प्रेतात्मा का प्रतिशोध    ( भाग 1 ) – गणेश पुरोहित

रामप्रकाश की आंखों में आज नींद नहीं थी। रह रह कर उसके मन में जिंदगी को खत्म करने का ख्याल आ रहा था। पिता के बोल- ‘अब अपना बंदोबस्त कर भाई, हम तुम्हें बिठा कर खिला नहीं सकते,’ उसके जेहन में कांटों की तरह चुभ रहे थे। रामप्रकाश एक कारखाने में नौकरी करता था। कारखना बंद हो गया।  छ: महीने से वह गांव में बैरोजगार बैठा है। मां थी नहीं। भाई-भौजाई के ताने तो अक्सर सुनने ही पड़ते थे, किन्तु अब पिता भी उनके साथ  हो गये थे, जो उसे सहन नहीं हो रहा था ।

      रामप्रकाश ने खाट छोड़ दी। उठा और धीरे से दरवाजा खोल बाहर आ गया। पूर्णमासी की आधी रात थी। चांदनी पूरे यौवन पर थी। पूरा गांव चांदनी की रोशनी से नहा रहा था। उसके मन में विचार आया- भूतहा तालाब चलते है, तालाब भक ले लेगा। फिर जिंदगी खत्म ।……. हां, बच गये तो  भूतहा तालाब में धुनी रमाये बैठे औघड़ बाबा से मुलाकात हो जायेगी। ……बाबा जरुर मुझ पर कृपा दृष्टि बरसायेंगे। बाबा की कृपा दृष्टि होते ही मेरी किस्मत के फाटक खुल जायेंगे। मुझे इस जल्लालत भरी जिंदगी से मुक्ति मिल जायेगी 

    उसके भीतर से आवाज आई, पागल हो गये हो तुम ! आधी रात को भूतहा तालाब जा रहे हो। …..जबकि तुम जानते हो कि सूर्यास्त के बाद आदमी तो क्या पशु भी उधर नहीं जाते। तालाब के आस-पास घना जंगल हैं। तालाब के ऊपरी पहाड़ियों  जंगलों में जंगली जानवर रहते हैं, परन्तु जानवर  भी पानी पीने के लिए तालाब  के नज़दीक नहीं आते। चारों और घने और विशाल वृक्षों का झुरमुट है, किन्तु वहां पक्षियों का कलरव भी नहीं सुनाई देता। औघड़ बाबा भी कोई भूत हैं, जो अकेले वहां पड़े रहते हैं। उधर जा कर तुम निश्चित रुप से जिंदा वापस नहीं आ सकते।




    जिंदा रहना किसे हैं।……. मुझे तो मरना ही है।  इसका जवाब भी उसके भीतर से ही आया , परन्तु भूतों के पास जा कर भूत बनने से तो अच्छा है, जहर खा कर आत्महत्या कर लो या किसी कुअे में कूद कर जान दे दो। ………..वो भी अकाल मौत ही होगी और ऐसे मरने से भी भूत बनना तय है। ……..पर एक बात है, मैं आधी रात को वहां जा कर मरने के पहले औघड़ बाबा का रहस्य तो समझ सकता हूं।.. उसने आपने आपको डाटा, जब जिंदा ही नहीं बचोगे तो औघड़ बाबा का रहस्य जान कर क्या करोगे, रामप्रकाश ?

     इस उधेड़बुन में वह उस जगह आ गया जहां से भूतहा तालाब तक जाने की चढ़ाई प्रारम्भ होती है। यहां एक खुला समतल मैदान है, जहां दिन भर औघड़ बाबा के भक्तों की कारें खड़ी रहती है। भक्त यहीं पर अपनी कारें पार्क कर घने वृक्षों के झुरमुट से हो कर तालाब तक जाने वाली घाटी की चढ़ाई पैदल चढ़ते हैं। औघड़ बाबा तालाब की पाल के एक ओर बने एक गंदे से आश्रम में पड़े रहते हैं। बाबा के कपड़े और सिर पर पहनी हुई टोपी मैल से पूरी तरह काली पड़ गयी,  किन्तु उन्होंने कभी अपने वस्त्र नहीं बदले। यह भी किसी को नहीं मालुम कि बाबा हिन्दू हैं या मुसलमान। बाबा अक्सर सोये रहते या आंखें बंद किये बैठे रहते हैं। वे जब भी आंखें खोलते, सामने बैठे किसी एक शख्स पर आंखें टिका देते। फिर उसे इशारे से अपने पास बुलाते। भाग्यशाली व्यक्ति उठ कर उनके पास आता और उनके चरणों में गिर पड़ता।  बाबा उसके सिर पर हाथ फेरते। बुदबुदाते हुए कुछ कहते। न वह आदमी कुछ पूछता और न बाबा कुछ बोलते, पर ऐसा माना जाता है कि उस व्यक्ति के मन की मुराद पूरी हो गयी। यह सिलसिला संध्या होने तक चलता। सूर्यास्त होते ही सभी लोग चले जाते। रामप्रकाश भी परसो दिन भर बैठा रहा, पर उसकी हाजरी नहीं लगी। निराश हो कर वह घर लौट आया।

    घने वृक्षों के झुरमुट से हो कर चढ़ाई चढ़ने का उसे साहस नहीं हो रहा था। कुछ कदम चलने के बाद कंप-कंपी छुटने लगी थी। हृदय की धड़कन यकायक बढ़ गई थी। ललाट पसीने की बूंदों से भर गई।  एक क्षण को लगा, उसे वापस घर लौट जाना चाहिये। ऐसे आत्महत्या करने से क्या फायदा, जिससे तड़फ- तड़फ कर प्राण निकले। एक क्षण में प्राण पखेरु उड़ जाय और सब कुछ खत्म हो जाय, ऐसी मौत ही सबसे सुखद मौत होती है।




    उसके भीतर से उत्तर आया, पागल है, रामप्रकाश तू ! मौत को गले लगाना चाहता है और मौत से ही भयभीत हो रहा है। साहस कर तेज कदमों से घाटी चढ़। …..क्या होगा, इसकी चिंता अभी से मत कर। उसने एक नि:श्वास भरी।  आंखें बंद की और तेज कदमों से घाटी की चढ़ाई चढ़ने लगा। उसके भीतर से फिर आवाज आयी, आंखें तो खोल बेवकूफ, कहीं गिर पड़ा और अपाहिज हो गया तो और लेने के देने पड़ जायेंगे। उसने आंखे खोली।  घाटी में अचानक छितरा गये अंधेरे का अहसास कर भय से कांप उठा। पेड़ो के पत्तों से छन कर आ रही चांदनी की रोशनी, जिससे पगडंड़ी स्पष्ट दिखाई दे रही थी यकायक लुप्त हो गई। दरअसल काली बदली का  टुकड़ा कहीं से रैंगता हुआ आया और उसने चन्द्रमा को अपने आगोश में  छुपा लिया था। वह स्थिर खड़ा रह गया। भय से उसने फिर आंखें बंद कर ली। उसे अपने निर्णय पर पछतावा होने लगा।

     बदली की ओट से थोड़ी ही देर में चन्द्रमा बाहर निकल आया और घाटी पर फिर चांदनी छितरा गई। रामप्रकाश ने राहत की सांस ली और लगभग दौड़ता हुआ घाटी चढ़ता हुआ दो पहाड़ियों  के बीच बने प्राकृतिक तालाब की पाल तक पहुंच गया। तालाब के कोने में एक विशाल  वटवृक्ष था, जिसके तने से सहारा ले कर कुछ पल सुस्ताने लगा। तालाब बहुत शांत था। चांदनी रात में तालाब की जलराशि सफेद चांदी सी चमक रही थी। अजीब तालाब है यह। अतिवृष्टि होने पर जब अथाह जलराशि पहाड़ो से रिस कर तालाब में आती है, तब भी यह छलकता नहीं। अनावृष्टि होने पर भी यह सूखता नहीं। तालाब के पानी का स्तर हमेशा एक जैसा बना रहता है। कोई इस तालाब में उतर कर नहाता नहीं। यहां तक कि कोई हाथ भी नहीं डालता, इसलिए इसका पानी हमेशा स्वच्छ और निर्मल दिखाई देता है।




     थोड़ी देर सुस्ताने के बाद रामप्रकाश ने डरते-डरते बरगद के पेड़ की ओर देखा। जब वहां उसे कुछ नहीं दिखाई दिया, तो भयमुक्त हो पूरे बरगद पर निगाहें डाली। वह मन ही मन बुदबुदाया- कहते हैं इस वटवृक्ष पर चुड़ैले रहती हैं, जो रात को पेड़ की शाखाओं से जमीन पर उतरती है और फिर सब मिल कर नाचती है। परन्तु उसे तो यहां कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है। न भूत है न चुड़ैल -सब लोगों के घपोड़े हैं।….. दरअसल भूत-वूत कुछ होते ही नहीं। सब लोगों के मन का भ्रम है। अब मैं रात भर यहीं रहूंगा। औघड़ बाबा के आश्रम के कौने में कहीं पड़ा रहूंगा। बाबा सोये होंगे, तो जगेगे। मेरी ओर जरुर देखेंगे। उनकी कृपा होते ही मेरे नसीब जग जायेंगे। सुबुह होते ही गांव जाऊंगा और लोगों को कहूंगा,  मैं भुतहा तालाब में रात गुजार कर आया हूं। वहां मुझे कोई भूत नहीं दिखाईर दिया। आप लोग  बहुत डरपोक हों। इस तालाब में उतरो। खूब जी भर कर नहाओ। देखों, कितना साफ पानी है।

उसने गांव के बुर्जुगों से सुना था- तालाब के पीछे की पहाड़ी के नीचे जो समतल मैदान हैं वहां मुगलो और प्रताप की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। युद्ध समाप्ति  के बाद लोगो ने तालाब में लाशों को तैरते हुए देखा था। किसी ने रात को यहां अजीबसी आवाज़े सुनी थी। तबसे ही लोग इधर जाते हुए डरने लगे थे। तालब का नाम भूतहा तालाब पड़ गया था। लोगों ने भूतहा तालाब को लेकर अनेक किस्से बना लिये थे, जिसे सुनाकर वे अक्सर डराते रहते हैं। 

     उसका भय थोड़ा कम हुआ। उसने राहत की सांस ली। वह टहलता हुआ धीमे कदमों से चल कर  तालाब की पाल पर आ गया। चारों ओर, नीरव सन्नाटा पसरा हुआ था। गर्दन ऊंची कर आसमान की ओर देख कर बोला, है, ‘भगवान ! तूने मुझे बचा लिया। मेरी रक्षा की, वरना अब तक तो मैं………  सहसा वह चौंक गया। उसकी निगाहे औघड़ बाबा के आश्रम की ओर पड़ी। वहां अजीब सा दृश्य देख कर वह भय से थर-थर कांपने लगा। औघड़ बाबा ने गंदे वस्त्र नहीं, सफेद झक्क कपहे़ पहने हुए थे। सिर पर लाल चमकीली टोपी थी। बाबा अपने आश्रम के बाहर टहल रहे थे। उनके अगल-बगल में बादलों जैसी आकृतियां तैर रही थी, जिनके हाथ-पांव नहीं थे, किन्तु चमकीली आंखें थी। पक्षियों के परों की तरह फड़फड़ाती वे आकृतियां बहुत भयावह थी।




     वह पीछे पलटा और तेजी से भागने लगा।  अचानक किसी ने उसकी पीठ पर जोर से मारा और वह धम्म से जमीन पर गिर पड़ा। साहस कर वह उठा और चारों ओर देखने लगा। वहां उसे कोई नहीं दिखाई दिया। दोनों घुटनों में मुहं छुपा, कांपती वाणी से हनुमान चालिसा की चौपाईयां बोलने लगा- महावीर जब ……भूत पिशाच निकट नहीं आवे…….. उसकी आवाज़ भर्रा गई। वह सुबकने लगा। तभी किन्हीं अदृश्य हाथों ने उसे उठा लिया और पत्थर की तरह तालाब के पानी में फैंक दिया। छप्प की आवाज़ आर्इ। उसका शरीर तेजी से पानी की गहराई में डूबकी लगाने लगा।

  रामप्रकाश तालाब के पेंदें में पडा था। उसकी सांस चल रही थी। पानी उसके मुहं के अंदर नहीं गया था। वह पूर्णतया चेतन अवस्था में था। वह बैठ गया। उसने आश्चर्यमिश्रित कौतुहल से चारों ओर देखा और बुदबुदाया, मैं मरा नहीं हूं। जिंदा हूं।… मेरी सांस चल रही हैं।…. मेरे मस्तिष्क में विचार आ रहे हैं। ….. यह कैसा चमत्कार है, भगवान ! इतनी देर से पानी के अंदर हूं, फिर भी जिंदा हूं। ….क्या मैं मर गया हूं और मेरी आत्मा……… अरे, पागल मरने के बाद शरीर थोड़े ही आत्मा के साथ जाता है…….नहीं, तू मरा नहीं है, रामप्रकाश ! अभी तेरी जिंदगी खत्म नहीं हुई। वह उठ कर बैठ गया। कितना साफ चांदी सा चमकता जल था। पर आश्चर्य- पानी का एक भी जीव जन्तु यहां तक कि मछलियां भी उसे नहीं दिखाई दी। उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई, कहीं मगरमच्छ तो नहीं है। अच्छा, हो, मगरमच्छ हो और वह उसे निगल जाय। उसे अपने आप पर हंसी आ गई, जिंदगी से प्यार भी हैं और उसे खत्म करने की भी सोचता है…….नीरा मूर्ख है, रामप्रकाश तू !

      कुछ भी  हो रामप्रकाश, अब तुम जिंदा बच कर अपने घर नहीं जा पाओगे। सुबह तुम्हारी लाश तालाब की सतह पर तेरती दिखाई देगी। गांव में बिजली की तरह बात फैल जायेगी कि मगन चाचा के बेटे रामप्रकाश का भूतहा तालाब ने भक ले लिया। रात को घर में सोया था। पता नहीं कब उठ कर तालाब की तरफ चला गया।……….. शायद भूत ही उसे घर से उठा कर ले गये होंगे। सभी तमाशबीन दर्शक की तरह उसकी लाश को  देखेंगे। सिर्फ उसके पिता ही दहाड़ मार कर रोयेंगे।………..तुम्हें मरने के लिए यहां आने की क्या जरुरत थी ………निकम्मे हो कर घर पर बैठे-बैठे खाओगे तो एक बाप की आत्मा तो दुखेगी न। …….. सच बात यह है कि तुम से खेतों में मजदूरी नहीं होती।…. तुम एक नम्बर के आलसी हो, इसलिए तुम्हें आज ये दिन देखने पड़ रहे हैं। 




    वातरवरण की निस्तब्धता भंग हो गई। उसे अजीब सी घ्वनियां सुनाई दी, जो उसकी समझ के बाहर थी। सहसा उसे बादलों जैसी आकृतियां पानी में तेरती हुई दिखी। ठीक वैसी ही जैसी उसने औघड़ बाबा के इर्द-गिर्द देखी थी। सरसराहट करती  एक आकृति उसके नज़दीक आ गई। उसकी आंखें बहुत चमकीली थी, ठीक टार्च की रोशनी की तरह। उसकी तरफ वह देख नहीं पाया, क्योंकि आंखें चुंधिया गई। तभी उसे लगा किसी ने उसे धक्का दे कर नीचे गिरा दिया और उसकी छाती पर बैठ गया। उसे अपनी छाती पर असहनीय भार लगने लगा। वह दर्द से छटपटा उठा। अब उसका गला दबाया जा रहा था। एक क्षण के लिए उसे लगा, उसकी सांस रुक गई है। अब टूट जायेगी। उसके जीवन के थोड़े से पल है, जिसका उसे अहसास हो रहा है। फिर सब कुछ खत्म हो जायेगा।……. चलो, संसार से विदा लेने की अंतिम घड़ी आ गई।

      थोड़ी देर तक रामप्रकाश अवचेतन अवस्था में था, फिर उसकी तन्द्रा लौट आई। उसकी छाती पर अब कोई भार नहीं था। उसका गला भी दबाया नहीं जा रहा था। वह अब आसानी से सांस ले रहा था। वह उठ कर बैठ गया। जीवन और मृत्यु के बीच का खेल हर पल रोमांचक बनता जा रहा था। वह साहस कर खड़ा हो गया। उसे महसूस होने लगा कि उसके हाथों पावों में अब बहुत ताकत आ गई है। उसने तेरने की कोशिश की तो वह सचमुच तेरने लग गया। कुछ ही पलों में वह पानी की सतह पर आ गया । तालाब की सी​िढ़यों पर आ कर उसने पार्श्व में खड़े बड़े से पहाड़ की ओर देखा। उसे ऐसा अहसास होने लगा कि अब उसके भीतर इतनी ताकत है कि वह दौड़ कर पहाड़ पर चढ़ सकता है।

      रामप्रकाश की इच्छा हुई कि वह दौड़ कर घाटी उतर जाय और अपने घर चला जाय। पर यह क्या उसके कदम तो औघड़ बाबा के आश्रम की ओर जा रहे थे। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। उसे लगा अब उसके शरीर पर उसका नियंत्रण नहीं रह गया है। आश्रम में औघड़ बाबा ध्यान की मुद्रा में बैठे थे। उनकी आंखें बंद थी। बाबा की आंखें खुलने तक वह निर्विकार भाव से बाबा के सामने खड़ा रहा। बाबा की आंखें खुली। उसे सामने देखते ही वे लगभग चीखते हुए खड़े हो गये और क्रोध से आग बबूला हो, उसके गाल पर जोर से थप्पड़ मारा। उसने अपना गाल सहलाया। इतने जोर की मार का उसके शरीर पर किंचित भी असर नहीं हुआ था।




     बाबा चिल्लाये, ‘तुमने इस इंसान के शरीर में प्रवेश क्यों किया ?……… इसे कहां से पकड़ कर लाये ?’

   ‘यह स्वयं आधी रात को यहां तालाब की पाल पर चल कर आया था, बाबा !’ कहते हुए वह बाबा के चरणों में गिर गया और सुबकते हुए बोला, ‘ बाबा, जब तक मैं अपने शत्रुओं से बदला नहीं लूंगा, मुझे प्रेतयोनी से मुक्ति नहीं मिलेगी।…… उन्होंने मेरा बेरहमी से कत्ल कर मुझे इस सुनसान तालाब में फैंका था। हत्या इतनी सफाई से की थी कि वे कभी पकड़े नहीं जायेंगे। उनका जुर्म साबित नहीं होगा और उन्हें सजा नहीं होगी। मुझे कभी प्रेतयोनी से मुक्ति नहीं मिलेगी। मैं उन दुष्टों को सजा देना चाहता हूं, बाबा ! मुझे एक मौका दे दो। मैं छ: माह में अपना काम पूरा कर लौट आऊंगा।’

      बाबा अविचलित रहे। उन्होंने अपनी आंखें बंद कर दी। फिर खोली। उनके के चेहरे पर उभरा क्रोध विलुप्त हो गया।  स्नेहिल भाव उभरा। वे बहुत देर से उसे एक टक देखते रहे। कुछ देर बाद बोले, ‘ मुझे दुख है कि धोखें से तुम्हारी हत्या इसी तालाब पर हुई। वे लोग बच नहीं सकते, जिन्होंने इस तालाब को बदनाम किया है।….. ….  मैं भी वही चाहता हूं, जो तुम चाहते हो।’ बाबा ने उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और उसे गले लगा लिया,  ‘ठीक है, छ: माह बाद, ऐसी ही एक पूर्णमासी  की रात को तुम यहां लौट आओगे और इस प्राणी को मुक्त कर दोगे।’

  ‘मैं, वचन देता हूं, बाबा !’ कह कर वह एक बार पुन: बाबा के चरणों में झुका, फिर  नीची निगाहें कर आश्रम से बाहर आ गया। रामप्रकाश के चेहरे पर एक असीम शांति थी। वह तेज कदमों से लगभग दौड़ता हुआ घाटी उतर गया। पो फटने को थी, अत: वह घर जाने के बजाय नीचे बहती हुई नदी की ओर मुड़ गया। बहुत देर तक पानी में पड़ा रहा, ताकि प्रेत उसकी देह छोड़ दे, पर ऐसा नहीं हुआ। भींगे कपड़े पहने ही वह घर लौट आया। घर में घुसते ही उसका सामना पिता से हुआ। उसकी चपलता और फुर्ती देख कर वे दंग रह गये। परन्तु शरीर पर धारण कर रखे गिले कपड़ो को देख वे अपने आपको कटाक्ष करने से नहीं रोक पाये, ‘सुबह सुबह पूरे तर बतर हो कर कहां से आ रहे हो ?….. क्या किसी तालाब या कुअें में डूब कर मरने गये थे ?’ प्रत्युत्तर में उसने कुछ नहीं कहा और तीर की तरह अपने कमरे में दाखिल हो गया।




    रामप्रकाश ने गिले कपड़े खोले और सूखे वस्त्र पहन लिए। उसके पास दो ही जोड़ी कपड़े थे। जो उसने पहन रखे थे, वे थोड़े ठीक-ठाक थे, किन्तु अब जो उसने पहने, वे बहुत ही खस्ता हालत में थे। कमीज की कालर फट रही थी। बाहं से कोहनी भी बाहर आ रही थी। एक आध बटन टूटे हुए थे। लगभग ऐसे ही हालात पतलून की थी। चप्पल तालाब में खुल कर कहीं डूब गई थी। उसने पांव में धीसी हुई स्लीपर डाली और अपने कमरे से  बाहर आ गया।

    भाभी कनखियों से अपने देवर के बदले हुए रुप को देख रही थी।  भैया के मन में कौतुहल था कि धूप निकलने के बाद उठने वाला उसका आलसी  भाई आज सुबह-सुबह तैयार हो कर जा कहां रहा है। नन्हा सा भतीजा उसके पांवों में लिपटते हुए तुतलाती आवाज में बोला,’ तां जा रहे हो ताता ? मैं भी चलूंगा….।’ उसने भतीजे को गोद में उठा लिया। सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और नीचे उतार दिया।

   ‘मैं शहर जा रहा हूं। ‘पिता को महज एक सूचना दी और दरवाजा खोल बाहर आ गया। पिता मन ही मन बुदबुदाये, ढोंगी कहीं का ।….. कहीं नहीं जा रहा है, शाम तक लौट आयेगा।

     उसने अपने आप से प्रश्न किया, ‘रामप्रकाश ! जेब में एक पैसा नहीं। हुलिया फटिचर जैसा…….ऐसी हालत देख कर तुम्हें शहर में कौन काम देगा।………..और तुम वहां रहोगे कहां ?……… खाओगे क्या ?’………उसके भीतर से ही उत्तर आया,’ मैं नहीं जा रहा हूं, शहर……मेरे भीतर बैठे भूत महाराज मुझे ले जा रहे हैं। ……..ये मेरे शरीर में जब से बैठे हैं, मेरी ताकत कई सौ गुणा बढ़ गई है।  जिस रफ्तार से मैं चल रहा हूं, उस हिसाब  से रेलवे स्टेशन, जो यहां से दस कोस दूर हैं, मैं वहां तीन चार घंटे में पहुंच जाऊंगा। ‘




    तभी रामप्रकाश के पास से  हो कर एक मोटरसाइकिल गुजरी। अचानक वह कुछ ही दूर जा कर स्लीप हो गई। उसे चलाने वाला युवक, जो उसके गांव का ही था, जमीन पर गिर कर कराहने लग। उसने मोटरसाइकिल उठा कर स्टेंड़ पर खड़ी की। उस लड़के को उठा कर  के पीछे इस तरह बिठा दिया जैसे वह एक छोटा बच्चा हो। फिर रामप्रकाश स्वयं बाइक पर बैठ गया और ड्राइव करने लगा। लड़के ने चिल्ला कर उसे रोकना चाहा पर कुछ ही देर में बाइक हवा से बातें करने लगी। रफ्तार इतनी तेज थी कि राहगीर भी आश्चर्य मिश्रित भाव से रामप्रकाश को देखने लगे। रामप्रकाश को लोगों ने आज तक गांव में कभी साइकिल चलाते हुए नहीं देखा था, उसे इस तरह मोटर साइकिल भगाते देख दंग रह गये। रेलवे स्टेशन कुछ ही मिनटों में ही पहुंच गये। रामप्रकाश ने बाइक रोक कर उस युवक, जिसका नाम रोहित था, गाल पर हल्की सी थपकी दी, ‘माफ करना दोस्त !….. मुझे ट्रेन पकड़नी थी, इसलिए……….’

     रोहित ने रुआंसी आवाज में उत्तर दिया, ‘ तुम गुंडे़ बन गये हो रामप्रकाश !…..मैं मगन चाचा से जरुर तुम्हारी  इस हरकत की शिकायत करुंगा ।’

  उसने कोई जवाब नहीं दिया और रेलवे स्टेशन पर जा कर एक ब्रेंच पर आंखे बंद कर बैठ गया। वह मन ही मन विचार करने लगा,  यह भूत तुम्हें फंसा देगा रामप्रकाश…… कहीं जेल की हवा खानी पड़ी, तो लेने के देने पड़ जायेंगे।……… ऐसा कर, जब रेल आये तब कूद कर पटरियों पर सो जाना। तू कट कर मर जायेगा और यह भूत महाराज यहीं रेलवे स्टेशन पर डोलते फिरेंगे।…….. हो सकता है, उन्हें अपने दुश्मन कहीं मिल जाय और ये उनसे बदला ले लें।

     परन्तु जब ट्रेन आ कर रुकी तो उसकी सारी कल्पना काफूर हो गयी। वह तेजी से खचाखच भरे हुए डिब्बे में चढ़ गया। रामप्रकाश मन ही मन बुदबुदाया, चलो, भैया, भूत महाशय के साथ शहर घूम आते हैं।….. अब यह शरीर तुम्हारे बस में नहीं रहा, रामप्रकाश। ढीला-ढ़ाला रामप्रकाश कितना फुर्तिला नौजवान बन गया है। शरीर में इतनी ताकत आ गई है कि अब कुछ ही मिनटों में पूरा का पूरा खेत हाक सकता हूं। ये भूत महाशय अपना काम कर वापिस आ जाय और मेरे शरीर में ही बैठे रहें तो मैं अपने परिवार को बता दूंगा कि मैं कितना कठिन काम करने में सक्षम हूं। मैं आलसी और बेकार आदमी नहीं हूं…..मैं आप सब के काम का आदमी हूं।




      लोकल कोच की एक पूरी बर्थ पर एक पहलवान सोया हुआ था और उसके सामने वाली बर्थ पर उसके तीन शार्गिद बैठे हुए थे। यात्री गेलरी में खड़े हुए थे, किन्तु किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि इन मुस्टंड़ो से बैठने के लिए जगह मांगे। मुसाफिरों से ठसाठस भरे डिब्बें में कुछ पल यूं ही खड़ा रहा। फिर अचानक उसे क्या सूझा कि उसने  पहलवान को अपने दोनों हाथों में उठा लिया और उसे इस तरह उठा कर गेलरी में फैंक दिया, जैसे बर्थ पर रखा हुआ कोई सामान हो । सामने बैठे तीनों मुस्टंड़े उसे मारने के लिए उठे, परन्तु वे उठते ही लड़खड़ा गये और एक दूसरे पर गिर पड़े।  उनमे से एक उठा और क्रोध से आग बगुला हो कर अपने साथी के गाल पर कस कर एक घूंसा जड़ दिया।  उसके मुहं से खून निकलने लगा। दूसरा अपने दर्द का सहन नहीं कर पाया और करहाते हुए अपने साथी के पेट में जोर से लात मारी। लात खाते ही वह गेलरी में पड़े पहलवान पर जा कर गिरा। पहलवान कराहते हुए बोला, ‘ छोड़ो यार,  इससे फिर निपटेंगे।’ पहलवान बैठ गया और उसके तीनों साथी उसी सीट पर पसर गये। डिब्बे में खड़े हुए या बैठे हुए सहयात्रि जो इन गुंण्ड़ो से डरे हुए थे, एक रोमांचित करने वाले दृश्य को देख खिलखिला कर हंस पड़े। मुस्टंड़ो ने क्रोधित हो कर लोगों को इस तरह देखा जैसे वे सब को खा जायेंगे।

  रामप्रकाश आंखें बंद किये हुए इस तरह बैठा था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उसके सामने वाली सीट पर बैठे सभी पहलवान उसकी ओर देख कर गुर्रा रहे थे। कुछ देर बाद पहलवान के मन में आया कि यह भी तो दुबला पतला आदमी ही है, क्यों न इसे उठा कर फाटक से बाहर फैंक दूं। पहलवान उठा और रामप्रकाश के समीप आ उसे उठाने की कोशिश करने लगा, पर वह तो उससे हिला ही नहीं। जैसे गाल पर मक्खी बैठती है, तब उसे हलकी थपकी दे कर भगाया जाता है, उसी तरह उसने पहलवान को आंखें बंद किये ही हल्की सी चपत लगार्इ, किन्तु उसकी चोट भी वह सहन नहीं कर पाया और धड़ाम से नीचे गिर गया। पहलवान उठ कर बैठ गया और अपने साथियों की तरफ मुखातिब हो कर बोला, ‘चलों, दोस्तों,  कहीं ओर बैठते हैं…..यह आदमी नहीं, कोई भूत हैं, इससे हम नहीं जीत सकते।’  कहकर चारों ने अपने सामान उठाया और वहां से चले गये।  

  चारों पहलवानों के वहां से उठ कर जाने के बाद मुसाफिरों को सुकून मिला। अब तक वे सहमे हुए थे, पर अब वे हंसी ठिठोली करने लगे। आज उन्होंने अपने जीवन में अचंभित करने वाला एक अजीब नज़ारा देखा था। दोनों सीटो पर मुसाफिर अपनी जगह बना, इत्मीनान से बैठ गये। उसके पास बैठी महिलाओं ने जो शायद मां बेटी लग रही थी, अपना टिफिन खोला। खाने की खुशबू ने शांत पड़ी उसकी भूख यकायक बढ़ा दी। वह मन ही मन सोचने लगा, भूत महाराज ने पहलवानी का  स्टंट दिखा कर लोगों का मनोरंजन कर दिया, पर अब मेरी भूख कैसे मिटेगी। महाराज को तो भूख लगती ही नहीं, पर मेरे शरीर में बैठ कर अब मुझे भूखा मार रहे हैं।

  ‘खाना खायेगा, बेटा !’ कहते हुए उस महिला ने दो रोटी और सब्जी एक कागज की प्लेट में रख कर उसे दे दी।रामप्रकाश ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा। उसे यकायक अपनी मां की याद आ गयी। उसकी आंखे डबडबा आई। सामने बैठे पति- पत्नी ने भी उसकी प्लेट में दो रोटी और सब्जी रख दी। पेट में खाना जाते ही उसे संतोष मिला। खाना खा कर उसने अपने सहयात्रियों की ओर देखा। सभी के चेहरे के मनोभावों में अपनत्व और उसके बारें में जानने की जिज्ञासा दिखाई दे रही थी। वह कुछ नहीं बोला और प्रश्नों से बचने के लिए आंखें बंद कर इस तरह बैठ गया जैसे उसे नींद आ रही हो।

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