रंग -अनुज सारस्वत

आज ब्रज में होली रे रसिया

होली रे रसिया बरजोरी रे रसिया

आज ब्रज में होली रे रसिया “

घर के स्पीकर पर यह गाना बज रहा था जो दादू ने लगाया था

इतने में 20 वर्षीय अनिकेत अपने रूम से बाहर आया और झुंझलाते हुए दादू से बोला

“दादू आप यह बंद करो मुझे गेम खेलने में दिक्कत हो रही ,आप भी फालतू की चीजें लगाकर बैठ जाते हो “

दादू मुस्कुराए और कहा

“अरे बेटा होली आने बाली और जब तक यह गाना नही बजे तो माहौल नही बनता ,तुझसे कुछ बात करनी थी तू मेरे पास आ”

बिना मन के अनिकेत दादू के पास बैठ गया

दादू- “अच्छा यह बता क्या समझता है होली से तू”

अनिकेत-“सब बेकार है कितना वातावरण को नुकसान पहुंचता है,सड़के गंदी हो जाती है ,पानी बर्बाद करते है लोग ,जबरदस्ती रंग लगाते है बिना बात के,मुझे नही पसंद “

दादू -“यह सब फेसबुक ,वहाटसअप का ज्ञान पढ़ा न तूने ,थोड़ी और रिसर्च कर लेता अपने वेद ,पुराण संस्कृति की तो ऐसा नही सोचता, क्योंकि यह महाविज्ञान है हमारे वेद,पुराण लेकिन तुम लोग इसे दकियानूसी कहते हो ,इस हिसाब तो आइंस्टीन भी दकियानूस था जो गीता पढ़ता था और भी बहुत उदाहरण हैं चल तुझे होली का बताता हूं।

हमारे ऋषि मुनियों ने हर तीज त्यौहार को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही बनाया है ,भगवान के उदाहरण प्रस्तुत इसीलिए किये गये क्योंकि पहले लोग भगवान भक्त होते थे और बहुत लगाव से और खुशी खुशी सारे त्यौहार करते थे ,कम पढ़े लिखे होते थे लेकिन सामाजिक बहुत होते थे स्वार्थ नामकी चीज नही होती थी,संतोषी जीवन था आजकल की तरह नहीं था ,

होली दो दिन मनाई जाती है एक दिन जलती है दूसरे दिन रंग खेला जाता है

जलने के पीछे पौराणिक कथा प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की है,वह भी ईश्वर को नही मानता था तो अपनी बहन होलिका की गोद में प्रह्लाद को बैठाकर जलाया ,होलिका को वरदान था न जलने का लेकिन इसका उल्टा हुआ ,होलिका जल गयी ,प्रह्लाद बच गया ।

इसीलिए घर घर ,गली मोहल्ले चौक पर होली जलाई जाती है ,और 6महीने से सूखे पेड़ को जलाया जाता है।

वैज्ञानिक कारण सुन इसका अब

 शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ा देता है लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान बढ़ता है।

परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है।

अब रंगो का सुनो यह प्रथा कृष्ण जी ने शुरू की थी प्राकृतिक फूलों के रंग के साथ और खूब गाजे बाजे के साथ

होली का त्योहार साल में ऐसे समय पर आता है जब मौसम में बदलाव के कारण लोग उनींदे और आलसी से होते हैं। ठंडे मौसम के गर्म रुख अख्तियार करने के कारण शरीर का कुछ थकान और सुस्ती महसूस करना प्राकृतिक है। शरीर की इस सुस्ती को दूर भगाने के लिए ही लोग फाग के इस मौसम में न केवल जोर से गाते हैं बल्कि बोलते भी थोड़ा जोर से हैं।

इस मौसम में बजाया जाने वाला संगीत भी बेहद तेज होता है। ये सभी बातें मानवीय शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त रंग और अबीर (शुद्ध रूप में) जब शरीर पर डाला जाता है तो इसका उस पर अनोखा प्रभाव होता है।

वैज्ञानिको के अनुसार होली पर शरीर पर ढाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं

पश्चिमी फीजिशियन और डॉक्टरों का मानना है कि एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है।

हमारे शरीर में किसी रंग विशेष की कमी कई बीमारियों को जन्म देती है और जिनका इलाज केवल उस रंग विशेष की आपूर्ति करके ही किया जा सकता है।

लेकिन आजकल मिलावट ने पैर पसार लिये है ,इसीलिए केवल प्राकृतिक चीजों से होली खेलो प्रेम बढ़ता है वैर मिटता है गले मिलते है एक दूसरे से मिठाई खिलाते है”

अनिकेत दादू की बातों मे खो गया

और पैर छूकर माफी मांगने लगा

और कहा दादू अब हम सब मिलकर प्राकृतिक रंगो से होली मनाएंगे बताओ कितने होशियार थे हमारे ऋषि मुनि सैल्यूट है उनको ।

इधर दादू ने दूसरा गाना लगा दिया तेज आवाज में

“होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा”

-अनुज सारस्वत की कलम से

(स्वरचित)

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