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सब दिन न होत एक समाना  – अमित किशोर

मां के असामयिक निधन के बाद से ही एक नई ‘समस्या’ ने घर कर लिया था। समस्या इसलिए क्योंकि तथाकथित जिम्मेवारियां जब दुरह हो जाती हैं तो हम जैसे आधुनिक मानसिकता वाले लोग इसे ‘समस्या’ का नाम दे देते हैं। पापा अकेले थे और स्वास्थ्य भी उनका अब ढलान पर था। जीवनसाथी के अकस्मात विछोह का एक आघात भी था उनके मन में इसीलिए हम दोनों भाइयों के बीच ये तय हुआ कि पापा घर पर अकेले नहीं रह सकते और ये हम दोनों भाइयों की जिम्मेवारी थी कि पापा को अपने साथ रखें और उनकी सेवा करें। आपस में निर्णय लिया हमने कि छह महीने करके पापा अपने दोनों बेटों की सेवा का आनंद लेंगे और घर को किराए पर चढ़ा दिया जायेगा। पापा ने मेरे घर पर दिल्ली में छह महीने बिताए। मेरी नई नई शादी हुई थी, और, मुझे ये अच्छे से पता था कि इन छह महीनों में पापा बहुत अनकंफर्टेबल रहे मेरे साथ। बार बार कहते, ” बेटा, मुझे अपने भैया के पास भोपाल छोड़ आओ। तुम लोगों की अभी नई नई शादी हुई है। मेरे चक्कर में अपना ये समय क्यों बर्बाद कर रहे हो !!

सुमित के पास पहुंच जाऊंगा तो मेरा भी मन लगा रहेगा। वहां मेरी सेवा के लिए रागिनी है ही और दोनों बच्चों के बीच दिन कैसा कटेगा, पता भी नहीं चलेगा। ” पापा जब भी मुझसे ये बात कहते, मैं समझ जाता कि पापा अनकंफर्टेबल हो रहे थें। मुझे भी ऑफिस के बाद से ज्यादा टाइम मिलता नहीं था पर मेरी पत्नी प्रिया ने भी कोई कसर न उठा रखी थी पापा के सेवा में, पर, पापा थे कि नई बहु से सेवा करवाने में हिचकते रहते। छह महीने बीत चुके थे, बल्कि अठारह दिन से भी ऊपर हो गए थे, लेकिन सुमित भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब दिल्ली आने वाले थें। ये उनका हमेशा का ही था।

मां जब जीवित थी, होली दशहरे में घर आने की बात होती तो उनका असल रूप सामने आ जाता। हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता । और इस बार तो पापा को रखने की उनकी बारी थी, ये बात जानते ही वह समस्याओं से गुज़रने लगे थें। कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जा रही थी तो कभी उनके ऑफिस का काम बढ़ जाता था और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती थी। आज़ीज होकर मुझे ही पापा को छोड़ने भोपाल जाना पड़ा। राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया। बाकी बर्थ खाली थी। कुछ ही देर में अपने नियत समय पर ट्रेन चल पड़ी। अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी पापा ने कहा, “प्रिया का ख्याल रखना। नई नई शादी है ना, अपना घर छोड़ कर आई है और तुम्हारी मां भी नहीं अब जो उसका ध्यान रखे। अब सब तुम्हें ही करना है।” पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा।

कितनी बार समझाया था पापा को कि वो इतनी चिंता न करें। मैंने कुछ भी नहीं कहा। पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं। मैं उनसे कुछ कहता, इससे पहले मेरा मोबाइल बज उठा। प्रिया का फोन था। भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न !!” “हां हां बैठ गए हैं। गाड़ी भी चल पड़ी है।” “देखिए, पापा का ट्रेन में ख़्याल रखिएगा। मोबाइल पर ही मत लगे रहिएगा।रात में याद से दवा दे दीजिएगा और हां, भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आइएगा।पापा को वहां कोई तकलीफ़ न हो, इसका ख्याल रखिएगा।” “नहीं होगी।” मैंने झुंझलाकर फोन काट दिया। “प्रिया का फोन था न !! मेरी चिंता कर रही होगी।”




पापा समझ गए। पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था। रात में खाना खाकर पापा सो गए। थोड़ी देर में गाड़ी आगरा कैंट स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया। तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर एक आदमी अंदर आया, उसे देखते ही मैं हैरत में पड़ गया। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रजत से इस तरह यूं ट्रेन में मुलाक़ात होगी। एक समय पर रजत और रमाशंकर अंकल का परिवार हमारा पड़ोसी हुआ करता था। पापा की पोस्टिंग उन दिनों आगरा कैंट में ही थी। आर्मी में रहे थे पापा। रजत तो मेरा क्लास फ्रेंड भी रहा पर हम दोनों के बीच दोस्ती कम और नंबरों को लेकर कंपटीशन अधिक ही रहता था। हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, पर न जाने क्या बात थी रजत में कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी हमेशा रजत के ही हाथ लगती थी।

शायद मुझमें ही कुछ कमी थी। कुछ समय के बाद पापा ने पटना में हमारे पैतृक घर को रिनोवेट करवाया और एक आलीशान पक्का मकान बनवा लिया। मैंने कॉलेज ज्वाइन कर लिया और इस तरह रजत और मेरा साथ छूट गया। अभी चार महीने पहले की ही तो बात थी। रजत को देखते ही मुझे सब यकायक याद आने लगा। एक सुबह जैसे ही मैं अपने ऑफिस पहुंचा, लाउंज में एक शख्स को बैठा हुआ पाया। जाना पहचाना सा चेहरा था पर मैं अपनी केबिन में चला गया।अचानक देखा वही शख्स मेरे सामने आया, मुझे जबरदस्ती गले लगाया और कहने लगा, “आलोक, तू कितना बड़ा आदमी बन गया. पहचाना मुझे? मैं रजत ।” मैं सकपका गया। फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर गायब हो गई। इतने लोगों के सामने, उसका इस तरह मुझे गले लगा लेना, मुझे रास नहीं आया। खासकर, यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क था, जो मेरे सामने अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया था, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया। कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सारे स्कूल के दोस्त भी यही कहते थे कि एक दिन रजत बहुत बड़ा आदमी बनेगा। और उस दिन मैं ये सोच रहा था कि मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह कहां रह गया । जैसे ही मैं अपने ख्यालों से बाहर आया तो देखा, रजत अपनी बूढ़ी मां यानि रमाशंकर चाची को साइड की सीट पर लिटाने की कोशिश कर रहा था।




रजत बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं।” मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रजत?” “ठीक हूं सर.” रजत ने कहा। रजत का मुझे सर कह देना मेरे अहम को संतुष्ट कर गया। शायद यही वो चीज थी जो हमारे बीच न जाने कब से अंतर पैदा कर रही थी। “सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं। आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं। आपको कहां याद होगा मैं? ” रजत ने कहा। पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई। उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रजत, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो।” अचानक पापा की आंखें खुल गई और वो अपने बर्थ पर उठकर बैठ गए। रजत को देखा, बहुत खुश हो गए। बोले, ” वाह रजत, रमाशंकर बाबू का एहसान मैं कभी चुका न सका।

बड़ी मदद की थी उन्होंने जब हम आगरा में थे। सुमित और आलोक की मां तो अपना मुंहबोला भाई मानती थी उन्हें। अगर रमाशंकर बाबू न होते, तो शायद आज परिवार मेरा बिखर गया होता। भाभी की ऐसी दशा देखकर दुख तो जरूर हो रहा है, रजत पर एक तसल्ली भी है कि चलो, तुम इस बुढ़ापे में अपनी मां के साथ हो।” मुझे ऐसा लगा, मानो पापा ने मेरे मुंह पर तमाचा जड़ दिया हो। रजत के लिए पापा की बातों ने मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा दिए थे। इतने सालों से जमा किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो रहा था।

फिर पूरी यात्रा में मेरी हिम्मत ही नहीं हुई रजत से नजरें मिलाने की। पता नहीं, रात में ही वो कब और कहां, किस स्टेशन पर उतर गया। जब भोपाल स्टेशन पर हम उतरे, तो मन में बहुत शांति थी। आंखों के ऊपर वक्त ने जो रंगीन और धुंधला चश्मा चढ़ा दिया है , उसके शीशे अब साफ हो चुके थे और मैं सब कुछ पहले से बेहतर देख पा रहा था। (पाठकगणों, समय बड़ा बलवान होता है, इतना कि राजा को रंक और रंक को राजा बना देने में देरी नहीं करता। समय परिवर्तनशील है। न जाने कब किसका समय पलट जाए, कोई नहीं जानता। अच्छे वक्त के तो सभी साथी होते हैं, पर बुरे वक्त पर जो साथ दे, वही जीवन का सहारा कहलाता है। इसीलिए, समय का सम्मान जीवन का ध्येय होना चाहिए। इस रचना पर अपनी प्रतिक्रिया ~ सकारात्मक/ नकारात्मक टिपण्णी कर अवश्य प्रेषित करें)

#वक्त

स्वरचित एवं मौलिक

अमित किशोर

धनबाद (झारखंड)

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