प्रेम और संकोच – डॉ आदर्श प्रकाश

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सत्तर का दशक ।

खबर लगी कि ऋचा एम . ए का पेपर देने लखनऊ नहीं जा रही है ।

परेशान हो उठा श्लोक ।

क्या हुआ होगा ? उनके  उस छोटे शहर में बी. ए तक ही कॉलेज था । पैसेंजर ट्रेन से पेपर देने लखनऊ जाना था रोज । तय यही हुआ था , कि दोनो , अन्य सभी साथियों के साथ आते -जाते रहेंगे ।

परस्पर प्रीत का बीज बी. ए के दौरान अनायास ही पड़ गया था जो अब बिरवा बन कर पनप ही न रहा था बल्कि थोड़ी ना -नुकर के बाद दोनों परिवारों की स्वीकृति भी पा चुका था ।

ट्रेन तैयार थी और वह उदास , अकेला लगातार प्लेटफ़ार्म पर प्रवेश  द्वार की ओर टकटकी लगाए था । शायद …..

जब ट्रेन ने चलने की पहली सीटी मारी तो उसने एक बार फिर उस ओर देखा ।ऋचा ही थी जो लगभग दौड़ती आ रही थी ।

श्लोक के चेहरे पर मुस्कान आ  गई । सभी संगियों ने उन्हें उस कूपे में अकेला छोड़ दिया ।

श्लोक को लग रहा था पूरा कूपे जगमग – जगमग हुआ जा रहा है ।

श्लोक को सामने की बर्थ पर बैठा देख ऋचा पूर्ववत लजा रही थी । भाग कर आने से साँसों को सामान्य करने में समय लग रहा था ।वह मौन रह देखता चला गया उठती -गिरती साँसों को । ऋचा कभी लजा कर उसकी ओर पल भर को देखती , फिर खिड़की से बाहर देखने लगती ।




“ खबर मिली थी कि पेपर देने नहीं चलोगी ? “श्लोक ने थोड़ा ठहरने के बाद पूछा ।

“ हाँ ! माँ बेहद नाराज थीं ।” ऋचा की बड़ी -बड़ी पलकें झुकी हुईं थीं ।

“ क्यों ?”

…………….

“ बोलो न । क्यों नाराज़ थीं ? “

“ डेट नहीं आई वक्त पर । कुछ दिन हो गए थे । फिर बाद में ……।”

“ तो ? इसमें तुम्हारा क्या क़सूर ? “

“ माँ ………।”

“ इसमें डाँटने और पेपर देने न भेजने की क्या बात हुई ? “

“ आप समझते क्यों नहीं ? माँ ………”

“भई मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया ।” श्लोक की आँखों में सवाल ही सवाल थे ।

“ समझ में कुछ नहीं आया तो मुझे कुछ और नहीं बताना । मैं चली ।”

ऋचा ने अपनी किताब और पर्स एक झटके से उठाया और सुर्ख़ लाल चेहरा लिए उस केबिन की  ओर लपकी जहां सभी संगी बैठे थे ।

श्लोक , बुद्धू सा बन अकेला बैठा रह गया केबिन में । गुलाबों की सुगंध उसके चारों ओर व्यापी हुई थी । वह लम्बी -लम्बी साँसें लिए जा रहा था ।

डॉ आदर्श प्रकाश  / उधमपुर

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