

 

बंशी ने अंदर आते ही ‘थोड़ा दूध चाहिये था भईया’ क्या कहा सुबोध से न रहा गया और वह तुरन्त ही बोल पड़ा ‘दूध नहीं है’ पर यह क्या विनोद भईया गिलास में दूध लिए खड़े थे।

भईया आपने पता नहीं क्यों इसे मुँह लगा रखा है क्या जरुरत है आप बंशी की चिकनी चुपड़ी बातों में आ जाते है वरन यह न तो काम का और न काज का! जब देखों मुँह उठा कर चला आता है मानों हमनें इसका ठेका ले रखा है, कहते हुए सुबोध थोड़ा गुस्सा सा हो गया।

 

जाने भी दो सुब्बू , क्या हुआ जो हम थोडी बहुत मदद कर देते हैं बंशी की, क्या घट जाता है हमारा! बेचारे की जरा सी मदद कर देने में अपना क्या चला जाता है। आस लगा कर आता है तो भला कैसे तोड़ दूँ।

पर क्यों भईया! ऐसे कब तक चलेगा और क्यों? सुबोध फिर भड़क उठा।

अब विनोद कैसे बताए उसे कि यही वो बंशी है जिसने उन्हें उस समय भी नहीं छोड़ा था कि जब उनके पास उसे देने को कुछ भी न था और जो माँ-पापा के एक्सीडेंट के बाद से बग़ैर कुछ लिए उनके घर में न केवल काम कर रहा था बल्कि गाहे-बगाहे बाजार से कुछ न कुछ ले भी आता था, जिसके बारे में सुबोध को कुछ भी पता न था।

 

दीग़र बात है कि अब बढ़ती उम्र के साथ उसके पास कोई काम न था और जीने का कोई सहारा भी नहीं, इधर-उधर घूमघाम कभी कभार रोजी-रोटी का जुगाड़ करके न जाने कैसे जीवन काट रहा था बंशी।

विनोद को आज भी याद है जब बंशी ने कहा था भईया घबराना मत हम हैं आपके साथ, बस आप अपना और छोटू का ध्यान रखना, माँ-बाबू की कमी तो पूरी नहीं कर सकता पर आपको अकेलापन कभी नहीं महसूस होने दूँगा।

बंशी की इसी बात और निश्छल साथ ने उससे अजब सा रिश्ता बना लिया था, वो दिन है और  आज का दिन कि बंशी उसके जीवन का अटूट रिश्ता बन गया जिसको निभाना नहीं बल्कि जीना उसे अच्छा लगता है और क्यों न लगे यह बंशी ही तो था जब सबने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था तब भी वो उनके साथ रहा एक अटूट सहारा बन कर।

#दिल_का_रिश्ता

रामG

(राम मोहन गुप्त)

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