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 रूप-निर्माण – जयसिंह भारद्वाज

कहानी “मेरी अमृता” से आगे…

लखनऊ से शाम साढ़े चार बजे चली जनता एक्सप्रेस डोईवाला, लच्छीवाला और हर्रावाला तक के मनोहारी जंगल के बीच से गुजरती हुई सुबह छह बजे देहरादून के प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर ठहरने को उत्सुक थी। मैं ने और अमृता ने अपने अपने बैग सम्भाले और निकास द्वार की तरफ बढ़ चले। स्टेशन के बाहर निकलते ही ऑटो लिया और होटल अभिनन्दन जा पहुँचे। काउन्टर पर प्रीबुकिंग कन्फर्म हुई तो अटेंडेन्ट  हमें रूम नम्बर 308 में छोड़ गया।

स्नान करने के बाद हम तनिक रिलैक्स हुए और फिर मंजू को मैसेज भेजा, “हम होटल अभिनन्दन के रूम नम्बर 308 में प्रतीक्षा कर रहे हैं आप के परिवार के साथ नाश्ता करने के लिए।”

पलभर में एक्स्क्लेमेट्री इमोजी के साथ उत्तर आया – “हम एक घण्टे में पहुंच जाएंगे।”

तब तक मैं नाश्ता ऑर्डर करने के लिए मेन्यूकार्ड देखने लगा।

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डोरबेल बजी तो मैंने अमृता से कहा – “जाइये, दरवाजे को अनलॉक कर दीजिए।”

अमृता ने मुस्कुराते हुए कहा – “महोदय, मंजू जी आपसे मिलने आयी हुई हैं इसलिए सामने आप ही जाइये तो उन्हें अच्छा लगेगा।”

दुबारा बेल बजी ही थी कि मैंने धीरे धीरे द्वार खोल दिया। देखा तो सामने कॉरिडोर में कोई पचास-बावन वर्ष की मध्यम व छहररे कद-काठी की गेहुआँ रंग की  महिला दोनों हाथों से अपनी आँखों को बंद किये हुए खड़ी थी। उनके बगल में उन्हीं की आयु का एक पुरुष व चौबीस पच्चीस वर्षीया लड़की खड़ी थी। पुरुष व लड़की मुझे देख कर मुस्कुराए तो मैं ने भी मुस्कुरा कर आँखों से संकेत करके जानना चाहा कि क्या यही मुझसे मिलने आयी हैं। उन्होंने गर्दन हिलाकर सकारात्मक संकेत किया।

मैं कॉरीडोर में दो कदम आगे बढ़कर मंजू से दो कदम दूर रुक कर कहा – “मंजू, मैं तुम्हारे सामने हूँ।”

मंजू के शरीर में तनिक सिहरन सी हुई और फिर वह आँखें बंद किये ही दोनों बाहें फैलाकर मेरी तरफ बढ़ी और मेरी कमर को अपने घेरे में लेते हुए लिपट गयी और सुबकने लगी। मैंने अपने हाथ उनकी पीठ पर रख कर थपकी देते हुए कहा – “ये कैसा स्वागत है मंजू! आँसुओं से कोई अपने मेहमान का स्वागत करता है। आओ, कमरे में चलें। कॉरिडोर में लगातार लोग आ जा रहे हैं और वे हमें ही देख रहे हैं।”



उसी दशा में मंजू ने मेरी पीठ में अपनी उंगलियों से रूम के अंदर चलने का संकेत किया।

कमरे में आकर दरवाजा उड़काया और सोफे के पास लाकर उन्हें बैठने के लिए कहा। मंजू ने अपनी बाहें ढीली कीं और फिर मेरे चेहरे की तरफ पहली बार देखने लगीं। एकबार फिर से उनकी आंखें सजल होने लगीं तो मैने उन्हें सोफे पर बिठाते हुए कहा – “आप तसल्ली से बैठ जाइए। नाश्ता करते समय बातें भी करेंगे। और सुनिए! मैं आपके लिए दो दिनों के लिए आया हूँ। मैं चाहता हूँ कि जब लौटूँ तो मेरे साथ यहॉं की मधुर स्मृतियां भी जाएं।”

मंजू बैठ गईं किन्तु अपने एक हाथ से मेरे कलाई पकड़े रहीं। दूसरे सोफे पर मैने दूसरे दो अतिथियों को बैठने का संकेत किया और अमृता एक कुर्सी घसीट कर मेरे पास ले आयी। मैं उसपर बैठने लगा तो मंजू ने मेरी कलाई को अपनी तरफ खींचा और बोली – आप मेरे पास बैठ जाइए न प्लीज।

भारतीय सिनेतारिका रानी मुखर्जी सी वही आवाज सुनकर मुझे कन्फर्म हो गया कि यही मंजू है जिनसे मिलने मैं आया हूँ।

मैं सोफे में बैठ गया तो अमृता ने कुर्सी पर आसन जमा लिया।

नाश्ते के मध्य परिचय हुआ तो ज्ञात हुआ कि साथ में आये पुरुष का नाम अरविंद दीक्षित है और वे पिथौरागढ़ के निवासी हैं। इस समय देहरादून में वनविभाग में कार्यरत हैं। ये मंजू के पति हैं। साथ में आयी युवती मंजू की इकलौती बेटी जया है। जब मैंने अमृता की तरफ संकेत करके परिचय देना चाहा तो अरविंद ने कहा – “ये अमृता जी हैं.. आपकी पत्नी और प्रेरणा भी।”

मैं – “वाह! उचित कहा आपने बन्धु।”

अमृता – “मैं जया बेटी को देख रही हूँ.. इसका चेहरा….”

जया – (मेरी तरफ इशारा करते हुए) “बिल्कुल अंकल जी जैसा है न!”

अरविंद – “मैं भी तो यही कहता था कि जया की मुखाकृति न तो मेरी तरह है और न ही मंजू जैसा।”

मंजू – “मेरा क्या उत्तर होता था तब! यही न कि यदि ईश्वर ने अवसर उपलब्ध कराया तो अवश्य बताऊंगी। आज वह अवसर आ गया जब मैं बता सकती हूँ कि (मेरी तरफ देखते हुए) यही वह व्यक्ति जिनकी छवि मैंने पूरी प्रेग्नेंसी में अपने मस्तिष्क में अंकित कर रखी थी। मैंने सोचा था कि जब मैं किसी को पा नहीं सकी तो पूज तो सकती ही हूँ अपना आराध्य बना कर। नहीं थी फ़ोटो, नहीं थी मूर्ति तो क्या हुआ। थी मन में छवि .. और देखिये जया को। मेंरे आराध्य की छवि अंकित है न उसके चेहरे पर।”



अरविंद – “मंजू ने मुझे विवाह के बाद आपके विषय में बताया था। मुझे अचरज हो रहा था कि कोई लड़की कैसे किसी अजनबी से 5-6 घण्टों की बस के यात्रा में इतनी प्रभावित हो जाये कि उसे आराध्य बना ले। मुझे कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि भगवान की पूजा करने से किसी को कैसे रोका जा सकता है और भला क्यों?”

तभी मंजू उठी और अमृता को गले लगाकर बोली – “आप क्यों रो रही हैं देवी जी!”

अमृता – “अपने पति का यह रूप देख कर नयन भर आये। मैं बेवकूफ इन्हें एक मानव ही समझती रही किन्तु इनका स्वरूप तो कुछ और ही है जिसे आप से बेहतर कौन समझ सकता है।”

मंजू – “मैं पिछले 25 सालों से उत्तराखण्ड में महिला एवं बाल विकास विभाग में अधिकारी हूँ। हर तीसरे साल नया जनपद और नए लोग मिलते हैं। विवाह से पूर्व तो कोई ऐसा युवा मिला ही नहीं था जो भरपूर अवसर न मिलने पर भी एक लड़की से उसकी देह की याचना न की हो। जबकि मैं तो ‘जय’ जी से बहुत अधिक इंफ्लुएंस्ड हो चुकी थी और इनके एक इशारे पर कुछ भी करने को उद्यत थी.. सचमुच कुछ भी। किन्तु इन्होंने उस रात न केवल मुझे स्पर्श करने में संयम बरता बल्कि मेरे द्वारा दिये गए चाँदी के गिफ्ट को भी चुपके से मेंरे दुपट्टे के कोने में बाँध कर मुझे वापस करके मेरी दृष्टि में ईश्वर के समकक्ष हो गए। विवाह के बाद नौकरी के इन पच्चीस सालों में मैं मिलने वाले पुरुषों में वही आचार-व्यवहार और बोली भाषा परखती रही किन्तु कोई दूसरा कभी नहीं मिला। अच्छा ही हुआ। अन्यथा मेरी निष्ठा में बिखराव आ जाता।”

मैं – “ए हैलो! यदि मेरी यह स्तुति और आरती का पाठ समाप्त हो चला हो तो कहीं घूमने चलें।”

सभी मुस्कुरा पड़े किन्तु मंजू सीरियस बनी रही।



–//–

मंजू के आवास पर डिनर करते समय जया ने अमृता से कहा – “आन्टी जी, क्या आप मुझे मेरे भाई से नहीं मिला सकती?”

अमृता – “हाँ हाँ क्यों नहीं।”

कहकर मुझसे कहा – “तनिक बेटे को वीडियो कॉल करें।”

मोबाइल स्क्रीन पर बेटे तनय की छवि उभरी और स्वर भी – “जी डैडी जी, कैसी रही आपकी देहरादून की यात्रा। मंजू चाची से मुलाकात तो हुई न!”

मैं – “यह सब अपनी माँ जी से पूछो।”

कहकर मैंने फोन अमृता को दे दिया।

अमृता – “बेटे, यहाँ यात्रा और प्रवास सभी सुखद रहे। आपके लिए एक सरप्राइज गिफ्ट है!”

तनय – “मेरे लिए सरप्राइज गिफ्ट! अरे माँजी, आप और डैडी जी दोनों लोग सकुशल कानपुर वापस आ जाइये बस यही सर्वोत्तम उपहार है मेरे लिए।”

अमृता – “बेटे, मैं तुम्हारी बहन से मिलाना चाहती हूँ। यह देखिये।”

कहकर अमृता ने मोबाइल जया को दे दिया। जया ने नमस्ते कहते हुए हाथ जोड़ दिए और कहा – “भइया, मैं जया।”

तभी तनय का स्वर उभरा – “ओ…त्तेरी! आपकी सूरत तो डैडी से बिल्कुल मिलती है! यह कैसे सम्भव हुआ.. “

जया – “यह सब कभी अवसर मिला और आमने सामने हुए तो अवश्य बताउंगी।”

तनय – “अरे! मैं शीघ्र मिलने आऊँगा।”

जया – “यदि रक्षाबंधन पर्व पर आ जाएं तो बढ़िया रहेगा।”

तनय – “ठीक है। राखी बंधवाने मैं अवश्य देहरादून आऊँगा।”

जया – “ओके बाय भइया।”

तनय – “बाय जया। माँजी को मोबाइल दे दीजिए प्लीज।”

अमृता (मोबाइल लेते हुए)- “कैसा लगा सरप्राइज?”

तनय – “अमेज़िंग, स्टनिंग और अनप्रिडिक्टेबल है यह, माँजी! यह सब कैसे .. उफ्फ! “

अमृता – “बेटे इसमे इतना हैरान होने की बात क्या है? आपने अपने पड़ोस में रहने वाले गुप्ता दम्पति के बच्चे को तो देखा था न !”

तनय – “हाँ हाँ वह गोरखा नेपाली सा बच्चा!”

अमृता – “हाँ, बस वैसा ही इफेक्ट समझ लो।”

तनय – “ओह! अच्छा। मैं समझ गया। ठीक है। आप लोगों की वापसी की टिकट कल शाम की है।”

अमृता – “हम समय से आ जाएंगे। ओके बेटा.. राम राम।”

तनय – “राम राम माँजी। “

जया – “आन्टी जी, यह आपके पड़ोस वाला क्या मसला था। बताइये न प्लीज!”

अमृता – “जया बेटी, हमारे पड़ोस में एक नवविवाहित गुप्तादम्पति रहने के लिए आये। दोनों जॉब पर थे। जब महिला गर्भवती हुई तो पति ने बारह साल के दिलबहादुर नाम के एक नेपाली किशोर को घर के काम व पत्नी की सहायता के लिए रख लिया। अब दिनभर दिलबहादुर उस गर्भवती महिला के सामने बना रहता कभी इस काम से तो कभी उस काम से। कई बार बिना काम के भी वह गृहस्वामिनी के पास फर्श पर बैठकर पैर दबाता रहता। जब छह माह का गर्भकाल पूरा हो गया तो महिला को दिलबहादुर की और अधिक आवश्यकता पड़ने लगी। अब वह किशोर रात दिन उसके अगलबगल बना रहता। महिला भी स्नेह से उसकी देखरेख करती और भोजन-वस्त्र आदि पर एक दृष्टि रखे रहती ताकि वह भूखा न रह जाये। जब नियत अवधि ओर गृहस्वामिनी ने एक स्वस्थ बच्चे का जन्म दिया तो सभी हैरान थे। क्योंकि बच्चे की मुखाकृति बिल्कुल दिलबहादुर (नेपाली गोरखे) जैसी थी। उस महिला की हैरानी को दूर करते हुए डॉक्टर ने बताया – “प्रेग्नेंसी के दौरान महिलाओं के शरीर में हार्मोन की सक्रियता बढ़ी हुई होती है। जिस तरह से खाद पानी और पर्यावरण का प्रभाव बढ़ती हुई फसल पर पड़ता है उसी प्रकार गर्भस्थ शिशु के विकास पर माँ के आहार-व्यवहार और तत्कालीन विचारों का प्रभाव भी प्रभावी होता है। इसीलिए बड़ी बूढ़ियाँ घर में गर्भवती महिला के कक्ष की दीवारों पर श्रीराम, कृष्ण व बच्चों के मुस्कुराते हुए चित्रों को लगा दिया करती थीं ताकि वह महिला अपने कमरे में रहते हुए इन्हीं चित्रों को बारम्बार देखती रहे जिससे इन चित्रों की छवि का उसकी सन्तान के विकास पर प्रभाव पड़ता रहे। आप परेशान न हों। आपके बच्चे का ऐसा रूप-निर्माण एकदम नेचुरल है। अभिमन्यु की कहानी भी याद किया जा सकता है इस तदर्थ में।” यह है वह कहानी।”

अमृता ने बात समाप्त की तो मंजू उठी और अमृता को गले लगाते हुए बोली – “आपकी इस कथा ने जया की शकलसूरत के सभी संशयों को नष्ट कर दिया है।”

मैं – “आपकी बात ठीक है लेकिन मैं अरविंद जी के धैर्य, सहनशक्ति और उदारता की प्रशंसा किये बिना नहीं रहूँगा।”

मंजू – “आपकी बात से मैं शतप्रतिशत सहमत हूँ ‘जय’ जी। अरविंद जी की उदारता की वजह से ही आज हम सब एक परिवार बन कर एकत्र हुए हैं और ईश्वर चाहेगा तो हम सदैव ऐसे ही रहेंगे।”

सभी ने उच्च स्वर में सहमति दी – “अवश्य, ऐसा ही होगा।”

स्वरचित:©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

             ★समाप्त★

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