“रिश्तों के बीच विश्वास का एक पतला धागा होता है”…..तुम्हें इतनी छोटी सी बात समझ में क्यों नहीं आती? रोज़ नये नये पैंतरे अपनाती हो उसे परखने के लिए….ये अपनी बहु पर शक करने की आदत कब छोड़ेंगी आप?- दीनदयाल जी ने अपनी धर्मपत्नी प्रेमा जी से कहा।
प्रेमा जी- “अरे कैसी बातें कर रहे हो आप…….. कल की आयी लड़की पर एकदम से कैसे विश्वास कर लूं? जांचना परखना तो पड़ता ही है। मेरा तो आना जाना रहता है अब बहु के हवाले पूरा घर छोड़ के कैसे जा सकती हूँ….. देखना तो पड़ेगा न। आप रहने दीजिए…घर-गृहस्थी की बातें हैं आपको समझ में नहीं आएंगी। आप अपना अखबार पढ़िए।
प्रेमा जी मुँह बनाते हुए वहां से चली गयीं…………….
तभी ट्रिंग- ट्रिंग
दीदी……..बहु आ गयी अब तो घर में…….कैसा चल रहा है सब? आराम मिल रहा होगा- करुणा जी (छोटे भाई की पत्नी)
प्रेमा जी- “हाँ करुणा…………इसमें तो कोई संदेह नहीं और बहु नियत की भी साफ है। मुझे शक था कि इसके हवाले घर छोड़कर जा सकती हूँ या नहीं। तो मैंने बिस्तर पर 500 का नोट रख दिया और बहू को बिस्तर साफ करने के लिए बोला तो उसने मुझे पहले वो 500 रुपये दिए। इसी तरह 2-3पैंतरे और अपनाए लेकिन बहु सब पर खरी उतरी।सच में मैं तो गंगा नहा गयी।
करुणा जी – “दीदी बहु लायी हो या नौकरानी”? संदेह से रिश्ते नहीं बनते………”रिश्तों के बीच मे तो विश्वास का पतला सा धागा होता है”……रिश्तों में अगर जरा सा भी संदेह आ जाये तो धागा टूटने में तनिक भी देर न लगे है जिज्जी…. वो तो सिर्फ प्यार के भूखे होवे हैं। वैसे आप मुझसे बड़ी हैं बेहतर ही जानती होंगीं। घर आइयेगा आप और बहुरिया को भी लाइएगा। रखती हूँ फोन……
प्रेमा जी गहरी सोच में डूब जाती हैं…….
तभी निशा(बहु)- “माँ जी……ये मेरे गहने… आप रख लीजिए अपने लॉकर में….वो क्या है कि मेरी अलमारी का लॉकर ठीक से बन्द नहीं हो पा रहा है”….
“लेकिन बहु ये तो तेरे मायके के गहने हैं…. तू मुझे क्यों दे रही है…..अपनी माँ के पास भी तो रखवा सकती है हिफाजत से….तुझे डर नहीं लगता अगर कल को मैंने ये गहने अपने पास ही रख लिए तो….प्रेमा जी ने संकोच वश कहा।
निशा- “माँ जी कैसी बातें कर रही हैं आप….मैं सिर्फ आपको कहने के लिए माँ नहीं बुलाती….दिल से मानती भी हूँ। माँ भला बच्चों के साथ कभी बुरा कर सकती है”
प्रेमा जी को अपनी गलती का एहसास हो चुका था। निशा के प्यार और विश्वास ने अपनेपन की मिठास घोल दी थी। “बहु तूने तो मुझे माँ मां लिया था लेकिन शायद मैं ही तुझे बेटी का दर्जा नहीं दद पायी। अपनी माँ को माफ कर देगी?-ग्लानि का भाव लिये प्रेमा जी बोलीं।
दीन दयाल जी ये सब देखकर मुस्कुरा रहे थे….चलो देर से ही सही अक्कल तो आयी इसे।
अरे भई खाने को कुछ मिलेगा या नहीं आज……….
प्रेमा जी- नहीं….आज आप बाहर से ही आर्डर कर लो। आज मैं और निशा मेरे मायके जा रहे हैं…..आखिर निशा को भी तो पता चले कैसा है उसका ननिहाल……
दीनदयाल जी- अच्छा….ऐसी बात है तो मैं भी तैयार हो जाता हूँ आखिर मेरा भी तो ससुराल है..
और तीनों खिलखिला के हँस पड़ते हैं।
दोस्तों…… नए रिश्तों पर विश्वास करना इतना आसान नहीं होता लेकिन अगर कोशिश की जाए..हर रिश्ते को दिल से अपनाया जाए तो कुछ भी मुश्किल भी नहीं है।
तो….कैसी लगी आपको मेरी ये काल्पनिक कहानी। कमेंट में बताइएगा ज़रूर। पसन्द आये तो लाइक और शेयर करना न भूलिएगा।
#पराए_रिश्तें_अपना_सा_लगे
आपकी ब्लॉगर दोस्त
अनु अग्रवाल